गाँधी जी से जुड़े ऐसे बहुत से किस्से हैं जिनमें इस बात की झलक मिलती है कि वह छोटी से छोटी चीज़ की अहमियत को भी नज़रअंदाज़ नहीं करते थे, चाहे वह एक कागज़ या रूई का टुकड़ा या पेंसिल ही क्यों न हो। साथ ही एक-एक पैसे के हिसाब को लेकर भी बहुत सचेत रहते थे। उनके आश्रम में रहने वालों के खाने-पीने की सामग्री, कपड़े वगैरह सब सामान कहाँ से आ रहा है और कौन उसका हिसाब रख रहा है, गाँधी जी की इस पर कड़ी नज़र रहती थी।
गाँधी जी इस बात से वाक़िफ़ थे कि लोग उनकी अपील पर रूपया, पैसा, गहने, सामान वग़ैरह दान दे देते थे। गाँधी जी नहीं चाहते थे कि कोई ख़र्चों को लेकर उनपर या उनके सहयोगियों पर उंगली उठाये। इसलिए वह ख़ुद पर भी बहुत सख़्ती बरतते थे। गाँधी जी की नज़र में उनसे मिलने आने वाले लोगों के लिए छोटा-बड़ा या ग़रीब-अमीर का कोई भेद नहीं था और वह सबसे बराबर आत्मीयता से मिलते थे।
इस सब के बीच अक्सर बहुत दिलचस्प कहानियां बन जाती थीं जो आज प्रेरक प्रसंगों के रूप में हमारे सामने हैं।
गाँधी जी जब आग़ा ख़ान पैलेस से छूट कर आये तो एक दिन मनु गाँधी ने देखा उनकी चप्पलें टूटी हुई हैं। मनु बापू का बहुत ख़याल रखती थीं। उन्हें दुःख हुआ कि टूटी चप्पलों की वजह से बापू को तकलीफ़ होती होगी लेकिन उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। मनु ने बापू से पूछे बिना अपनी तरफ़ से उनकी चप्पलें मरम्मत के लिए पास ही एक मोची को दे दीं।
चप्पलें देकर मनु लौटी ही थीं कि देखा गाँधी जी बेचैनी से कुछ ढूंढ रहे हैं। पता चला बापू वही टूटी चप्पलों की जोड़ी तलाश रहे हैं। उन्होंने मनु से पूछा - मेरी चप्पलें कहाँ रखी हैं तूने? सकपकायी मनु ने कहा- बापूजी, वे तो मैंने मोची को मरम्मत के लिए दे दी हैं। बापू कुछ बोले नहीं लेकिन मनु के चेहरे पर प्रश्नवाचक निगाह गड़ा दी।
मनु बापू से बहुत डरती थीं। उन्होंने सहमते हुए कहा - बापूजी चप्पलों की मरम्मत की आठ आना मज़दूरी लगेगी। अब बापू बोले - मजदूरी के वो आठ आने कौन देगा? न तो तू एक धेला कमाती है न मैं।
मनु के चेहरे का रंग उड़ गया। गाँधी जी अगर किसी बात पर नाखुश हो जाते थे तो तुनक कर उपवास शुरू कर देते थे, यह मनु को अच्छी तरह मालूम था। यह नुस्खा गाँधी जी अंग्रेज़ सरकार से लेकर अपने सहयोगियों तक पर आज़माते थे। मनु को डर लगा कि गाँधी जी उनसे नाराज़ होकर उपवास पर न बैठ जाएँ।
घबराई मनु ने तय किया कि मोची से गाँधी जी की चप्पलें वापस ले आएं। लेकिन मोची ने बिना मज़दूरी चुकाए चप्पलें देने से इनकार कर दिया। उसका कहना था सुबह-सुबह की बोहनी ख़राब नहीं की जा सकती, मनु को आठ आने तो देने ही पड़ेंगे।
मनु को लगा बात उस बेचारे की भी सही थी। उन्होंने कुछ देर सोच कर थोड़े खुशामदी लहजे में उससे कहा- भाई ये चप्पलें महात्मा गाँधी की हैं, इन्हें मेहरबानी करके लौटा दो।
इतना सुनना था कि मोची के चेहरे का तो रंग ही बदल गया। ख़ुशी और गर्व के मिले-जुले भाव उसके चेहरे पर उभर आये। वह बोला- वाह, मैं कितना खुशनसीब हूँ कि मुझे महात्मा गाँधी की चप्पलों की मरम्मत का मौक़ा मिला है। ऐसा मौक़ा बार-बार कहाँ हाथ आता है? उसने मनु से कहा- मैं मुफ़्त में चप्पलों की मरम्मत कर दूंगा मगर वापस नहीं लौटाऊंगा।
मनु को मालूम था कि मुफ़्त में चप्पलों की मरम्मत को बापू कभी मंज़ूर नहीं करेंगे। गाँधी जी के उसूलों के हिसाब से यह एक तरह की रिश्वत होगी और इसके लिए उन्हें डांट खानी पड़ेगी। काफ़ी बहस और मान-मनुहार के बाद मनु ने सोचा कि इस मोची को गाँधी जी के पास ले चला जाय। मोची ख़ुशी-ख़ुशी चल दिया। वह गाँधी जी के दर्शन का मौक़ा चूकना नहीं चाहता था।
अब गाँधी जी की अदालत में यह दिलचस्प मामला पेश हुआ। मनु ने उनको सारी कहानी सुना दी। उनकी कुटिया में उस वक्त मिलने-जुलने वालों का ताँता लगा हुआ था। लेकिन गाँधी जी अपनी मुलाक़ातों के बीच इस मामले की सुनवाई भी करने लगे।
गाँधी जी मोची से बोले - तुमको तो कुल मिलाकर अपनी मज़दूरी ही चाहिए न। तुम ऐसा करो, मेरे गुरु बन जाओ और मुझे सिखाओ कि चप्पलों की मरम्मत कैसे की जाती है। गाँधी जी की बात सुनकर मोची के तो होश उड़ गए। बेचारे की समझ में ही नहीं आया क्या कहे, कैसे कहे।
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