झारखंड में शह-मात का खेल जारी है। तथाकथित ऑपरेशन लोटस के जवाब में हेमंत सरकार ने 1932 का खतियान और ओबीसी आरक्षण की घोषणा कर दी है। अब झारखंड में किसी भी राजनीतिक उलटफेर की स्थानीय समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया हो सकती है। झामुमो-कांग्रेस-राजद और वाम दलों के समर्थन से चल रही हेमंत सरकार को यह कहने का अवसर मिल सकता है कि बीजेपी झारखंड के स्थानीय हितों के ख़िलाफ़ है।
इस तरह झारखंड में जारी राजनीतिक ऊहापोह ने दिलचस्प मोड़ ले लिया है। बीजेपी नेताओं ने 25 अगस्त को हेमंत सरकार के गिरने का दावा किया था। कहा गया कि निर्वाचन आयोग ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा सदस्यता खारिज करते हुए तीन वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने ट्वीट किया था कि ‘अगस्त पार नहीं होगा।‘ यानी अगस्त माह में हेमंत सरकार गिर जाएगी।
लेकिन निर्वाचन आयोग की तथाकथित अनुशंसा पर झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस द्वारा अब तक कोई क़दम नहीं उठाया गया है। दूसरी ओर, इन बीस दिनों के लंबे वक्त ने हेमंत सरकार को राजनीतिक दांव चलने का भरपूर अवसर प्रदान किया है। पहले तो झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर हेमंत सरकार ने विश्वास मत दुबारा हासिल किया। ऐसा करके राज्य में अपनी मजबूती का संदेश दिया। अब झारखंड की स्थानीयता नीति में 1932 का खतियान लागू करने तथा ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा करके हेमंत ने बड़ा ‘खेल’ कर दिया है। बीजेपी के लिए इसका विरोध करना आसान नहीं होगा। दूसरी ओर, अब किसी भी वजह से हेमंत सोरेन की सरकार गिरेगी तो ‘शहीद’ का दर्जा मिलेगा। भाजपा को स्थानीय समुदाय के हितों का विरोधी घोषित करना बेहद आसान होगा।
यही कारण है कि भाजपा द्वारा हेमंत सरकार को एक बार ‘छेड़कर’ कोई निर्णायक क़दम नहीं उठाने को एक बड़ी भूल समझा जा रहा है। एक राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार ऐसे मामलों में एक बार ‘छेड़कर’ छोड़ देना अक़्लमंदी नहीं। अगर हेमंत सोरेन सरकार के ख़िलाफ़ राज्यपाल के पास कोई ठोस क़दम उठाने का आधार नहीं था, तो अनावश्यक बयानबाज़ी करके यूपीए को एकजुट होने का अवसर देना बीजेपी की ग़लत रणनीति मानी जाएगी।
वर्ष 2000 में झारखंड अलग राज्य बनने के समय से ही‘स्थानीयता’ नीति को लेकर विवाद जारी है। किसे स्थानीय समझा जाए, इस पर अब तक स्पष्टता नहीं बन पाई है। इसी‘डोमिसाइल’ पॉलिसी के विवाद में राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। उनके बाद की हर सरकार ने स्थानीयता नीति को परिभाषित करने का असफल प्रयास किया। ऐसी नीति की ज़रूरत राज्य में तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की नियुक्ति सहित ऐसे मामलों के लिये है, जहाँ किसी प्रकार का आरक्षण लागू होता है।
झारखंड में अंग्रेजों के शासन के दौरान वर्ष 1932 में जमीनों का सर्वेक्षण करके खतियान में नाम दर्ज किए गए थे। उसमें जिनके पूर्वजों के नाम हों, उन्हें स्थानीय मानने की नीति बनाने की मांग उठती रही है।
अब हेमंत सरकार ने 1932 के खतियान को स्थानीयता का आधार बनाने को मंजूरी दे दी है। साथ ही, विभिन्न श्रेणियों के आरक्षण में भी वृद्धि कर दी है। अब तक ओबीसी के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण था। इसे बढ़ाकर 27 फीसदी करने का फ़ैसला हुआ है। एससी का आरक्षण 10 से बढ़ाकर 12 फीसदी करने और एसटी का आरक्षण 26 से बढ़ाकर 28 फीसदी करने को मंजूरी दी है। इस तरह हेमंत सरकार ने राज्य में कुल 77 फीसदी आरक्षण का बड़ा दांव खेला है।
झारखंड की स्थानीयता नीति और आरक्षण के मामलों को अदालतों में चुनौती मिलती रहती है। इसी वजह से कोई नई नीति लागू करना झारखंड सरकार के लिए काफी मुश्किल रहा है। लेकिन इस बार हेमंत सरकार ने मास्टर स्ट्रॉक फेंका है। अब विधानसभा से विधेयक पारित करके केंद्र सरकार के पास भेजा जाएगा। इसमें यह मांग की जाएगी कि इन दोनों विधेयकों को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। ऐसा होने पर इन क़ानूनों को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। संविधान की नौवीं अनुसूची में फिलहाल केंद्र और राज्य सरकारों के 280 से ज्यादा कानून शामिल हैं।
जाहिर है कि हेमंत सोरेन ने गेंद अब भाजपा के पाले में फेंक दी है। केंद्र सरकार के लिए इन दोनों विधेयकों को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करना काफी मुश्किल होगा। अगर केंद्र ने ऐसा कर दिया, तो इसका पूरा श्रेय हेमंत सोरेन को जायेगा और भाजपा को अन्य समुदायों की तीखी नाराजगी झेलनी पड़ेगी। दूसरी ओर, अगर केंद्र सरकार ने इसे लौटाया या लटकाए रखा, तो यूपीए गठबंधन को राजनीतिक प्रचार का अवसर मिलेगा।
यही कारण है कि भाजपा ने अब तक हेमंत सरकार के इस फ़ैसले पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की है। यह देखना दिलचस्प होगा कि निर्वाचन आयोग की तथाकथित अनुशंसा के आलोक में अब राज्यपाल द्वारा कौन-से क़दम उठाए जाएंगे। क्या अब भी झारखंड में किसी ‘ऑपरेशन लोटस’ की गुंजाइश बची है? पिछले बीस दिनों के भीतर हेमंत सोरेन द्वारा उठाए गए क़दमों ने इसे मुश्किल बना दिया है।
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