भीमा कोरेगांव का विजय स्मारक आज दलित स्वाभिमान और शौर्य का प्रतीक है। प्रतिवर्ष 1 जनवरी को पूरे देश से दलित यहां पहुंचकर पेशवा के ख़िलाफ़ महारों की वीरता और शौर्य का जश्न मनाते हैं। भीमा कोरेगांव सदियों तक होने वाले दलितों के दमन के प्रतिशोध का प्रतीक बन गया है। 1 जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए महार रेजीमेंट के सैनिकों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की भारी-भरकम फौज को परास्त किया था।
पुणे से महज 19 किलोमीटर दूर भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में होने वाले इस युद्ध में शहीद हुए महारों सहित अनेक योद्धाओं के नाम इस शिला स्तंभ पर दर्ज हैं।
गौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा किए गए तमाम युद्धों में केवल यही एक युद्ध है जिसका जश्न आज भी मनाया जाता है। निश्चित तौर पर इस युद्ध का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार से ज्यादा महारों की वीरता और उनकी शहादत से जुड़ा है।
पेशवाओं के हाथ में सत्ता
औरंगजेब की मृत्यु (1707) के बाद मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया। देसी राज्यों पर उसकी पकड़ ढीली होती गई। महाराष्ट्र में मराठे धीरे-धीरे मुगलिया सल्तनत से आजाद हो गए। 1713 में शाहूजी मराठा राज्य के छत्रपति बने। उन्होंने एक चितपावन ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ को मराठा राज्य का पाँचवां पेशवा घोषित किया। इसके बाद पेशवाओं ने मराठा राज्य पर वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर लिया। यानी मराठा राज्य की शक्ति ब्राह्मण पेशवाओं के हाथ में नियंत्रित हो गई।
दलितों के प्रति अत्याचार
माना जाता है कि ब्राह्मण पेशवाओं ने अपने राज्य में वर्ण व्यवस्था और मनु संहिता को कड़ाई से लागू किया। परिणामस्वरूप अछूतों को थूकने के लिए गले में मटकी और पैरों के निशानों की सफाई के लिए कमर के पीछे झाड़ू बांधना अनिवार्य था। अछूतों के साथ होने वाली अमानवीयताओं की दास्तान को अनेक अंग्रेज इतिहासकारों और यात्रियों ने दर्ज किया है।
गौरतलब है कि इस दरमियान भारत में विदेशी शक्तियां भी सक्रिय थीं। पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसियों के बाद आए अंग्रेजों को भारत में पहले व्यापार और इसके बाद साम्राज्य विस्तार का मौका मिला। अंग्रेजों ने भारत में राजाओं की आपसी फूट ही नहीं बल्कि सामाजिक विषमताओं का भी भरपूर फायदा उठाया।
पेशवा सेना को हराया
फ्रांसिस स्टोन्टा के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने मराठा राज्य पर हमला किया। 1 जनवरी, 1818 को भीमा नदी के तट पर पेशवा और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ। अंग्रेजों के अग्रिम मोर्चे पर बांबे नेटिव इन्फेन्ट्री तैनात थी। इसमें करीब 800 सैनिक थे, जिसमें 500 महार सैनिक थे। महार सैनिकों की इस छोटी टुकड़ी ने 28000 सैनिकों वाली शक्तिशाली पेशवा सेना को केवल 12 घंटे में परास्त कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्थान पर एक विजय स्मारक बनाया। इसमें शहीद हुए सैनिकों के नाम दर्ज हैं।
अंग्रेजी साम्राज्य के ख़िलाफ़ हुए 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने जाति आधारित रेजीमेंट को खत्म करने का फैसला किया। 1893 में अंग्रेजों ने महार रेजीमेंट को भंग कर दिया। तब महारों की पहली पीढ़ी के नेताओं ने भीमा कोरेगांव युद्ध की याद दिलाते हुए अंग्रेजों से महार रेजीमेंट को बहाल करने की अपील की। इन नेताओं में गोपाल बाबा वेलिंगकर, शिवराम जानवा कांबले और डॉ. आंबेडकर के पिता रामजी सकपाल शामिल थे। आगे चलकर 1927 में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने भीमा कोरेगांव जाकर शहीद महारों को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद वे निरंतर विजय स्मारक पर जाते रहे।
डॉ.आंबेडकर ने ही भीमा कोरेगांव में दलितों की वीरता और शौर्य के जलसे की शुरुआत की थी। उन्होंने भीमा कोरेगाँव युद्ध जीतने वाले महार सैनिकों की वीरता के प्रति दलितों को प्रेरित किया। उन्होंने इस लड़ाई को जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध महारों की जीत के रूप में पेश किया।
प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े का विचार
प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े आंबेडकर द्वारा कही गयी भीमा कोरेगांव की युद्ध कथा को एक मिथक कहते हैं। उन्होंने लिखा, “जब आंबेडकर ने भीमा कोरेगांव की लड़ाई को पेशवा शासन के जातीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ महार सैनिकों के युद्ध के रूप में पेश किया था, तब वे असल में एक मिथक पेश कर रहे थे। जैसा कि किसी भी आंदोलन को खड़ा करने के लिए मिथकों की जरूरत होती है। हो सकता है उन्हें उस समय इसकी जरूरत लगी हो।” प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े का मानना है कि दलितों की पहचान से जुड़ा, इतिहास का यह मिथक चिंता का विषय हो सकता है।
दिलचस्प है कि प्रोफेसर आनंद की यह चिंता निराधार साबित नहीं हुई। आज वे स्वयं इसके परिणाम भुगत रहे हैं। बीजेपी और आरएसएस के हिंदुत्व का मुकाबला करने के लिए भीमा कोरेगांव युद्ध के 200 साल पूरे होने पर एक बड़े जश्न का आयोजन किया गया। इसके लिए यलगार परिषद नाम से एक आयोजन समिति बनाई गई।
दरअसल, 31 दिसंबर 2017 को 'भीमा कोरेगांव शौर्य दिन प्रेरणा अभियान' के बैनर तले कई संगठनों ने मिलकर एक रैली आयोजित की। इसका नाम यलगार परिषद रखा गया।
इस सांस्कृतिक कार्यक्रम और रैली की आड़ में हिंदुत्ववादियों ने अगले दिन के भव्य आयोजन को हिंसक बना दिया। आयोजन में शामिल होने वालों पर पथराव किया गया। उनकी गाड़ियों को आग लगा दी गई। भीमा कोरेगांव के अतिरिक्त कई दूसरे गांवों में भी हिंसा हुई।
भिड़े-मिलिंद एकबोटे पर आरोप
आयोजकों का आरोप है कि संघ प्रचारक और शिव प्रतिष्ठान के संस्थापक संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के इशारे पर सुनियोजित ढंग से दलितों और वामपंथी कार्यकर्ताओं पर हिंसा की गई। हिंसा पर काबू पाने के लिए पुलिस को आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया। इस हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए।
दमन की कार्रवाई
वामपंथी साहित्य के आधार पर सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आरोपी बनाया गया। इन आरोपियों में मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हनी बाबू, प्रसिद्ध कन्नड़ कवि वरवरा राव, झारखंड के फादर स्टेन स्वामी सहित कई नामचीन हस्तियों पर यूएपीए लगाकर जेल में डाल दिया गया। उन्हें भीमा कोरेगाँव हिंसा का साजिशकर्ता बताया गया।
एनआईए ने सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ संबंधों का आरोप लगाया। एक पत्र के हवाले से इन बुद्धिजीवियों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने के आरोप भी लगाया गया।
वरवरा राव, स्टेन स्वामी की प्रताड़ना
इन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में भी प्रताड़ित किया जा रहा है। विदित है कि जेल में वरवरा राव को कोरोना हुआ लेकिन उन्हें उपचार नहीं दिया गया। उनके वकील द्वारा मामले को उठाए जाने पर ही उनका इलाज किया गया। गौतम नवलखा का जेल में चश्मा खो गया था। उनके घर से पार्सल द्वारा भेजे गए चश्मे को जेल प्रशासन ने वापस कर दिया। 83 साल के फादर स्टेन स्वामी पार्किंसन की बीमारी से पीड़ित हैं। उनके हाथ कांपते रहते हैं। चाय पीने के लिए स्ट्रा और सिपर की मांग को भी जेल प्रशासन ने खारिज कर दिया।
भीमा कोरेगांव में महारों के शौर्य के 200वें जलसे के दौरान हुई हिंसा के बहाने हिंदुत्ववादी ताकतें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का दमन करने पर उतारू हैं।
पूरी दुनिया के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर जेल में होने वाली क्रूरता की निंदा की है। लेकिन दमन का सिलसिला थम नहीं रहा है। अब सवाल है कि हिंदुत्व का मुकाबला कैसे किया जाए।
प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े के शब्दों में, “दलितों को हिंदुत्व के ठेकेदारों की बनाई गई इस पेशवाई से लड़ने की जरूरत है। इसके लिए एक मिथकीय अतीत में अपनी महानता की कल्पना के बजाय आंखें खोलकर वास्तविकता का सामना करने की जरूरत है।”
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