दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दो विवादास्पद फ़ैसलों को उलटकर उनकी दोनों बड़ी ग़लतियां सुधार दी हैं। केजरीवाल की पहली ग़लती इलाज के मामले में भेदभाव वाला नियम बनाना था। इसके तहत वे दिल्ली सरकार के अस्पतालों में केवल दिल्ली के नागरिकों का ही इलाज़ करना चाहते थे और बाक़ी लोगों को उनकी किस्मत पर छोड़ दे रहे थे।
केजरीवाल का दूसरा ग़लत फ़ैसला उन लोगों के टेस्ट नहीं करने से जुड़ा था जिनमें कोरोना के लक्षण नहीं दिख रहे हैं। यानी वे कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए संदिग्ध लोगों को भाग्य के भरोसे छोड़कर दूसरे लोगों को भी जोखिम में डाल रहे थे। ये उनकी पहले घोषित फाइव टी वाली नीति के ही ख़िलाफ़ था जिसमें टेस्टिंग, ट्रेसिंग और ट्रीटमेंट पर ज़ोर दिया गया था।
दिल्ली में टीपीआर सबसे ज़्यादा
नियम ये कहता है कि जैसे ही टीपीआर दस फ़ीसदी से ज़्यादा हो जाए तो टेस्ट की संख्या बढ़ा दी जानी चाहिए, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा संक्रमित लोगों की पहचान करके उन्हें और लोगों के संपर्क मे आने से रोका जा सके। मगर केजरीवाल ऐसा करने के बजाय रेत में सिर दबा लेना चाहते थे कि मानो उससे तूफान रुक जाएगा।
लेकिन केजरीवाल सरकार कोरोना से निपटने के मामले में यही दो ग़लतियाँ नहीं कर रही है। वास्तव में अब वह हर मोर्चे पर विफल साबित हो रही है। शुरू में उसने बहुत आत्मविश्वास दिखाया था और फाइव टी आदि की बात करके ये भरोसा भी जताया था कि वह केरल के मॉडल पर काम करके इस संकट के मौके पर अच्छा काम करके दिखाएगी।
पूरी तरह फ़ेल रहा ऐप
मगर अब साफ़ होता जा रहा है कि केजरीवाल के बस बोल बहादुर हैं। उनकी असफलताओं के दो और उदाहरण आपको बताते हैं। एक तो उनकी सरकार ने बड़ी धूमधाम से एक ऐप जारी किया जिससे लोग ये पता कर सकते थे कि किस अस्पताल में कितने बिस्तर उपलब्ध हैं। मगर उनका ये ऐप पूरी तरह से फेल हो गया क्योंकि वह ग़लत सूचनाएं दे रहा था। लोग ऐप के आधार पर अस्पतालों के चक्कर लगाने लगे मगर उन्हें कहीं भी बिस्तर खाली नहीं मिले।
दूसरा उदाहरण, केजरीवाल का प्राइवेट अस्पतालों का ठीक ढंग से इस्तेमाल न कर पाना था। केजरीवाल का दावा है कि प्राइवेट अस्पताल कोरोना से लड़ाई में पूरी तरह सहयोग नहीं कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि कोरोना संक्रमण के मामले में प्राइवेट अस्पतालों ने पूरे देश में अँधेरगर्दी मचा रखी है और न केवल वे मरीज़ों का इलाज़ करने से भाग रहे हैं बल्कि मनमाने पैसे भी वसूल रहे हैं। उन्होंने इस संकट को लूट का मौक़ा मान लिया है।
लेकिन केजरीवाल उनसे काम लेने की ठोस रणनीति बनाने के बजाय उन्हें धमकाने के रास्ते पर चल पड़े। यहाँ तक कि गंगाराम हॉस्पिटल के ख़िलाफ़ तो वे एफआईआर करवाने की हद तक चले गए।
केजरीवाल को मालूम होना चाहिए कि प्राइवेट हॉस्पिटल संचालकों की एक मज़बूत लॉबी है और वे माफ़िया की तरह ऑपरेट करते हैं। ऐसे में दिल्ली जैसे राज्य का एक अधिकार विहीन मुख्यमंत्री उनका क्या बिगाड़ सकता था।
और हुआ भी यही। गंगाराम हॉस्पिटल उनके हिटलराना रवैये के ख़िलाफ़ तनकर खड़ा हो गया जिससे केजरीवाल की किरकिरी ही हुई। उन्होंने निजी अस्पतालों का सहयोग हासिल करने के बजाय अपने कर्मों से उन्हें अपने ख़िलाफ़ कर लिया।
संक्रमण के आँकड़ों में हेरफेर!
और तो और इस तरह की ख़बरें भी आईं कि केजरीवाल सरकार संक्रमण के आँकड़ों में हेरफेर कर रही है। यानी वह वास्तविक स्थिति को छिपाने की कोशिश कर रही है। इससे उसकी छवि और भी ख़राब हुई है। ज़्यादा से ज़्यादा टेस्ट से बचने की कोशिश के पीछे भी उनकी यही नीयत काम कर रही हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दरअसल, ऐसा लगता है कि केजरीवाल ने कोरोना से निपटने की कोई ठोस रणनीति बनाई ही नहीं थी। वे इस वैश्विक महामारी को मोहल्ला क्लीनिकों में ठीक होने वाली बीमारी समझ बैठे थे।
वे एक एनजीओ वाली मानसिकता से काम कर रहे थे जबकि कोरोना का प्रकोप कहीं बड़े पैमाने पर फैल रहा था। यहीं केजरीवाल मात खा गए। मात खाने के बाद उन्होंने अपनी रणनीति बदलने के बजाय अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिशें शुरू कर दीं।
दूसरी बार सत्ता सँभालने के बाद से केजरीवाल दो मोर्चों पर नाकाम साबित हो रहे हैं। एक तो दिल्ली दंगों के मामले में वे पीड़ितों की मदद उस तरह से नहीं कर पाए जिस तरह करनी चाहिए थी और न ही वे दिल्ली पुलिस के फर्ज़ीवाड़े के ख़िलाफ खड़े होने की हिम्मत जुटा पाए।
दूसरा मोर्चा कोरोना का था, जहाँ वे चाहते तो खुद को अच्छी तरह से साबित कर सकते थे क्योंकि वे एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री थे और ये राज्य देश की राजधानी भी है और स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में ज़्यादा संपन्न भी। मगर यहाँ भी वे फेल साबित हो रहे हैं।
ये दोनों नाकामियाँ उनकी राजनीति को भी नुकसान पहुँचा रही हैं। लोगों की उनसे उम्मीदें ख़त्म हो रही हैं और अब वे भी दूसरे मुख्यमंत्रियों की ही तरह झूठे और अवसरवादी नज़र आ रहे हैं। क्या वे अब इस नुकसान की भरपाई कर पाएंगे, ऐसा होना मुश्किल लगता है क्योंकि इसके लिए जिस साहस और संकल्प की ज़रूरत होती है, वह आज के केजरीवाल में तो नहीं दिख रहा।
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