न्यूज़ चैनलों द्वारा टीआरपी हासिल करने के लिए घटिया हथकंडे आज़माने और कंटेंट के स्तर को गिराने के संबंध में अक्सर यह दलील दी जाती है कि बेचारे चैनल भी क्या करें, उन्हें भी तो खाना-कमाना है, गुज़ारा करना है। यानी वे यह काम मजबूरी में कर रहे हैं, वर्ना ऐसा क़तई नहीं करना चाहते। निश्चय ही यह एक बहुत ही वाहियात क़िस्म का तर्क है। उनसे पूछा जा सकता है कि आप चैनल चलाना ही क्यों चाहते हैं, क्या किसी डॉक्टर ने आपसे ऐसा कहा था या दर्शक आपके घर पहुँच गए थे कि आप चैनल लॉन्च कीजिए?
पूरी दुनिया को यह पता है, कम से कम मीडिया इंडस्ट्री के लोगों को तो भली-भाँति पता है कि न्यूज़ चैनलों के क़ारोबार में घाटा ही घाटा है तो आप इस धंधे में आने से किसी की राय ले लेते। आपको सचाई पता चल जाती तो इस दलदल में पैर फँसाने के बजाय कुछ और कर लेते? एक तो आप जानते-बूझते घाटे वाला क़ारोबार चुनेंगे, फिर उसकी सफलता के लिए तमाम तरह के दंद-फंद करेंगे और इसके बाद तर्क देंगे कि क्या करें, गड़बड़ियाँ करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। आप अपने क़ारोबार के लिए देश, समाज की मानसिक सेहत को दाँव पर नहीं लगा सकते। मीडिया लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है और यह काम बड़े दायित्व का है, आप कोई बहाना बनाकर उससे बच नहीं सकते।
लेकिन न्यूज़ चैनलों के क़ारोबार का मूल संकट केवल इतना नहीं है कि लोग बिना सोचे-समझे इस धंधे में कूद रहे हैं जिससे गंदगी बढ़ती जा रही है। यह तो एक कारण हो सकता है मगर असली समस्या कहाँ है, हमें यह भी देखना होगा। हमें जानना होगा कि न्यूज़ चैनलों का क़ारोबार इतना जोखिम और घाटे वाला क्यों है और क्या है इसकी समस्या कि चंद चैनलों को छोड़कर सबके सब घाटे में हैं। कहीं इस उद्योग की बनावट में ही तो खोट नहीं है?
भारतीय टीवी इंडस्ट्री में न्यूज़ चैनलों का हिस्सा बहुत छोटा, लगभग आठ से दस फ़ीसदी है। यानी क़रीब नब्बे फ़ीसदी दर्शक न्यूज़ के नहीं, ग़ैर न्यूज़ चैनलों के हैं, जिनमें मनोरंजन से लेकर खेल और धार्मिक तक सब चैनल आ जाते हैं। फिक्की की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2019 में टीवी इंडस्ट्री का कुल विज्ञापन राजस्व 28000 करोड़ था, जिसमें से न्यूज़ चैनलों का हिस्सा केवल 3640 करोड़ रुपए का रहा, जो कि लगभग 13 फ़ीसदी है। कुल टीवी चैनलों की संख्या 900 के आसपास है, जिनमें से क़रीब 400 न्यूज़ चैनल हैं।
ज़ाहिर है कि 3640 करोड़ रुपए में 400 चैनल हिस्सेदारी चाहते हैं यानी केक बहुत छोटा है। हालाँकि पिछले साल तक इस राजस्व में सालाना 21 फ़ीसदी की गति से वृद्धि हो रही थी, जो कि अच्छी ख़ासी है, मगर क्या करें यहाँ खाना है कम और खाने वाले बहुत। तिस पर चैनलों पर होने वाला ख़र्च बहुत ज़्यादा है। राष्ट्रीय चैनलों को ब्रेक इवेन तक पहुँचने में ही तीन से पाँच साल तक लग जाते हैं और उस पर भी कोई गारंटी नहीं है कि यह लक्ष्य हासिल हो ही जाए। इतने सालों तक घाटा झेलने के बाद उसकी भरपाई करना और भी मुश्किल होता है। यानी वे चैनल हमेशा के लिए बीमार पड़ जाते हैं, कभी उबर ही नहीं पाते। उन्हें बिकना पड़ जाता है जैसे मुकेश अंबानी के रिलायंस ग्रुप के हाथों राघव बहल का टीवी-18 बिका, ईनाडु समूह के चैनल बिके। कई चैनलों में कार्पोरेट की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है। छोटे-मोटे चैनलों की तो बात ही छोड़ दीजिए। वे या तो बंद हो रहे हैं या बिक रहे हैं अथवा घिसट रहे हैं।
जहाँ तक विज्ञापनों का मामला है तो उसका फ़ैसला होता है टीआरपी से और टीआरपी का संबंध कई चीज़ों से होता है। मसलन, चैनल का कंटेंट और कलेवर तो मायने रखता ही है, मगर यदि वह लोगों तक पहुँचे ही न तो सब बेकार है।
यानी हर जगह आसानी से उपलब्ध होगा तभी लोग देख पाएँगे और उसी से टीआरपी मिलेगी। अब यह चैनल के बेहतर डिस्ट्रीब्यूशन का मुद्दा है और चैनलों के क़ारोबार में यही सबसे ज़्यादा ख़र्चीला काम भी है, कंटेंट बनाने से भी ज़्यादा खर्चीला। चैनलों के कुल बजट का यह चालीस से पचास फ़ीसदी तक कुछ भी हो सकता है।
चैनल चलाने पर ख़र्च
एक राष्ट्रीय चैनल के डिस्ट्रीब्यूशन का सालाना बजट पचास से अस्सी करोड़ के बीच होता है। इसमें केबल नेटवर्क और डीटीएच दोनों का ख़र्च शामिल है। केबल नेटवर्क का डिजिटलाइज़ेशन जब शुरू हो रहा था तो माना गया था कि इससे चैनलों के डिस्ट्रीब्यूशन का ख़र्च बचेगा। थोड़ा बहुत बचा भी मगर इसी बीच डीटीएच का ख़र्च भी आ गया, जिसने फिर डिस्ट्रीब्यूशन के बजट को बढ़ा दिया। इसके अलावा चैनलों की भीड़ में दर्शक आपके चैनल को क्यों देखे इसके लिए मार्केटिंग-ब्रांडिंग का ख़र्च भी मोटा होता है।
बहरहाल, कहने का मतलब यह है कि चैनलों पर टीआरपी बढ़ाने का ज़बर्दस्त दबाव है क्योंकि उसी से विज्ञापन मिलेंगे और इसके लिए उन्हें बहुत बड़ी रक़म डिस्ट्रीब्यूशन पर ख़र्च करनी पड़ेगी। मगर ऐसा करके भी गारंटी नहीं होती कि आपकी टीआरपी इतनी हो जाए कि उसके आधार पर आपको इतना विज्ञापन राजस्व मिल जाए कि आप चैनल के ख़र्चे निकाल सकें, क्योंकि कतार में पहले से जमे जमाए चैनल भी हैं। चैनलों की होड़ में विज्ञापन की दरें भी नीचे आ जाती हैं।
बेहतर दरें हासिल करने के लिए प्रतिद्वंद्वी चैनलों से आगे निकलना ज़रूरी हो जाता है मगर उन्हें पछाड़ना बहुत टेढ़ी खीर होती है। इसके लिए कंटेंट को बहुत आकर्षक बनाना पड़ता है, जिसमें ख़र्च बढ़ता जाता है।
फिर कंटेंट में कई तरह के मसाले मिलाने वाले हथकंडे भी आज़माने पड़ते हैं। इसके बावजूद विज्ञापनदाताओं की पहली पसंद ऊपर के तीन-चार चैनल होते हैं, इसके बाद के चैनलों पर अगर वे कृपा करते भी हैं तो विज्ञापनों की दर इतनी कम करके कि उससे उनका गुज़ारा नहीं हो सकता।
बिज़नेस मॉडल विज्ञापनों पर निर्भर
यही भारतीय न्यूज़ चैनलों के बिज़नेस मॉडल की सबसे बड़ी खामी है। वह पूरी तरह से विज्ञापनों पर निर्भर है। विज्ञापनदाताओं पर निर्भरता बहुत तरह के दबाव और प्रभाव लाता है जिससे उनकी सामग्री स्वतंत्र नहीं रह पाती। पश्चिमी देशों, ख़ास तौर पर अमेरिका में न्यूज़ चैनल सब्सक्रिप्शन यानी सदस्यता शुल्क के ज़रिए भी ठीक-ठाक कमाई कर लेते हैं, इससे उनकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम हो जाती है, यह और बात है कि मुनाफ़ाखोरी का लालच उन्हें भी पतन की राह पर धकेलता रहता है। लेकिन अगर लोभ पर नियंत्रण पाया जाए तो कम समझौते करने पड़ेंगे।
भारत में ही देखा जाए तो मनोरंजन चैनल अपनी लोकप्रियता की वज़ह से सदस्यता शुल्क के ज़रिए अच्छी कमाई करते हैं और वे पूरी तरह से विज्ञापनों पर निर्भर नहीं हैं। भारत में न्यूज़ चैनलों को सदस्यता के ज़रिए किसी भी तरह की आय नहीं होती है। दर्शक ख़बरों पर ख़र्च करने के लिए तैयार नहीं हैं, वह उन्हें मुफ़्त में चाहिए। अधिकांश चैनल फ्री टू एअर होते हैं, जिसकी वज़ह से वे पूरी तरह से विज्ञापनदाताओं पर निर्भर हो जाते हैं और उनके निर्देशों पर चलने को बाध्य हो जाते हैं।
केबल टीवी के डिस्ट्रीब्यूशन के डिजिटलीकरण की शुरुआत में ऐसा लग रहा था कि ट्राई यानी भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण न्यूज़ चैनलों को भी सदस्यता शुल्क दिलवाने का नियम बनाएगा। अगर वह ऐसा कर पाता, भले ही वह रक़म मनोरंजन चैनलों की तुलना में बहुत कम होती तो, न्यूज़ चैनलों के लिए भी कमाई का एक नया रास्ता खुल जाता। मगर डिस्ट्रीब्यूटर्स के दबाव के सामने वह कुछ नहीं कर सका।
पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग मॉडल
एक दूसरा मॉडल पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग यानी लोक प्रसारक का है। लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे प्रसारण के लिए सरकार ही सक्षम हो सकती है या वह चाहे तभी एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष लोक प्रसारक काम कर सकता है। भारत में प्रसार भारती अपने आपको लोक प्रसारक बताती है, मगर पूरी दुनिया जानती है कि वह सरकारी प्रचार का एक तंत्र भर है। प्रसार भारती का गठन करते समय उम्मीदें लगाई गई थीं कि वह भी बीबीसी की तरह एक स्वतंत्र प्रसारक का रूप धरेगा, मगर वह कब की जमींदोज़ हो चुकी है। इसमें अभी तक की सभी सरकारों का योगदान रहा है, मगर मोदी सरकार ने तो जैसे उसकी ताबूत में आख़िरी कील ठोंक दी है।
वैसे, दूरदर्शन भी बहुत पहले टीआरपी के दुष्चक्र में फँस चुका था। दर्शकों की पसंद जानने के लिए उसने डार्ट (दूरदर्शन ऑडिएंस रिसर्च टीम) का गठन किया था, मगर उसकी रिपोर्ट धीरे-धीरे उसकी प्रोग्रामिंग तय करने लगी। इसके बाद निजी चैनलों से मुक़ाबले में उसके कंटेंट का बंटाढार हो गया। उसका चार्टर एक भूली-बिसरी बात हो चुकी है।
आर्थिक उदारवाद की आँधी ने हालाँकि पूरी दुनिया में ही पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग को ज़बर्दस्त धक्का पहुँचाया है और अब गिनी-चुनी संस्थाएँ रह गई हैं, मगर एक यह मॉडल है जिसे अगर सही ढंग से लागू किया जाए तो एक हद तक टीवी कंटेंट में अपेक्षित बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। बस इसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त करना होगा, जो कि बहुत मुश्किल काम नहीं है, मगर कोई भी सरकार जोखिम उठाने या इसका इस्तेमाल करने का लोभ छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं है।
उपरोक्त बिजनेस मॉडल के अलावा कुछ और मॉडल भी हैं, जिनमें से एक सरकारी विज्ञापनों और सहयोग की भूमिका प्रमुख है। क्षेत्रीय चैनलों में यह ख़ूब चल रहा है। राज्य सरकारें इन चैनलों को विभिन्न तरीक़ों से मोटी राशि दे रही हैं जिससे कुछ अच्छी तरह से तो कुछ बस चल पाने में सक्षम हो पा रहे हैं। लेकिन इस मॉडल में चैनल सत्तारूढ़ दल के ग़ुलाम बन जाते हैं। वे राज्य सरकारों की काली करतूतों, नाकामियों और बदतमीज़ियों के ख़िलाफ़ खड़े ही नहीं हो सकते, बल्कि उनकी प्रोपेगंडा मशीनरी की तरह काम करते हैं। जनता के लिए ये चैनल और भी घातक हैं।
न्यूज़ चैनल शुरू करने वाली अधिकांश कंपनियाँ या व्यापारी इन दोषपूर्ण बिज़नेस मॉडल को समझे बगैर मैदान में उतर पड़ते हैं। नतीजा यह होता है कि कुछ समय बाद वे टीआरपी के दुष्चक्र में फँस जाते हैं या फिर भ्रष्ट रास्तों पर चल पड़ते हैं। वे पेड न्यूज़ का क़ारोबार करने लगते हैं, ब्लैकमेलिंग के रास्ते पर चल पड़ते हैं या फिर किसी नेता या राजनीतिक दल का प्रवक्ता बन जाते हैं। वैसे, बहुत सारे कारोबारी तो पहले से ही भ्रष्ट तरीक़ों से चैनल चलाने और उसके फ़ायदे उठाने के लिए ही आते हैं, इसलिए वे बिज़नेस मॉडल की चिंता ही नहीं करते। बल्कि उनका मॉडल ही वही होता है और उसमें अच्छी पत्रकारिता की गुंज़ाइश होती ही नहीं है।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)
अपनी राय बतायें