क्या उत्तर प्रदेश के चक्कर में कांग्रेस महाराष्ट्र को भूल गई है? यह सवाल राजनीति के गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। लोकसभा सीटों के हिसाब से उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र दूसरे नंबर का प्रदेश है। यहाँ लोकसभा की 48 सीटें हैं और कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) गठबंधन को पिछली बार क्रमशः 2 और 4 सीटें मिली थीं।
प्रदेश में किसानों की आत्महत्या और सूखे से परेशान लोगों में राज्य की फडणवीस सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है, ऐसे में यह उम्मीद जताई जा रही है कि कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के बीच मुकाबला 50 : 50 के आसपास होगा।
पिछले पंद्रह दिनों से जिस तरह से कांग्रेस ख़ामोश दिखाई दे रही है, उससे लगता है कि राहुल गाँधी ‘फ़्रंट फ़ुट’ पर आकर खेलने की बात कह रहे थे, पर कांग्रेस तो अभी पैड बाँधने में ही व्यस्त है, बैटिंग कब करेगी?
छोटे दलों को कौन साधेगा?
महाराष्ट्र विधानसभा में नेता विपक्ष राधाकृष्ण विखे पाटिल ने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है। इससे पहले 13 मार्च को उनके बेटे सुजय विखे पाटिल भी बीजेपी में शामिल हो गए थे। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण इस बार अपनी सीट अपनी पत्नी को देने में उलझे पड़े हैं जबकि मुंबई प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरुपम अपनी सीट बदलने की कवायद कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश के छोटे दलों को कौन साधेगा, यह बड़ा सवाल है? गठबंधन में कांग्रेस की सहयोगी एनसीपी की हालत भी ज़्यादा बेहतर नहीं दिख रही है। शरद पवार अपने पोते पार्थ पवार को टिकट देने और अपना नाम वापस लेने के फेर से अब तक निकलते दिखाई नहीं दे रहे हैं। यही नहीं कांग्रेस ने शरद पवार की जिस माढा सीट से अपना नाम वापस लिया है वहाँ के कार्यकर्ताओं के बग़ावती सुर पवार को परेशान कर रहे हैं।
यह भी ख़बरें सामने आ रहीं हैं कि माढा सीट से एनसीपी के सांसद विजय सिंह मोहिते पाटिल और उनके बेटे रणजीत मोहिते पाटिल बीजेपी में जाने वाले हैं। ऐसे में छोटे दलों को कांग्रेस-एनसीपी के क़रीब लाने की जो पहल चल रही थी वह थम सी गई है।
कांग्रेस व एनसीपी दोनों ही बार-बार इस बात को दोहराती हैं कि वे मोदी सरकार विरोधी वोटों के बंटवारे को टालने का हर संभव प्रयास करेंगी, लेकिन ज़मीन पर ऐसा होता कम ही नज़र आ रहा है।
प्रकाश आंबेडकर और असदउद्दीन ओवैसी की वंचित आघाडी से गठबंधन टूटने के बाद अब दलित या मुसलिम मतों को कैसे अपने पाले में किया जाए इसके प्रयास भी कांग्रेस- एनसीपी की तरफ़ से होते नज़र नहीं आ रहे हैं।
प्रकाश आंबेडकर पर दबाव बनाने के लिए दलितों के सामाजिक संगठनों को एक मंच पर लाकर गणराज्य आघाडी का फ़ॉर्मूला तैयार किया गया लेकिन यह काम कर रहा है, ऐसा नहीं लगता। सबसे बड़ा जो चुनावी मुद्दा है - किसानों की बदहाली का, उसे लेकर भी कांग्रेस और एनसीपी गंभीर नज़र नहीं आ रही हैं।
सीट छोड़ने को तैयार नहीं एनसीपी-कांग्रेस
वामपंथी दलों समर्थित किसान सभा, नासिक और महाराष्ट्र के कई इलाक़ों में किसानों के बीच काम करती है। किसान सभा के नेतृत्व में नासिक से पैदल मार्च करते हुए 50 हज़ार किसान मुंबई पहुँचे थे। फ़रवरी में फिर उन्होंने मार्च निकाला तो रास्ते में ही सरकार ने उनकी माँगें मानने की घोषणा कर मार्च रुकवा दिया। इस किसान मार्च का असर ना सिर्फ़ महाराष्ट्र अपितु देश भर के किसान आंदोलनों पर पड़ा लेकिन इस संगठन के लिए एक सीट भी कांग्रेस-एनसीपी ने नहीं छोड़ी।
नासिक के पास दिंडोरी लोकसभा सीट से सीपीएम ने जेपी गावित को मैदान में उतारा है और कांग्रेस-एनसीपी से अपील की है कि वे उनका इस सीट पर समर्थन करे। जेपी गावित इस लोकसभा में आने वाली कलवन विधानसभा से विधायक हैं। यह सीट एनसीपी के खाते में है और पार्टी उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। जबकि पूरे प्रदेश में दोनों पार्टियों के नेता किसानों की कर्जमाफ़ी और आत्महत्याओं को लेकर लंबे-लंबे भाषण देते घूम रहे हैं।
कांग्रेस के सारे निर्णय केंद्रीय नेतृत्व के अधीन होते हैं ऐसे में राहुल गाँधी को इस पर ध्यान देना चाहिए। राहुल महाराष्ट्र की राजनीति पर थोड़ा ध्यान देकर उत्तर प्रदेश से ज्यादा फल हासिल कर सकेंगे।
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