मुल्क की फ़िज़ा कुछ इस तरह से बदल दी गई है कि आज़ादी की बात करना बग़ावत है और आज़ादी की माँग करना देशद्रोह। ये आज़ादी भले ही भूख और भ्रष्टाचार से माँगी जा रही हो, अशिक्षा और शोषण से माँगी जा रही हो, हिंदुत्व और संप्रदायवाद से माँगी जा रही हो, मगर शासक वर्ग और उसके साथ खड़ा मीडिया उसका एक ही अर्थ निकालता है और वह है देशद्रोह। वह उन्हें देशद्रोहियों के रूप में प्रचारित करता है, उन्हें अपमानित, लाँछित करता है। सरकार द्वारा ऐसे लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे थोप दिए जाते हैं, उन्हें जेल में ठूँस दिया जाता है।
ये आज़ादी किस चिड़िया का नाम है जी?
- विचार
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- 15 Aug, 2021

जिन देशों में आर्थिक विषमता कम है, ग़रीबी, भुखमरी, अशिक्षा कम है, लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिल रही हैं, वहाँ आज़ादी भी ज़्यादा है। कुछेक अपवाद हो सकते हैं मगर हक़ीक़त ये है कि आज़ादी चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, उसका सीधा संबंध आर्थिक मामलों से है।
सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक तबका ही नहीं, अचानक देश में एक ऐसा समूह खड़ा कर दिया गया है जो आज़ादी के नाम से त्यौरियाँ चढ़ा लेता है और आज़ादी का ज़िक्र करने वाले को संदेह की नज़र से देखने लगता है। तथाकथित देशभक्ति और राष्ट्रवाद की पिनक में इसे कुछ और सूझता नहीं।
विडंबना देखिए कि पिछले सात सालों में हम जहाँ पहुँचे हैं वहाँ वही चीज़ देश विरोधी हो गई है जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लंबी लड़ाई लड़ी, लाठियाँ-गोलियाँ खाईं और जेल गए। जैसे बहुत सारे दूसरे शब्दों के अर्थ को तोड़-मरोड़कर उन्हें ग़लत अर्थ दे दिया गया है, वैसा ही सलूक आज़ादी नामक लफ्ज़ के साथ भी किया जा रहा है।