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झारखंड की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ पर आ गई है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विधानसभा के विशेष सत्र में दुबारा विश्वास मत हासिल कर लिया है। इसके बावजूद राजनीतिक अस्थिरता की संभावना ख़त्म नहीं हुई है। सोरेन की विधानसभा सदस्यता को लेकर निर्वाचन आयोग की अनुशंसा पर राज्यपाल का अब तक कोई क़दम सामने नहीं आया है। ऐसे में संशय की स्थिति बरकरार है।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली यूपीए महागठबंधन की सरकार ने सोमवार को विधानसभा में विश्वास मत पेश किया। प्रस्ताव के पक्ष में 48 विधायकों ने मतदान किया। विरोध में एक भी वोट नहीं पड़ा। मत विभाजन से पहले भाजपा एवं आजसू विधायकों ने सदन से वाकआउट किया। इस तरह 81 सदस्यीय विधानसभा में वर्तमान सरकार ने पुनः विश्वासमत हासिल कर लिया। इसके बाद सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया।
विश्वासमत पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि 25 अगस्त से राज्य में अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है। निर्वाचन आयोग और राजभवन द्वारा ऐसा माहौल बनाया जा रहा है। निर्वाचन आयोग कहता है कि उसके द्वारा अनुशंसा भेजी गई है। लेकिन राजभवन द्वारा इस पर कोई खुलासा नहीं किया गया है। यहाँ तक कि यूपीए के प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल से मिलकर वस्तुस्थिति की जानकारी मांगी। तब राज्यपाल ने आयोग का पत्र मिलने की बात स्वीकार की। उन्होंने दो-तीन दिनों के भीतर इसे स्पष्ट करने की बात कही। लेकिन इसके बाद वह दिल्ली चले गये। अब तक राज्य में असमंजस की स्थिति बनी हुई है।
झारखंड विधानसभा में विश्वासमत हासित करने को हेमंत सरकार की एक दूरगामी रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है। इसके बाद छह माह तक सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाना मुश्किल होगा। इसलिए इसे मौजूदा सरकार का एक बड़ा संकट टलने का संकेत बताया जा रहा है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि निर्वाचन आयोग की अनुशंसा पर राज्यपाल क्या कदम उठाते हैं, इस पर झारखंड का राजनीतिक भविष्य निर्भर है। अगर सोरेन की विधानसभा सदस्यता चली जाती है, तो नए नेता का चुनाव करके नए सिरे से विश्वासमत हासिल करना अनिवार्य हो जाएगा।
विगत 22 वर्षों में झारखंड ने अब तक ग्यारह मुख्यमंत्री देख लिए हैं। तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लग चुका है। इन 22 वर्षों में मात्र रघुवर दास ने पहली बार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2019 में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यूपीए महागठबंधन की सरकार के पास भी पूर्ण बहुमत है। सरकार बनाने के लिए 41 का आँकड़ा चाहिये। जबकि हेमंत सोरेन के पास 51 का पर्याप्त आंकड़ा है। इसमें 30 विधायक झामुमो के और 18 विधायक कांग्रेस के हैं। इस संख्याबल के बावजूद झारखण्ड में राजनीतिक अनिश्चितता के लिए भाजपा के तथाकथित ऑपरेशन लोटस को मुख्य जिम्मेवार बताया जा रहा है।
मौजूदा राजनीतिक गहमागहमी की शुरुआत 25 अगस्त को कतिपय बीजेपी नेताओं द्वारा ट्वीट के माध्यम से यह खुलासा किए जाने के बाद हुई थी कि चुनाव आयोग ने हेमंत सोरेन की सदस्यता खत्म करने की अनुशंसा कर दी है। यह विवाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम पर एक पत्थर खदान की लीज को लेकर है। बीजेपी ने इसे ‘ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट’ का मामला बताते हुए राज्यपाल के पास शिकायत की थी।
लेकिन सोरेन के लिए मामला इतना आसान है अथवा नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा। कारण यह कि भाजपा नेताओं के अनुसार सोरेन को कुछ वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य भी करार दिया जा सकता है। ऐसा होने पर सोरेन के लिए दुबारा सीएम बनना मुश्किल होगा।
तब वैकल्पिक मुख्यमंत्री के बतौर उनके परिवार के सदस्यों के नामों पर चर्चा हो रही है। परिवार के बाहर झामुमो के किसी वरिष्ठ विधायक के नाम पर भी दाँव लगाया जा सकता है।
झामुमो नेताओं का आरोप है कि बहुमत के लिए संख्याबल पर्याप्त होने के बावजूद जानबूझकर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा किया गया है। विगत पौने तीन साल के भीतर तीन बार राज्य में तख्तापलट का प्रयास हो चुका है। केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता, मुख्यमंत्री के क़रीबी लोगों की घेराबंदी, कांग्रेस और झामुमो के कथित असंतुष्ट विधायकों को लालच देकर सरकार गिराने जैसे आरोप लगातार सामने आते रहे हैं। झारखंड में ‘ऑपरेशन लोटस’ अब एक सामान्य मुहावरा बनता जा रहा है।
बहरहाल, झारखंड विधानसभा में विश्वासमत हासिल करके हेमंत सरकार ने अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करते हुए राज्य में एक संदेश देने में सफलता हासिल की है। लेकिन राजभवन के फ़ैसले का इंतज़ार सबको है, जहां किसी भी वक्त ‘बड़ा खेल’ होने की संभावना बरकरार है।
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