दरअसल, अमित शाह और बीजेपी के नेताओं ने चुनाव-प्रचार का एक जुमला बना लिया है। जिस किसी प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने होते हैं अमित शाह और बीजेपी के नेता एक ऐसा आँकड़ा चुनावी सभाओं और मीडिया के माध्यम से उछालते हैं कि 'उनकी ऐतिहासिक जीत होने वाली है और दो-तिहाई बहुमत उनकी पार्टी को मिलेगा। महाराष्ट्र में वे 180 सीटों का दावा करते रहे, नतीजा 105 पर ही अटक गया। झारखंड में 50 पार, हरियाणा में 50 पार, दिल्ली में 48 सीटें जीतने का दावा करते रहे। उनकी छत्रछाया में परजीवी की तरह पलने वाला मीडिया इसी सुर में सुर मिलाता है और एक कृत्रिम हवा बनाने की कवायद भी करता है। अब सवाल यह है कि अमित शाह का बंगाल जीतने का दावा भी अन्य राज्यों की तरह फिसड्डी साबित होगा या उसमें वाकई कुछ दम है?
बीजेपी को बंगाल में 2014 के लोकसभा चुनाव में में 87 लाख वोट मिले थे और 2019 में यह बढ़कर 2.3 करोड़ हो गए। इसी बढ़े हुए वोट के आधार पर शाह ने आगामी विधानसभा चुनाव में दो-तिहाई बहुमत मिलने का दावा किया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली इस सफलता का बहुत से लोगों ने विश्लेषण किया था। एक बात की ओर अधिकाँश लोगों का इशारा था कि सीपीएम (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) के कार्यकर्ताओं और वोटर्स का आधार बड़े पैमाने पर भाजपा के खेमे में चला गया। यह उसी तरह से हुआ जैसा त्रिपुरा में कांग्रेस का कार्यकर्ता और संगठन टूटकर भाजपा में चला गया। बंगाल में सीपीएम के कार्यकर्ताओं को ज़मीनी स्तर पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रताड़ित किये जाने की जो ख़बरें आती रहती हैं यह उसी के परिणाम की ओर इशारा करता है।
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल में तीनों ही प्रमुख पार्टियाँ तकरीबन सेक्युलर विचारधारा के आधार पर ही राजनीति करती रही हैं। पहली बार बीजेपी ने धर्म के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण किया।
पार्टी के तमाम नेता पिछले कई सालों से बंगाल में इस ध्रुवीकरण की ज़मीन बनाने में जुटे हुए हैं। ख़ुद अमित शाह बार-बार ऐसी रैलियाँ निकालते रहे हैं जिसमें धार्मिक तनाव की स्थिति निर्माण हुई है। पिछले लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान बंगाल में जो हुआ वह किसी से छुपा नहीं रहा। ममता बनर्जी ने भी बड़े जोश के साथ बीजेपी की नीतियों को टक्कर दी। लेकिन सेक्युलर वोटों में कांग्रेस और सीपीएम कितना हिस्सा हासिल करती हैं वह भाजपा के सफल होने का समीकरण बनाएगा। 2014 से ही बंगाल पर भाजपा की नज़र है और 2019 के बाद कांग्रेस ने भी शायद यहाँ अपनी जड़ें फिर से जमाने के उद्देश्य से अधीर रंजन चौधरी को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष जैसी बड़ी ज़िम्मेदारी दी है। सीपीएम भी अपने वोट बैंक को वापस हासिल करने के लिए कुछ हलचल कर रही है। ये तीनों ही दल नागरिकता क़ानून, एनआरसी और एनपीआर का विरोध कर रहे हैं जबकि भाजपा इनकी मदद से हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण बड़े पैमाने पर कर रही है। शाह ने इन मुद्दों पर ममता बनर्जी को अपनी चुनावी सभा में घेरा भी और कहा कि जब विपक्ष में थी तो उन्होंने ख़ुद शरणार्थियों के नागरिकता का मुद्दा उठाया था।
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