शिवसेना पर एक ही परिवार का नियंत्रण होने और उसी परिवार के इर्द-गिर्द पूरी पार्टी की रणनीति और राजनीति घूमते रहने की बात तो बाला साहेब ठाकरे के समय से ही चल रही है।
पर आदित्य ठाकरे के राज्य सरकार में मंत्री बनने से यह सवाल उठने लगा है कि क्या इस पार्टी में पुराने, दिग्गज और वरिष्ठ नेता एकदम अप्रासंगिक हो चुके हैं?
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क्या इस पार्टी के तपे-तपाए और बाला साहेब के समय से पार्टी के लिए काम कर रहे नेता यह मान चुके हैं कि पार्टी को उनकी ज़रूरत नहीं रही। या यह माना जाए कि पार्टी के पुराने नेताओं ने ‘नए पेशवा’ के सामने सिर झुका लिया है और अपने को नेपथ्य में ले जाने का फ़ैसला कर लिया है।
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि कभी भी किसी तरह का अनुभव नहीं रखने वाले उद्धव तो मुख्यमंत्री बने ही हैं, उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में उस बेटे को भी शामिल कर लिया है, जिनके सक्रिय राजनीति में आए बहुत दिन नहीं हुए हैं।
कौन हैं आदित्य ठाकरे?
आदित्य ठाकरे इसके पहले सुर्खियों में तब आए जब उन्होंने रोहिंटन मिस्त्री की किताब ‘सच अ लॉन्ग जर्नी’ का ज़बरदस्त विरोध किया था। उन्होंने शिवसेना के छात्र विंग की कमान संभाली थी और अपने पीछे पूरे संगठन को इस तरह खड़ा लिया और इतना तीखा आन्दोलन खड़ा कर दिया कि मुंबई विश्वविद्यालय ने उस किताब को सिलेबस से बाहर कर दिया।यह 2010 की बात है, उस समय आदित्य सिर्फ 20 साल के थे और सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ ही रहे थे।
उस किताब में एक पारसी क्लर्क की प्रेम कहानी है, लेकिन 1970 की पृष्ठभूमि वाले कथानक में उस समय की राजनीति का भी चित्रण है। आदित्य ठाकरे का कहना था कि उस किताब में बाला साहेब ठाकरे को ग़लत रूप से दिखाया गया है और इस वजह से इस किताब को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
साहित्य जगत उस किताब की काफी तारीफ हुई थी और उसे बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था।
शिवाजी पर राजनीति
इसी साल यानी 2010 में ही सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिकी लेखक जेम्स लेन की किताब ‘शिवाजी : द हिन्दू किंग इन मुसलिम इंडिया’ पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया था तो मुंबई में खूब बवाल मचा था। उसकी भी अगुआई आदित्य ठाकरे ने की ही की थी। उसके ठीक पहले मुंबई हाई कोर्ट के डी. के. जैन और एच. एल. दत्तू के खंडपीठ ने उस किताब पर पहले से ही लगे प्रतिबंध को हटा दिया था।शिवसेना का कहना था कि उस किताब में शिवाजी को ग़लत तरीके से पेश किया गया था, इसलिए उस पर लगा प्रतिबंध बिल्कुल ठीक था।
इन दो किताबों, ‘सच अ लॉन्ग जर्नी’ और ‘शिवाजी : द हिन्दू किंग इन मुसलिम इंडिया’ को केंद्र में रख कर आन्दोलन चलाने वाले आदित्य ठाकरे पूरे महाराष्ट्र के दक्षिणपंथियों के सुपर स्टार बन गए। उन्होंंने छात्र राजनीति में धमाकेदार शुरुआत की थी।
परिपक्व राजनेता बनने की कोशिश?
इस आन्दोलन की पीठ पर सवार होकर आदित्य ठाकरे छात्र राजनीति में आए और उसके बाद वे मुख्यधारा की राजनीति की ओर बढ़े। लेकिन कनाडा में रहने वाले भारतीय मूल के लेखक रोहिंटन मिस्त्री की किताब के ख़िलाफ़ आन्दोलन में जीत मिलने के बाद आदित्य ने परिपक्वता दिखाई।उन्होंने शिव सेना के इस छात्र विंग पर ध्यान दिया। वे 2018 में यकायक बहुत ही तेजी से छात्र राजनीति के शिखर पर पहुँच गए जब मुंबई विश्वविद्यालय के सीनेट के चुनाव में युवा सेना ने सभी 10 सीटें जीत लीं। उसके सामने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद थी, जिसे एक भी सीट नहीं मिली।
शिवसेना का बदलता चेहरा
लेकिन उसके बाद आदित्य ठाकरने अपनी छवि बदली, वे अब पहले की तरह भावनात्मक मुद्दों पर आन्दोलन खड़ा करने के बदले राज्य के विकास की बात करने लगे हैं। वे शिवसेना की राजनीति के बदलते हुए चेहरे का प्रतीक बन कर उभरे हैं।मराठी भाषा को लेकर आन्दोलन चलाने वाले बाला साहेब के पौत्र आदित्य फ़ेसबुक पर अपनी छवि आधुनिक, अंग्रेजी बोलने वाले, तेज़-तर्रार युवक की पेश करते हैं। वे खुद को युवा, कवि और फोटोग्राफ़ी का शौकीन बताते हैं।
वे अपने ट्विटर हैंडल पर भी अपनी ऐसी ही मेकओवर तसवीर पेश करते हैं।
आदित्य ठाकरे ख़ुद को पर्यावरण हितैषी साबित करने की कोशिश करते हैं और आरे जंगल को काटने के ख़िलाफ़ आन्दोलन इस आधार पर खड़ा करते हैं कि इससे पर्यावरण को नुकस़ान होगा।
यह भी बेहद अहम है कि अपने चुनाव प्रचार में आदित्य ने उग्र हिन्दूत्व की बात नहीं की। चुनाव जीतने के जब उप मुख्यमंत्री पद के लिए उनका नाम उछाला गया, वे खुद चुप रहे, नेपथ्य में चले गए।
उन्होंने एक बार भी सरकार में शामिल होने की बात नहीं की। इससे यह लगता है कि वे एक परिपक्व नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं।
रोहिंटन मिस्त्री की किताब को विश्वविद्यालय के सिलेबस से बाहर निकलवाने वाले आदित्य अब चुप हैं, धीर गंभीर हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि उग्र हिन्दुत्व की बात करने वाली, पाकिस्तान से होने वाले मैच के पहले पिच खोदने वाली, पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध करने वाली शिवसेना अब अपने आधार का विस्तार कर रही है।
अंग्रेजी भाषा का विरोध करने वाली शिवसेना अब अपनी नीति बदल रही है। तो क्या आदित्य ठाकरे इस बदलती राजनीति के प्रतीक बन कर उभर रहे हैं? या यह माना जाए कि शिवसेना अभी भी वंशवाद से बाहर नहीं निकल रही है, अभी भी वह ठाकरे परिवार के इर्द-गिर्द भी घूम रही है?
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