कांग्रेस के दिग्गज नेता मोती लाल वोरा का सोमवार को निधन हो गया। दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। वोरा 2000 से 2018 तक लगातार 18 साल तक पार्टी के कोषाध्यक्ष रहे थे। वे दो बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे। वोरा ने रविवार 20 दिसंबर को अपनी ज़िंदगी के 93 साल पूरे किए थे। वोरा के बाद अहमद पटेल को कोषाध्यक्ष बनाया गया था। क़रीब महीना भर पहले 25 नवंबर को पटेल का भी निधन हो गया था।
लंबी उम्र और बड़ी ज़िंदगी पाई
मोती लाल वोरा ने लंबे जीवन के साथ ही बड़ी ज़िंदगी भी पाई। वो आधी सदी तक कांग्रेस से जुड़े रहे। क़रीब बीस साल तक पत्रकार रहने के बाद 1970 में वो कांग्रेस से जुड़े और ताउम्र कांग्रेसी ही रहे। अपने लंबे राजनीतिक जीवन में वो म्युनिसपिल कमेटी के सदस्य से लेकर विधायक, राज्य सरकार में मंत्री, दो बार मुख्यमंत्री रहे। बाद में सासंद बने, केंद्र में मंत्री रहे और राज्यपाल भी। पार्टी में भी छोटे पदों से लेकर कोषाध्यक्ष पद पर रहे।
कांग्रेस के संविधान के हिसाब से अध्यक्ष के बाद कोषाध्यक्ष ही दूसरे नंबर पर होता है। वोरा की एक तमन्ना उनके साथ ही चली गई। वो छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बन कर नारायण दत्त तिवारी की तरह दो राज्यों का मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड बनाना चाहते थे। दुर्भाग्य से उनकी ये हसरत पूरी नहीं हुई।
निष्ठावान कांग्रेसी रहे
पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा पर कभी सवाल नहीं उठे। उन्हें पार्टी में जो भी ज़िम्मेदारी मिली उसे उन्होंने पूरी लगन से निभाया। पार्टी के कोषाध्यक्ष रहते हुए वो हमेशा पार्टी कार्यालय 24, अकबर रोड पर सुबह 10 बजे पहुंचते। दोपहर का खाना खाने घर जाते और फिर थोड़ा आराम करके आ जाते। देर शाम तक बैठते। चेहरे पर बगैर शिकन लाए दिनभर पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ही मीडियाकर्मियों और अन्य मुलाक़ातियों से मिलते। पार्टी में सभी उनकी सादगी और नरम लहजे के क़ायल थे। यही वजह है कि उनके निधन पर राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, ‘वोरा जी सच्चे कांग्रेसी और ज़बरस्त इंसान थे। उनकी कमी बहुत खलेगी। उनके परिवार से साथ मेरी संवेदनाएं हैं।’
पत्रकारों से थे मधुर रिश्ते
मोती लाल वोरा खुद शुरुआती जीवन में पत्रकार रहे थे। लिहाज़ा दिल्ली में पत्रकारों के साथ उनके बेहद मधुर रिश्ते थे। पत्रकारों के लिए उनके कार्यालय और घर के दरवाज़े हमेशा खुले थे। 24, अकबर रोड पर कांग्रेस कोषाध्यक्ष के कार्यालय में पत्रकारों के आते ही वो सबसे पहले चाय, कॉफी और साथ में कुछ खाने के लिए लाने का आर्डर देते। पत्रकार उनके पास ख़बर की तलाश में जाते थे। ख़बर मिले न मिले चाय ज़रूर मिलती थी। कई बार वोरा जी चुटकी लेते हुए कहते थे, “आप जिस काम के लिए मेरे पास आए हैं उसमें मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता, लेकिन मेरी मेहमान नवाज़ी में कोई कमी रह जाए तो माफ़ कीजिएगा।”
मतलब की बात सुनते-कहते थे
वोरा जी थोड़ा ऊंचा सुनते थे। कान में सुनने की मशीन लगाते थे। पत्रकारों की ज़्यादातर बातों का जवाब हां, हूं में ही देते। कई बार कान में लगी मशीन निकाल कर रख देते थे। उस वक्त ये पता ही नहीं चलता था कि वो कौन सी बात सुन रहे हैं और कौन सी नहीं। पार्टी की किसी गतिविधि पर कोई राय नहीं देते थे। किसी नेता के बयान पर कोई टिप्पणी नहीं करते। न ऑन रिकॉर्ड और न ही ऑफ़ रिकॉर्ड। शायद यही वजह रही कि वो विवादों से हमेशा दूर रहे। उनसे जब कभी किसी ख़बर की पुष्टि करनी चाही, उनका यही जवाब होता, ‘मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता। मुझे तो यह आपसे ही पता चला है।’
जायसवाल के इस्तीफ़े का मामला
बात जून 2002 की है। श्रीप्रकाश जायसवाल उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे और मोती लाल वोरा प्रभारी थे। पार्टी में अंदरूनी कलह से तंग आकर श्रीप्रकाश जायसवाल ने प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। ये ख़बर आई तो कुछ पत्रकार इसकी पुष्टि के लिए वोरा जी के पास गए। उन्होंने ऐसे ज़ाहिर किया कि जैसे उन्हें इस बारे में कोई ख़बर ही न हो।
वो पत्रकारों से बोले, “मैं तो ये आप ही से सुन रहा मुझे तो इस बारे मं कुछ पता ही नहीं। उन्होंने हम सब पत्रकारों को सम्मान के साथ बैठाया। चाय पिलाई। मगर न तो ख़बर की पुष्टि की और न खंडन किया।”
हमारे सामने ही उन्होंने जायसवाल को फोन लगवाया। उनका मोबाइल बंद था। उन्होंने अपने पीए को लगभग हड़काते हुए कहा कि जैसे ही उनसे संपर्क हो मेरी बात करवाना। चाय पीकर जैसे ही हम उनके कमरे से बाहर निकले, उनके दरबान ने सारी पोल खोल दी। बोला जायसवाल साहब कल साहब से मिले थे। बंद लिफाफे में इस्तीफ़ा देकर गए थे। लिफ़ाफ़ा उनकी मेज़ पर रखा है। साहब ने किसी को बताने से मना किया था। हमने दोबारा उनके कमरे में जाकर पूछा कि जायसवाल का इस्तीफ़ा तो आपका मेज़ पर रखा है। आपने यह बात हमसे क्यों छिपाई।
रंगे हाथों पकड़े जाने पर उन्होंने बहाना बनाया कि उन्होंने लिफ़ाफ़ा खोल कर नहीं देखा। इसलिए उन्हें नहीं पता कि इसमें क्या लिखा है। पता होता तो आपको ज़रूर बताता। बाद में जायसवाल ने खुद इस बात की पुष्टि की थी कि उन्होंने वोरा जी को अपने हाथों से इस्तीफ़ा सौंपा था और उन्होंने उसे खोल कर पढ़ा भी था।
वोरा ने एक बार इस मामले पर सफाई देते हुए कहा था, ‘मेरी वफादारी पार्टी के प्रति है। तब पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि ये ख़बर बाहर आए। इसलिए मैंने किसी को कुछ नहीं बताया। लेकिन ख़बर तो आप लोगों तक पहुंच ही गई।’
मायावती करती थीं बहुत सम्मान
बीएसपी प्रमुख मायावती मोती लाल वोरा का बहुत सम्मान करती थीं। जब कभी वोरा जी के सामने उनकी बात आती थी तो वोरा जी पुरानी यादों में खो जाते थे। उन्होंने बताया था कि उन्होंने ही मायावती को पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। उस वक़्त गेस्ट हाउस कांड की वजह से मायावती बहुत डरी हुई थीं। इतनी ज़्यादा कि मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बावजूद वो अपने घर जाने से डर रही थीं तब वोरा जी ने राजभवन में उनके ठहरने का इंतज़ाम करवाया था। इस घटना का ज़िक्र वोरा जी ने कई बार किया। उन्हें इस बात का अफसोस ज़रूर रहा कि पार्टी ने मायावती के साथ उनके संबंधों का कभी इस्तेमाल नहीं किया।
मोती लाल वोरा ने समाजवादी पार्टी से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। 1968 में अविभाजित मध्य प्रदेश की दुर्ग म्युनिसिपल कमेटी के सदस्य बने। 1970 में उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा। 1972 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। इसके बाद 1977 और 1980 में भी विधायक चुने गए।
अर्जुन सिंह के मंत्रिमंडल में पहले उच्च शिक्षा विभाग में राज्य मंत्री रहे, 1983 में कैबिनेट मंत्री बनाए गए। 1981-84 के दौरान वे मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम के चेयरमैन भी रहे।
विवादों में रहे
वोरा 22 मार्च 2002 को एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक बनाए गए। नेशनल हेराल्ड न्यूज पेपर की संपत्ति विवाद में वोरा विवादों में भी रहे। फिलहाल इस केस को लेकर कोर्ट में सुनवाई चल रही है। कोई फ़ैसला नहीं हुआ है।
अहमद पटेल के बाद मोती लाल वोरा का जाना कांग्रेस में पुरानी पीढ़ी की विदाई के संकेत हैं। आमतौर पर 90 साल की उम्र में नेता राजनीति में सक्रिय नहीं रह पाते। लेकिन मोती लाल वोरा 2018 में कोषाध्यक्ष पद से हटने के बाद भी पार्टी में बतौर महासचिव सक्रिय थे। उन्हें अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।
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