न्यूज़ चैनलों की रेटिंग देने वाली यानी टीआरपी बताने वाली एजेंसी बार्क (ब्रॉडकास्टिंग ऑडिएंस रिसर्च कौंसिल) इस समय निशाने पर है। उस पर आरोप लग रहे हैं कि वह ठीक ढंग से काम नहीं कर रही, उसकी रेटिंग प्रणाली में खोट है और सबसे बुरा आरोप तो भ्रष्टाचार का है। कहा जा रहा है कि अगर ठीक से जाँच हुई तो बहुत सारी चीज़ें बाहर आ सकती हैं। मसलन, न्यूज़ चैनलों द्वारा उसके कर्मचारियों को महँगे उपहार देने से लेकर विदेशों में मौज़ कराकर टीआरपी को प्रभावित करने तक कई ऐसी विस्फोटक जानकारियाँ हैं जो बार्क से लोगों के विश्वास को ध्वस्त कर सकती हैं।
बार्क पर जो आरोप आज लगाए जा रहे हैं उनमें से कई उससे पहले वाली रेटिंग एजेंसी पर लगाए जाते थे। टीआरपी के संबंध में शुरुआती हाहाकार के समय पत्रकारों और मीडिया इंडस्ट्री का ग़ुस्सा टैम इंडिया नामक एजेंसी पर फूटता था। उस समय टैम इंडिया ही हर हफ़्ते रेटिंग के आँकड़े देती थी, जो कि ज़ाहिर है न्यूज़रूमों में तनाव का कारण बनते थे। पत्रकारों को इन आँकड़ों से जूझना पड़ता था। उन्हें हर हफ़्ते टीआरपी की विवादास्पद और संदिग्ध कसौटी पर खुद को साबित करना पड़ता था।
अगर पत्रकारों के पक्ष से देखें तो उन्होंने उस समय टीआरपी के कारणों और प्रयोजनों को समझा ही नहीं था। वे न बाज़ार को समझ पा रहे थे और न ही टीवी न्यूज़ के क़ारोबार में आ रहे बदलावों को ही। वह संपादकीय मामलों में बाज़ार के इतने बड़े पैमाने के हस्तक्षेप के भी आदी नहीं थे और पत्रकारिता में उसकी दखलंदाज़ी पर उन्हें बहुत कोफ़्त होती थी। वह पत्रकारिता को दूसरी तरह से देखते थे और मानते थे कि उनकी आज़ादी को बाज़ार के हवाले नहीं किया जाना चाहिए। सीधी सी बात है कि वह टीआरपी को स्वीकार करने के लिए ही तैयार नहीं थे, उसके दबाव को झेलने का अभ्यस्त होना तो दूर की बात है।
लेकिन जल्दी ही हर हफ़्ते आने वाली टीआरपी के सिलसिले ने उनके बहुत सारे भ्रम ध्वस्त कर दिए। इसके बाद तो उनके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा कि वे टीआरपी के महात्म्य को समझें और इसके हिसाब से कंटेंट का निर्माण करें। वे धीरे-धीरे ऐसा करने भी लगे, मगर उनका ग़ुस्सा अभी कम नहीं हुआ था और वे टीआरपी और टैम इंडिया दोनों पर दिन-रात बरसते रहते थे।
सबसे पहले तो वे टीआरपी को अविश्वसनीय कहकर नकारते थे। उनकी शिकायत जायज़ थी क्योंकि शुरुआत में टैम ने दो-ढाई हज़ार मीटर ही लगाए थे और वे भी महानगरों में। इनमें भी सबसे ज़्यादा दिल्ली-मुंबई में लगाए गए थे। ज़ाहिर है कि देश के आकार-प्रकार को देखते हुए मीटरों की संख्या तो कम थी ही, वे पूरे देश में फैले हुए भी नहीं थे। महानगरों की टीआरपी का रेटिंग प्रणाली में वजन भी ज़्यादा होता था। इसलिए उनका यह दावा सही था कि टीआरपी देश भर के दर्शकों की पसंद-नापसंद को सही ढंग से प्रतिबिंबित नहीं करती।
टैम इंडिया का कामकाज बिल्कुल भी पारदर्शी नहीं था, वह अपनी रेटिंग प्रणाली या एकत्र किए गए कच्चे (रॉ) आँकड़ों को साझा करने के लिए तैयार ही नहीं होती थी, जिससे उनकी विश्सनीयता की जाँच संभव नहीं थी।
इसीलिए उस पर ये आरोप भी लगाए जाते थे कि पता नहीं वह आँकड़े किस तरह देती है और कहीं उसमें खेल तो नहीं करती। कंपनी लेनदेन के खातों की जाँच के लिए भी तैयार नहीं थी, जिससे अगर कोई गड़बड़ी की जा रही हो तो उसे जाँचा-परखा जा सके।
जिस तरह का टीआरपी घोटाला अभी मुंबई में पकड़ा गया है, वैसे दो-तीन घोटाले उस समय भी सामने आ चुके थे, इसलिए टैम इस मामले में भी कठघरे में खड़ी थी। मगर वह इन घोटालों को रोकने के लिए कुछ कर नहीं रही थी या कर नहीं पा रही थी। बाद में टैम के प्रमुख ने कहा था कि भारत इस लिहाज़ से सबसे भ्रष्ट मार्केट है। यानी वह भ्रष्टाचार के सामने असहाय थी और उस समय टीआरपी के खिलाड़ी खेल करने में लगे हुए थे। इसके अलावा टैम इंडिया दो विदेशी कंपनियों ए.सी नीलसन और कंटार मीडिया रिसर्च से मिलकर बनी थी इसलिए भी उसके ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल बन गया था।
टैम इंडिया से शिकायत
बहरहाल, पत्रकारों की चिढ़ अपनी जगह थी, मगर ऐसा नहीं है कि टैम इंडिया को लेकर केवल उन्हीं को शिकायतें थीं। इंडस्ट्री में लगभग सभी लोग थे जो शिकायत कर रहे थे। यानी चैनलों के मालिक से लेकर विज्ञापनदाता और विज्ञापन एजेंसियाँ तक सबके सब नाख़ुश। टैम के आँकड़ों की संदिग्धता और इस कंपनी का अड़ियल रुख़ सबको परेशान कर रहा था। लगातार माँग किए जाने के बावजूद वह मीटरों की संख्या नहीं बढ़ा रही थी। नतीजतन, शिकायतों का पुलिंदा इस कदर मोटा होता चला गया कि आख़िरकार प्रसारकों, विज्ञापन एजेंसियों और विज्ञापनदाताओं ने मिलकर सन् 2010 में एक नई संस्था बना ली।
2015 से बार्क
बार्क नाम से बनी यह संस्था सन् 2015 से टीआरपी देने का काम कर रही है। उसने कुछ पुरानी शिकायतें दूर की हैं। मसलन, टैम के 8-10 हज़ार मीटरों के बजाय अब 44 हज़ार मीटर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। मीटर भी देश के सभी हिस्सों में लगाए गए हैं और शहरों तथा ग्रामीण इलाक़ों के अनुपात को भी ध्यान में रखा गया है। विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए चैनलों की वाटरमार्किंग भी उसने शुरू करवाई है।
सवाल उठता है कि बार्क के बनने और इतना सब करने से क्या हालात बदल गए?
यह सही है कि जितना ग़ुस्सा टैम को लेकर मीडिया इंडस्ट्री में पहले था वैसा बार्क के संबंध में नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि बार्क तो उनकी अपनी एजेंसी है, वही इसके कर्ता-धर्ता हैं। पिछले पाँच साल में कई टीआरपी घोटाले सामने आ चुके हैं और हर तरफ़ से सवाल भी उठे हैं, मगर बहुत हलचल नहीं मची।
अगर मुंबई में हुआ टीआरपी घोटाला सामने न आया होता और उसमें रिपब्लिक टीवी न फँसा होता तो अभी भी चुप्पी छाई रहती। बार्क का प्रबंधन अपनी खामियों को दबाए-छिपाए चलता रहता। वास्तव में वह बदलने के लिए तैयार ही नहीं था। वह अपने कामकाज को लेकर आत्मसंतुष्ट था और दावा करता रहता था कि सब ठीक है, लेकिन ऐसा नहीं था कि बाहर के लोग चुप थे। जो लोग उसकी खामोशी से नुक़सान उठा रहे थे, शिकायतें दर्ज़ करवा रहे थे। नियामक एजेंसियाँ भी उस पर निगरानी रखे हुए थी।
इसी क्रम में अप्रैल, 2020 में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने बार्क को सिफ़ारिशों की लंबी फ़ेहरिस्त भेजी थी। ये सिफ़ारिशें डेढ़ साल की कवायद का परिणाम थीं। दिसंबर 2018 से ही बार्क में सुधार के लिए राय-मशवरा का दौर शुरू हो चुका था। सभी संबंधित पक्षों से सुझाव माँगे गए थे और सन् 2019 में तीन बार खुले मंच में इन पर चर्चा की गई।
ट्राई ने बार्क को जो सिफ़ारिशें भेजीं, उनमें उसके प्रशासनिक ढाँचे से लेकर कई स्तरों तक बदलाव की बात कही गई थी। सबसे महत्वपूर्ण बदलाव बोर्ड में पचास फ़ीसदी स्वतंत्र सदस्यों को रखने का था। इसके अलावा मीटरों की संख्या भी पहले 60000 और फिर एक लाख करने का सुझाव दिया गया था। अभी भी माना जा रहा है कि देश की विशालता और विविधता को देखते हुए सैंपल साइज़ कम है, जो मीटरों की संख्या बढ़ाकर ही बढ़ाया जा सकता है। लेकिन बार्क ने ट्राई की इन सिफ़ारिशों को दरकिनार कर दिया। मीटरों की संख्या बढ़ाने का सुझाव तो ये कहकर खारिज़ कर दिया गया कि यह काम बहुत खर्चीला है।
बेहतर रेटिंग के लिए ख़र्च क्यों नहीं?
सवाल उठता है कि क्या इतनी बड़ी इंडस्ट्री एक बेहतर रेटिंग सिस्टम के लिए ख़र्च नहीं कर सकती? बिल्कुल कर सकती है, मगर उसकी नीयत हो तब न। मौजूदा लोग बार्क पर अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहते हैं इसलिए प्रबंधन और प्रशासन में सुधार के विरुद्ध खड़े हो गए हैं। यह समझना भी मुश्किल नहीं है कि दूसरी सिफ़ारिशों को भी तवज्जो क्यों नहीं दी गई होगी। बहरहाल, इस कवायद से यह बात तो साबित होती ही है कि बार्क से भी लोगों में असंतोष है।
जहाँ तक टीआरपी के आँकड़ों की रंगत और न्यूज़ चैनलों के चरित्र में बदलाव की बात है तो वह कहीं भी, किसी भी रूप में नहीं दिखता। मीटर बढ़ाने से कंटेंट के सुधरने के जितने भी तर्क दिए गए थे, सबके सब निराधार साबित हुए।
इससे यह बात फिर से सिद्ध होती है कि रेटिंग सिस्टम के बेहतर होने का कोई संबंध कंटेंट से नहीं है, क्योंकि वह तो बाज़ार के लिए है, विज्ञापनदाताओं के लिए है। कितनी भी निर्दोष रेटिंग प्रणाली क्यों न स्थापित कर दी जाए, कंटेंट उसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता। ज़ाहिर है कि पत्रकारों को इस भ्रम से अब मुक्ति पा लेनी चाहिए। हाँ, अगर रेटिंग के लिए तय किए गए मानकों में ही कुछ परिवर्तन किए जाएँ तो शायद उसके सकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं।
मसलन, अगर रेटिंग हमें चैनलों की लोकप्रियता के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता और विश्वसनीयता के बारे में भी बताए और विज्ञापनदाता उन्हें भी विज्ञापन देते समय ध्यान में रखें तो संभव है कि न्यूज़ चैनलों के बीच एक नई तरह की प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाए। इस तरह की स्पर्धा का कंटेंट पर सीधा और सकारात्मक असर पड़ना तय है। हालाँकि यह कितना संभव है, यह देखना होगा।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)
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