पाँच राज्यों के चुनावों के नतीजे केंद्र सरकार, भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष की राजनीति पर असर डालेंगे। इनसे पता चलेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ़ किस ओर जा रहा है। इनसे ममता बनर्जी का राजनीतिक भविष्य भी तय होगा। लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए भी इन चुनावों के नतीजे मोदी और ममता से किसी भी सूरत में कम अहम नहीं हैं। क्योंकि कांग्रेस में उनकी ताजपोशी का बहुत कुछ दारोमदार इन पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों से तय होगा।
इन चुनावों से देश की राजनीति के भविष्य से जुड़े पांच यक्ष प्रश्नों के जवाब निकल सकते हैं। पहला सवाल कि केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों और उनके ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन का भविष्य क्या होगा। दूसरा, इनसे पता चलेगा कि बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा अपनी संगठन क्षमता और रणनीति में कितने खरे उतरे। तीसरा, यह कि कांग्रेस में क्या राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनेंगे या जी-23 नेता समूह की पसंद का कोई पार्टी की कमान संभालेगा। चौथा, यह कि नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले क्या ममता बनर्जी विपक्ष की साझा नेता के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति में उभरकर आएंगी और पाँचवाँ यह कि क्या धुर दक्षिण की राजनीति में बीजेपी के कमल को जगह मिल सकेगी या नहीं।
बात पहले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की जहां 2016 के बाद बीजेपी दूसरी बार अपनी हवा बनाकर ममता बनर्जी के क़िले को ढहाने की कोशिश कर रही है। 2019 के लोकसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित सफलता ने बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद कर रखे हैं। उन्हें लगता है कि पूर्वी भारत के इस सबसे अहम और बड़े राज्य में काबिज होने का यह सबसे माकूल मौक़ा है। इसलिए बीजेपी अभी नहीं तो कभी नहीं की आक्रामक मुद्रा में चुनाव मैदान में है।
उधर बीजेपी के हमलों और निशानेबाजी से असहज ममता ने भी अपनी क़िलेबंदी पूरी कर ली है और वह देश ही नहीं, आंकड़ों के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी सियासी पार्टी और देश की सत्ता पर काबिज ताक़तवर भाजपा से दो-दो हाथ करने निकल पड़ी हैं। यूँ तो कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन भी चुनाव मैदान में है, लेकिन मीडिया से लेकर चुनाव सर्वेक्षण तक तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुक़ाबला मान रहे हैं।
पश्चिम बंगाल, जो कभी कांग्रेस का और उसके बाद वाम मोर्चे का अभेद्य क़िला था, 2011 में उसे ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने जीत लिया। जबकि बीजेपी, जिसके पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पश्चिम बंगाल के ही थे, इसके बावजूद बंगाल की खाड़ी के तट पर न तो जनसंघ का दीपक ही कभी जला और न ही बीजेपी का कमल ढंग से खिला। केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी नीत एनडीए की सरकार थी, तब ममता बनर्जी ने कांग्रेस से बगावत करके तृणमूल कांग्रेस का गठन किया और उन्होंने वाम मोर्चा सरकार के ख़िलाफ़ अपना संघर्ष तेज़ किया। दिलचस्प है कि तब बीजेपी और तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने वाम मोर्चा के ख़िलाफ़ ममता को न सिर्फ़ पूरा समर्थन दिया बल्कि वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए में तृणमूल कांग्रेस एक महत्वपूर्ण घटक दल था और ख़ुद ममता बनर्जी केंद्र सरकार में रेल मंत्री बनीं।
ममता जब नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों की ज़मीन बचाने का संघर्ष कर रही थीं तब उन्हें अपनी मूल पार्टी कांग्रेस का नहीं उस भाजपा का समर्थन और साथ प्राप्त था जो आज उन्हें उखाड़ फेंकने पर आमादा है।
बल्कि ममता के प्रति बीजेपी की यह ममता तब तक बनी रही जब तक कि 2011 में पश्चिम बंगाल से वाम मोर्चे का लाल तंबू पूरी तरह उखड़ नहीं गया। ममता बंगाल में वाम मोर्चे के ख़िलाफ़ सड़कों-खेतों और मेड़ों पर आंदोलन कर रही थीं। प्रदर्शन और आमरण अनशन तक कर रही थीं और भाजपा दिल्ली से उनके समर्थन में अपने सांसदों के प्रतिनिधि मंडलों की कुमुक भेज रही थी और संसद में ममता के समर्थन में आवाज बुलंद कर रही थी। यह सिलसिला 2004 के बाद यूपीए की पहली सरकार बनने तक भी चला क्योंकि तब वाम दल यूपीए सरकार को अपने समर्थन से चलवा रहे थे। लेकिन 2008 में परमाणु समझौते के विरोध में वाम मोर्चे ने यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया तो ममता और कांग्रेस के बीच दोस्ती के तार जुड़ गए और 2009 में यूपीए दो की सरकार में तृणमूल कांग्रेस सरकार में शामिल हो गई।
2011 में जब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस मिलकर लड़े तो ममता ने वाम क़िले को पूरी तरह ढहा दिया।
बीजेपी की प्राथमिकता में बंगाल
2014 में मोदी और बीजेपी को मिली देशव्यापी सफलता के बाद पश्चिम बंगाल बीजेपी की प्राथमिकताओं में पहले नंबर पर आ गया। मध्य प्रदेश के हऱफनमौला नेता कैलाश विजयवर्गीय को पश्चिम बंगाल स्थानांतरित कर दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सभी अनुषांगिक संगठनों ने पश्चिम बंगाल में अपने ज़मीनी काम शुरू कर दिए और 2016 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने ख़ुद को ममता और तृणमूल के विकल्प के तौर पर पेश कर दिया। तब कांग्रेस और वाम दल मिल कर लड़े और बीजेपी ने अभी की ही तरह आक्रामक सघन चुनाव अभियान से यह भ्रम पैदा किया कि अब पश्चिम बंगाल में ममता युग समाप्त हो रहा है। लेकिन 2016 में तृणमूल ने अकेले चुनाव लड़कर 211 सीटें जीतीं और बीजेपी महज तीन सीटों पर ही सिमट गई। पर उसे संतोष था कि उसका मत प्रतिशत बढ़ा है और पार्टी ने दूने उत्साह से लोकसभा की तैयारी शुरू कर दी। जिसका नतीजा 2019 के लोकसभा चुनावों में राज्य की 42 सीटों में से 18 पर जीत के रूप में सामने आया। इन नतीजों ने बीजेपी को विधानसभा चुनावों में ममता के मुक़ाबले लाकर खड़ा कर दिया है।
लोकसभा चुनावों के बाद से ही बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ सियासी जंग छेड़ दी। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद सारे उपाय अपनाए गए।
पाँव में प्लास्टर
लेकिन पांव पर पलस्तर चढ़वाकर वह व्हील चेयर पर बैठकर जिस अंदाज में चुनाव प्रचार में फिर जुट गईं उसने एक तरफ़ तो उनके जीवट को दिखाया तो दूसरी तरफ़ बंगाल की जनता के बीच सहानुभूति का कार्ड भी चल दिया है। इस घटना में जिस तरह बीजेपी के नेताओं ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी उसने भी ममता के प्रति एक सहानुभूति की लहर पैदा की है। बीजेपी के हिंदू ध्रुवीकरण के जवाब में ममता ने बंगाली अस्मिता का दांव चलते हुए ख़ुद को बंगाल की बेटी बताया है।
अब एक तरफ़ बीजेपी का झंडा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और उत्तर प्रदेश के भगवा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उठाए हुए हैं तो मुकाबले में दूसरी तरफ़ अकेली ममता बनर्जी उसी अंदाज में मैदान में हैं जैसे कभी कांग्रेस की पूरी फौज के ख़िलाफ़ गुजरात में अकेले नरेंद्र मोदी मोर्चा लेते थे। मोदी भी तब गुजराती अस्मिता का दांव बेहद खूबसूरती से चलते थे।
जहां ममता के सामने न सिर्फ़ अपनी सरकार बचाने की चुनौती है, बल्कि अपने विधायकों की इतनी संख्या लाने की भी चुनौती है कि अगर ममता सरकार बना लेती हैं तो बीजेपी तोड़फोड़ करके उनकी सरकार को अस्थिर न कर सके और 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अगले कुछ वर्षों में बनने वाले किसी भी विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने का अवसर भी उनके सामने बना रहे। वहीं बीजेपी के सामने हर हाल में ममता का क़िला दरकाने और अगर बहुमत न मिले तो कम से कम इतनी सीटें लाने की चुनौती है कि वो पहले मज़बूत विपक्ष बनकर ममता की सरकार को परेशान करे और सही समय आने पार कर्नाटक, मध्य प्रदेश की तर्ज पर पाला बदल करवाकर सरकार गिरा सके।
कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन
इस लड़ाई में एक तीसरा पक्ष वामपंथी दलों और कांग्रेस का गठबंधन भी है। 2016 के चुनाव में इस गठबंधन ने क़रीब 70 सीटें जीती थीं और इनको मिले मतों की वजह से ही बीजेपी पूरी आक्रामकता से चुनाव लड़ने के बावजूद महज तीन सीटों पर सिमट गई थी। इस बार ममता की सफलता या विफलता का काफी कुछ दारोमदार इस मोर्चे को मिलने वाले मतों और सीटों से भी तय होगा। अगर वाम-कांग्रेस मोर्चा पिछली बार की अपनी सीटों और मतों का प्रतिशत फिर पा लेता है तो निश्चित रूप से ममता बनर्जी को बड़ी राहत होगी और उनके अच्छे बहुमत का रास्ता साफ़ होगा। लेकिन अगर वाम-कांग्रेस मोर्चा के वोट लोकसभा चुनावों की तरह बीजेपी की तरफ़ चले गए तो बीजेपी की सीटों में निश्चित रूप से खासा इजाफा हो सकता है और तब लड़ाई कांटे की हो जाएगी।ममता में किसका भविष्य दाँव पर?
अगर ममता 2016 या उससे कुछ कम सीटें भी पाकर तीसरी बार सरकार बनाती हैं तो निश्चित रूप से यह भाजपा के लिए बड़ा झटका होगा। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कमी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की रणनीति की कमजोरी के तौर पर देखा जाएगा और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ विपक्षी गोलबंदी तेज होगी। ऐसी हालत में दिल्ली में लंबे समय से चल रहे किसान आंदोलन को भी बल मिलेगा और सरकार पर उनकी मांगों को मानने का दबाव भी बढ़ेगा। किसान नेता इसे अपनी सफलता के रूप में प्रचारित करेंगे क्योंकि उन्होंने पश्चिम बंगाल आकर बीजेपी को वोट न देने का प्रचार अभियान चलाया है। लेकिन अगर बीजेपी कामयाब हुई तो ममता की भावी राजनीति कमजोर होगी, उनकी मुश्किलें बढ़ेंगी और विपक्ष का मनोबल टूटेगा। साथ ही किसान आंदोलन कमजोर होगा और केंद्र सरकार की ताकत, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की सफलता माना जाएगा।
असम में मुकाबला
अब बात असम की। असम में मुक़ाबला बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस नेतृत्व वाले महाजोट के बीच है। 2016 में कांग्रेस के 15 साल के शासन को समाप्त करके बीजेपी गठबंधन की सरकार बनी थी। तब बीजेपी ने अकेले अपने दम पर 60 सीटें जीती थीं जो बहुमत से तीन कम थीं, लेकिन सहयोगी दलों को मिलाकर उसके गठबंधन की संख्या अस्सी से ज़्यादा थी और उसकी सरकार बनी। उस चुनाव में पूरे असम में घूम कर मैंने यह महसूस किया था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को लेकर कोई नाराजगी नहीं थी लेकिन उनकी उम्र और लंबे शासन के बाद लोगों में बदलाव की इच्छा बलवती थी और जनता बीजेपी को एक मौक़ा देना चाहती थी।
तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के लोकसभा चुनावों की अपनी लोकप्रियता की लहरों पर सवार थे और उन्होंने बीजेपी के लिए असम की जनता से एक मौक़ा माँगा था। इस चुनाव में कांग्रेस अपना घर संभाल नहीं पाई थी। उसके सबसे बड़े हरफनमौला नेता हिमंत विश्वसर्मा ने पाला बदल कर बीजेपी को ताक़त दे दी थी, क्योंकि हिमंत कांग्रेस के चुनाव बाद मुख्यमंत्री बनाए जाने की गारंटी मांग रहे थे, जो उन्हें नहीं मिली और वह बीजेपी में चले गए। इसके अलावा उनके ख़िलाफ़ शारदा घोटाले की जाँच भी उनके बीजेपी की शरण में जाने का एक बड़ा कारण थी।
हिमंत को असम ही नहीं पूर्वोत्तर का बड़ा सियासी खिलाड़ी माना जाता है। इसका फ़ायदा बीजेपी को मिला और बीजेपी ने असम गण परिषद, ताकतवर बोडो नेता हग्रामा के संगठन के साथ बेहद मजबूत गठबंधन करके अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी। जबकि कांग्रेस अकेले चुनाव मैदान में थी। यहां तक कि उसका बदरुद्दीन अजमल के एयूडीएफ के साथ भी गठजोड़ नहीं हो सका था। नतीजा कांग्रेस की हार और बीजेपी की जीत के रूप में सामने आया। हालाँकि विश्वसर्मा तब भी मुख्यमंत्री नहीं बन सके, क्योंकि बीजेपी ने अपने भरोसेमंद सर्वानंद सोनोवाल को चुनाव के दौरान ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया था।
इस बार चुनाव की परिस्थिति अलग है। पांच साल बीजेपी का राज असम की जनता देख चुकी है। हालांकि व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की छवि एक काम करने वाले शरीफ नेता की है और उनके ख़िलाफ़ किसी तरह की नाराजगी दिखाई नहीं देती है। लेकिन केंद्र सरकार का नागरिकता क़ानून (सीएए) असम में एक बड़ा मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर यहां लागू नागरिकता रजिस्टर से जिस तरह सामाजिक असंतोष और अव्यवस्था फैली और सीएए के विरोध में पूरा असम एकजुट हो गया, उससे भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है।
जहां कांग्रेस घोषणा कर रही है कि अगर उसकी सरकार बनी तो सीएए असम में लागू नहीं होगा, वहीं बीजेपी इस मुद्दे से बच रही है। जबकि पड़ोस के पश्चिम बंगाल में बीजेपी सीएए लागू करने की बात कर रही है।
इसके अलावा चाय बागानों के मजदूरों की दिहाड़ी में वृद्धि न होना और उनकी मूलभूत सुविधाओं का भी बड़ा मुद्दा है। पांच साल पहले बीजेपी ने चाय बागानों के मजदूरों से जो वादे किए थे, उनके पूरा न होने से उनमें असंतोष है। इसे थामना भाजपा की एक बड़ी चुनौती है। इस बार बीजेपी का गठबंधन पिछली बार जैसा मजबूत नहीं दिख रहा है। हग्रामा के नेतृत्व वाला बोडो गुट उससे बाहर है और कांग्रेस के महाजोट में शामिल है। साथ ही बदरुद्दीन अजमल के एयूडीएफ के साथ भी कांग्रेस का गठबंधन है। इससे पिछली बार की तरह भाजपा विरोधी वोटों का विभाजन नहीं होने से भी महाजोट को ताकत मिल रही है।
हालांकि अगप अभी भी बीजेपी के साथ है, लेकिन सीएए विरोधी आंदोलन के नेता जेल में बंद अखिल गोगोई का संगठन अजप के चुनाव मैदान में आने से मूल असमिया वोटों के विभाजन का ख़तरा बढ़ गया है जिससे अगप के सामने भी संकट है। कई सीटों पर गोगोई मुकाबले को त्रिकोणीय बना रहे हैं। इसके अलावा भाजपा के भीतर हेमंतो और सोनोवाल समर्थकों में भी खींचतान की ख़बरे हैं। क्योंकि हेमंतो इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं, जबकि सोनोवाल चुनाव में बीजेपी के नेता हैं। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा संकट तरुण गोगोई या हितेश्वर सैकिया जैसा कोई बड़ा नेता के न होने का है।
तरुण गोगोई की मृत्यु के बाद उनकी विरासत उनके बेटे गौरव गोगोई संभाल रहे हैं और संतोष मोहन देव की बेटी सुष्मिता देव भी पूरा जोर लगा रही हैं। लेकिन चुनाव से पहले सुष्मिता के असंतोष की ख़बरें भी आई थीं। इसके बावजूद इस बार बदली परिस्थितियों में बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस नेतृत्व वाले महाजोट के बीच कांटे के मुकाबले की ख़बरें असम से आ रही हैं। बीजेपी के चुनाव प्रचार का दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा के मज़बूत कंधों पर है, जबकि कांग्रेस के लिए राहुल गांधी और प्रियंका गांधी असम में धुआंधार प्रचार कर रहे हैं। असम के नतीजे कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति पर भी असर डालेंगे।
तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी
दक्षिण में तमिलनाडु में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही अपने-अपने गठबंधन में सहयोगी की भूमिका में हैं। इसलिए वहां के नतीजे इन दोनों दलों की राजनीति पर बहुत ज़्यादा असर नहीं डालेंगे लेकिन फिर भी उनकी सीटों की संख्या कांग्रेस भाजपा के केंद्रीय नेताओं की लोकप्रियता का पैमाना ज़रूर बनेगी।
जबकि केरल में बीजेपी महज अपनी उपस्थिति बढ़ाने की लड़ाई लड़ रही है और मुख्य मुक़ाबला सत्तारूढ़ वाम मोर्चा गठबंधन और विपक्षी कांग्रेस नेतृत्व वाले यूडीएफ के बीच है। केरल में हर बार सत्ता बदलने की परंपरा रही है, लेकिन इस बार मुख्यमंत्री पिनरई विजयन के नेतृत्व में वाम मोर्चा दोबारा सत्ता वापसी के लिए कड़ा संघर्ष कर रहा है। कांग्रेस के लिए केरल जीतना असम से भी ज़्यादा अहम इसलिए है क्योंकि पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अब केरल के वायनाड से सांसद हैं और वह लगातार केरल का दौरा करके पार्टी के लिए प्रचार कर रहे हैं। इसलिए असम और केरल के चुनाव नतीजे यह तय करेंगे कि कांग्रेस में राहुल गांधी दूसरी बार निर्बाध अध्यक्ष बनेंगे या फिर जी-23 के नाम से मशहूर असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं के गुट की चलेगी।
अगर कांग्रेस असम और केरल में जीत जाती है तो सफलता का पूरा श्रेय राहुल गांधी को जाएगा और उनकी ताजपोशी आसानी से हो जाएगी। अगर असम में पार्टी सत्ता नहीं पाती है लेकिन उसकी सीटें बढ़ जाती हैं और केरल जीत जाती है तो भी राहुल गांधी के लिए राहत होगी।
लेकिन अगर केरल में पार्टी फिसली तो राहुल गांधी के नेतृत्व को चुनौती मिलेगी और तब उनका आसानी से पार्टी अध्यक्ष बनना मुश्किल हो जाएगा।
अगर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तीसरी बार जीतती हैं और असम व केरल में कांग्रेस हारती है तो विपक्ष की कमान भी कांग्रेस के हाथ से खिसक कर ममता बनर्जी के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे के पास आ सकती है। लेकिन अगर असम और केरल में कांग्रेस जीतती है और पश्चिम बंगाल में ममता जीतती हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर ममता का महत्व तो बढ़ेगा लेकिन विपक्षी मोर्चे की कमान कांग्रेस के ही पास रहेगी।
अगर बीजेपी पश्चिम बंगाल में ज़्यादा कामयाब नहीं होती है और असम भी उसके हाथ से निकल जाता है तो निश्चित रूप से इसका असर केंद्र सरकार और बीजेपी की राजनीतिक सेहत पर पड़ेगा और विपक्ष के साथ-साथ आंदोलनकारी किसान भी भारी पड़ने लगेंगे। लेकिन अगर उलटा होता है तो बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी का दबदबा और बढ़ जाएगा।
पुडुचेरी में बीजेपी इस बार सरकार बनाने की लड़ाई लड़ रही है, जबकि वहाँ की राजनीति तमिलनाडु से प्रभावित होती है। अगर तमिलनाडु में डीएमके गठबंधन जीतता है तो पुडुचेरी में भी क़रीब क़रीब वैसे ही नतीजे हो सकते हैं और अगर एआईडीएमके गठबंधन तमिलनाडु में फिर सत्ता में आता है तो पुडुचेरी में बीजेपी का कमल खिल सकता है। कुल मिलाकर दो मई को पाँचों राज्यों के चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा कि देश की सियासत का ऊँट किस करवट बैठेगा।
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