इन दिनों जोर-शोर से ‘न्यू इंडिया’ के बारे में बताया जा रहा है और उस पर बहसों का दौर भी शुरू हो गया है। लेकिन क्या इस ‘न्यू इंडिया’ में उन स्वरों व विचारों के लिए भी कोई जगह होगी जिन्हें पुराने भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द या आपसी भाईचारे के सन्देश के रूप में जाना जाता था? पानसरे, दाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनके जैसा सोचने वाले अन्य लोगों को क्या नए भारत में कोई स्थान मिलेगा, यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।