भीमा कोरेगाँव हाल के वर्षों में काफ़ी विवादों में रहा है। पहले हिंसा के लिए। और फिर सामाजिक कार्यकर्ता के पी. वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनो गोन्जाल्विस के ख़िलाफ़ कार्रवाई और ‘अर्बन नक्सल’ की कहानी के लिए। ‘अर्बन नक्सल’ तक कहानी भी पहुँची भीमा कोरेगाँव में 2018 में हिंसा के बाद ही।
दरअसल, मामला यह है कि हर साल जब 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगाँव में जमा होते हैं, वे वहाँ बनाए गए 'विजय स्तम्भ' के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि 1818 में भीमा कोरेगाँव युद्ध में शामिल ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़ी टुकड़ी में ज़्यादातर महार समुदाय के लोग थे, जिन्हें अछूत माना जाता था। यह ‘विजय स्तम्भ’ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस युद्ध में शामिल होने वाले लोगों की याद में बनाया था जिसमें कंपनी के सैनिक मारे गए थे।
1818 की इस लड़ाई को कोरेगाँव की लड़ाई भी कहा जाता है। कई रिपोर्टों में कहा गया है कि पेशवा बाजीराव द्वितीय की अगुवाई में 28 हज़ार मराठा पुणे पर हमला करने की योजना बना रहे थे। लेकिन रास्ते में उनका सामना ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की क़रीब 800 सैनिकों की एक टुकड़ी से हो गई। यह टुकड़ी पुणे में ब्रिटिश सैनिकों की ताक़त बढ़ाने के लिए जा रही थी। वह जगह थी कोरेगाँव। इस बीच पेशवा ने कंपनी के सैनिक पर हमला करने के लिए अपने 2 हज़ार सैनिक भेजे।
कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की इस टुकड़ी ने क़रीब 12 घंटे तक मोर्चा संभाले रखा। बाद में जब मराठों को पता चला कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बड़ी टुकड़ी भेज रही है तब मराठों ने अपने सैनिक वापस बुला लिए।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की उस टुकड़ी में भारतीय मूल के जो फ़ौजी थे उनमें ज़्यादातर महार दलित थे और वे बॉम्बे नेटिव इनफ़ैंट्री से ताल्लुक रखते थे।
31 दिसंबर 1817 से लेकर 1 जनवरी 1818 के बीच यह सब चला। ब्रिटिश सरकार के जनरल स्मिथ 3 जनवरी को जब कोरेगाँव पहुँचे तो पेशवा भी वहाँ नहीं थे। कई रिपोर्टों में कहा गया है कि इस लड़ाई में कंपनी की फ़ौज में से 275 मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए। ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक़, पेशवा के 500-600 सैनिक इस लड़ाई में मारे गए या घायल हुए।
कहा जाता है कि युद्ध में किसी भी पक्ष ने निर्णायक जीत हासिल नहीं की। युद्ध के कुछ समय बाद ब्रिटिश इंडिया सरकार से जुड़े इतिहासकार माउंट स्टुअर्ट एलफिन्स्टन ने इसे पेशवा के लिए ‘छोटी सी जीत’ बताया था। फिर भी ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने अपने सैनिकों की बहादुरी की प्रशंसा की, जो संख्या में कम होने के बावजूद डटे रहे थे। चूँकि यह युद्ध तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के दौरान लड़े जाने वाली अंतिम लड़ाइयों में से एक था, इसलिए इस युद्ध को भी कंपनी की जीत के रूप में याद किया गया था। अपने मृत सैनिकों की याद में कंपनी ने कोरेगाँव में ‘विजय स्तंभ’ का निर्माण किया। स्तंभ के शिलालेख में कहा गया है कि कप्तान स्टॉन्टन की सेना ने ‘पूर्व में ब्रिटिश सेना की गर्वित विजय हासिल की।’
भीमा कोरेगाँव में इसी ‘विजय स्तंभ’ के सामने दलित अपना सम्मान प्रकट करते हैं। माना जाता है कि दलित इसे छुआछूत के ख़िलाफ़ अपनी जीत के रूप में मनाते हैं। कई इस कोरेगाँव युद्ध को भारतीय शासक और विदेशी आक्रांता अंग्रेज़ों के बीच युद्ध के तौर पर देखते हैं और वे सही भी हैं। लेकिन कुछ लोग मानते हैं कि यह युद्ध महारों के लिए अपनी अस्मिता की लड़ाई थी। कहा जाता है कि पेशवा शासक महारों के साथ छुआछूत का व्यवहार करते थे।
कई जगहों पर इतिहासकारों ने ज़िक्र किया है कि उस दौरान नगर में प्रवेश करते समय महारों को अपनी कमर में एक झाड़ू बाँध कर चलना होता था ताकि उनके 'प्रदूषित और अपवित्र' पैरों के निशान उनके पीछे घिसटते इस झाड़ू से मिटते चले जाएँ। कई जगहों पर ज़िक्र आता है कि उन्हें अपने गले में एक बरतन भी लटकाना होता था ताकि वे उसमें थूक सकें और उनके थूक से कोई सवर्ण 'प्रदूषित और अपवित्र' न हो जाए।
कुछ लोगों का मानना है कि महार छुआछूत थोपे जाने से नाराज़ थे। कहा जाता है कि जब महारों ने छुआछूत को ख़त्म करने को कहा तो उच्च जाति के लोग नहीं राज़ी हुए और इसी कारण वे ब्रिटिश फ़ौज में शामिल हो गए। कहा तो यह भी जाता है कि यह लड़ाई वर्ण-व्यवस्था मानने वाले सवर्णों के ख़िलाफ़ था, यह मराठों के ख़िलाफ़ तो बिल्कुल ही नहीं थी। कहा जाता है कि मराठों का नाम इसमें इसलिए लाया जाता है क्योंकि ब्राह्मणों ने मराठों से पेशवाई छीनी थी।
दलित इस लड़ाई को अपनी अस्मिता से जोड़कर देखते हैं। यही कारण है कि वे हर साल ‘विजय स्तंभ’ के पास सैकड़ों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। 2018 में 200वीं वर्षगाँठ थी इस कारण बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। लेकिन इस बीच हिंसा भड़काने के आरोप में पहले तो बड़ी संख्या में दलितों को गिरफ़्तार किया गया और बाद में 28 अगस्त, 2018 को सामाजिक कार्यकर्ताओं को। यह विवाद अभी भी जारी है।
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