लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में केरल की सभी 20 सीटों पर 26 अप्रैल
को मतदान होगा। यहां मुकाबला
लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और कांग्रेस के नेतृत्व वाला
यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) में रहता है। भाजपा ने केरल में कभी भी कोई लोकसभा
सीट नहीं जीती और 2016 में केवल एक विधानसभा सीट हासिल की थी। लेकिन उसने पूरी
गंभीरता दिखाई है और कई सीटों पर उसने ऐसे प्रत्याशी उतारे हैं जो कम से कम संघर्ष
करते तो नजर ही आ रहे हैं। केरल में अन्य राज्यों की तुलना में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियां ज्यादा रही हैं। पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई)
से उसका हिंसात्मक टकराव रहा है।
दोनों संगठनों के नेताओं की हत्याएं अतीत में हो चुकी हैं। संघ के राजनीतिक मुखौटे भाजपा ने दोबारा केंद्र की सत्ता प्राप्त करने के बाद सबसे पहले काम किया है वो है पीएफआई पर प्रतिबंध लगाना। इस तरह केरल में भाजपा-संघ का कट्टर विरोधी पीएफआई खत्म हो चुका है। लेकिन भाजपा अभी भी पीएफआई पर आरोप लगा रही है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को कहा कि कांग्रेस पीएफआई की मदद से चुनाव लड़ रही है। अमित शाह का बुधवार को रोड शो था।
केरल की जिन 20 सीटों पर 26 अप्रैल का मतदान होगा। उनके नाम हैं- कासरगोड, कन्नूर, वडकारा, वायनाड, कोझिकोड, मलप्पुरम, पोन्नानी, पलक्कड़, अलाथुर, त्रिशूर, चलाकुडी, अर्नाकुलम, इडुक्की, कोट्टायम, अलाप्पुझा, मावेलिक्कारा, पथानामथिट्टा, कोल्लम, अटिंगल, तिरुवनंतपुरम। 2019 के लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस ने 20 में से 15 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि वाम दलों ने दो सीटों पर दावा किया। किसी भी सीट को सुरक्षित करने में विफल रहने के बावजूद, भाजपा ने 12% का उल्लेखनीय वोट शेयर हासिल किया।
कई चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, भाजपा ने अपने वोट शेयर में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की है, जिसमें समय के साथ उतार-चढ़ाव भी आया है। 2019 के आम चुनावों में, भाजपा केरल में 12% वोट हासिल करने में सफल रही, जो 2021 के विधानसभा चुनावों में थोड़ा कम होकर 11.3% हो गई। इससे संकेत मिलता है कि पार्टी राज्य के मतदाताओं के साथ अभी भी ठीक से तालमेल नहीं बिठा पाई है। केरल में न तो मोदी मैजिक का कोई असर है और न ही मोदी यहां अपनी रैलियों में हिन्दू-मुसलमान वाला भाषण देने की जुर्रत कर पाए। उत्तर भारत के मुकाबले मोदी यहां विकास की बात करते हैं। लेकिन केरल का मतदाता रीझने को तैयार नहीं लगता है। केरल की राजनीति में ऐतिहासिक रूप से दो पार्टियों का वर्चस्व रहा है: लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ)। नतीजा ये हुआ कि राज्य की राजनीति में बीजेपी की भूमिका हमेशा मामूली रही है। हालाँकि, यहां आरएसएस की महत्वपूर्ण मौजूदगी है, लेकिन भाजपा के लिए इसकी मजबूत संगठनात्मक मौजूदगी अभी तक चुनावी लाभ में तब्दील नहीं हुई है। पीएफआई पर बैन लगने के बावजूद कोई लाभ संघ और भाजपा को नहीं मिला।
रणनीति बदलने को मजबूर
हाल के अभियानों में, भाजपा ने अपनी रणनीति में उल्लेखनीय बदलाव किया है। अपनी सांप्रदायिक बयानबाजी को पूरी तरह से कम करते हुए, पार्टी ने अपनी कट्टर हिंदुत्व-केंद्रित अपीलों को कम कर दिया है। इसके बजाय, इसने अपने संदेश को स्थानीय आबादी के साथ बेहतर ढंग से जोड़ने का प्रयास किया है, जिसमें ईसाइयों और मुसलमानों का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत शामिल है। जैसा कि ऊपर लिखा गया है। केरल में अब मोदी और अमित शाह का भाषण उत्तर भारत से बिल्कुल अलग होता है। अमित शाह बुधवार को केरल में रोड शो कर रहे हैं, जिसमें मुसलमानों और ईसाईयों को खासतौर पर निमंत्रित किया गया है।
आबादी का समीकरणः केरल की आबादी विविधता लिए हुए है, जिसमें हिंदू आबादी 54.73%, मुस्लिम 26.5% और ईसाई 18.3% हैं। सभी लोग पढ़े लिखे हैं। हिन्दू सबसे ज्यादा हैं लेकिन पढ़े-लिखे होने की वजह से उन्होंने कभी भी आरएसएस और भाजपा की कट्टर धार्मिक अपीलों पर ध्यान नहीं दिया। भाजपा ने कथित "लव जिहाद" जैसे मुद्दों पर चिंता जताते हुए इसके जरिए जमीन खोजने की कोशिश की लेकिन उसका असर न तो हिन्दुओं पर हो रहा है और न ही ईसाई समुदाय पर। केरल में भाजपा को इस बार जिस तरह से कांग्रेस नेताओं ए.के. एंटोनी और के. करुणाकरण के बेटे-बेटियों का साथ मिला है, उससे भाजपा को अपनी मंजिल करीब नजर आ रही है। चुनावों में भाजपा कुछ ज्यादा ही आशावादी है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) दोनों के प्रदर्शन और वादों की आलोचना करने के लिए एक बहु-आयामी नजरिया विकसित किया है। मोदी के जोरदार अभियानों और लगातार दौरों के बावजूद, स्थानीय प्रतिक्रिया से पता चलता है कि महत्वपूर्ण बाधाओं को अभी भी दूर करने की जरूरत है। सबरीमाला मंदिर विरोध जैसे ऐतिहासिक मुद्दे, जिनसे भाजपा को उम्मीद थी कि इससे हिंदू वोट मजबूत होंगे, अपेक्षित चुनावी लाभ नहीं मिला। बल्कि केरल के आम लोगों ने बुरा माना कि भाजपा ने सबरीमाला मंदिर पर राजनीति की।
भाजपा ने 2024 में केरल की बदली रणनीति के तहत ही बेहतर नजरिया अपनाया है। उसने हिन्दुओं की चिन्ता छोड़कर अपना फोकस ईसाईयों पर कर दिया है। पार्टी ने ईसाई मतदाताओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए विस्तृत अध्ययन किया है, जो केरल के 20 संसदीय क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण है। पार्टी ने उनकी चिंताओं को दूर करने और समर्थन जुटाने के लिए चर्च के नेताओं के साथ भी काम किया है, जो महत्वपूर्ण सामुदायिक क्षेत्रों तक भाजपा को उसके टारगेट पर पहुंचा सकते हैं। हालांकि नतीजे आने के बाद यह जानकारी महत्वपूर्ण होगी की ईसाई भाजपा की बदली रणनीति के चक्कर में आए या नहीं।
पांच लोकसभा क्षेत्रों पर ज्यादा जोर
भाजपा ने पांच लोकसभा सीटों पर अपना फोकस ज्यादा रखा, जिसमें तिरुवनंतपुरम, अटिंगल, पथानामथिट्टा, त्रिशूर और पलक्कड़ शामिल हैं। लेकिन यह शुरू की बातथी। बाद में गहन विश्लेषण और जमीनी काम के बाद, भाजपा ने अपना ध्यान अब तीन लोकसभा क्षेत्रों तक सीमित कर लिया है, जहां उसका मानना है कि अनुकूल जाति समीकरम और मजबूत पार्टी कैडर समर्थन के आधार पर चुनावी सफलता की सबसे अच्छी संभावना है। ये प्रमुख निर्वाचन क्षेत्र हैं तिरुवनंतपुरम, जहाँ से राजीव चन्द्रशेखर चुनाव लड़ रहे हैं; अट्टिंगल, जहां वी मुरलीधरन उम्मीदवार हैं; और त्रिशूर, जिसका प्रतिनिधित्व सुरेश गोपी करते हैं। इन क्षेत्रों का रणनीतिक चयन कैडर वोटों की संभावना और जनसांख्यिकीय गतिशीलता से प्रेरित है, जिसके बारे में पार्टी का मानना है कि परिणाम उसके पक्ष में आ सकते हैं। हालांकि तिरुवनंतपुरम को लेकर भाजपा का जो भी अनुमान हो, कांग्रेस प्रत्याशी शशि थरूर के मुकाबले राजीव चंद्रशेखर कहीं नहीं ठहर पा रहे हैं।
भाजपा की कोशिशों के बावजूद, जनमत सर्वे और राजनीतिक विश्लेषकों को केरल में एक भी लोकसभा सीट जीतने की उसकी क्षमता पर संदेह है। ऐसा एलडीएफ और यूडीएफ दोनों की मजबूत स्थिति और राज्य के जागरूक मतदाताओं की वजह से है। फिर भी, पार्टी का लक्ष्य जुड़ाव बढ़ाकर और रणनीतिक प्रचार को अपनाकर भविष्य के चुनावी चक्रों के लिए एक मजबूत आधार स्थापित करना है, जो 2026 के विधानसभा चुनावों को प्रभावित कर सकता है। यानी लोकसभा चुनाव के जरिए भाजपा अपना भविष्य केरल की राजनीति में तलाश रही है।
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