जिन्ना किसी भी क़ीमत पर जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने के चक्कर में थे और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा पाकिस्तान के साथ जाने के बारे में विचार कर रहे थे। लेकिन सरदार पटेल ने न केवल जम्मू-कश्मीर का भारत में बिना शर्त विलय करवाया, बल्कि अमेरिका और इंग्लैंड की मर्जी के ख़िलाफ़ पाकिस्तान को भी उसकी औक़ात दिखा दी।
अलगाववादी नेताओं की जमात, हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस के लोग तो पाकिस्तान का जयकारा लगाते ही रहते थे, भारत के साथ रहने की बात करने वाले नेता भी अब भारत से अलग होने की धमकी देने लगे हैं।
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों महबूबा मुफ़्ती, फ़ारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयान बहुत ही निराशाजनक हैं। यह तीनों ही नेता बीजेपी के साथ कई अवसरों पर सरकार में शामिल रहे हैं।
संविधान के अनुच्छेद 35ए के मामले ने इतना तूल पकड़ लिया है कि जम्मू-कश्मीर के होशमंद नेता भी भारत से अलग होने की बात करने लगे हैं। इसके लिए काफ़ी हद तक मौजूदा सत्ताधारी पार्टी और उसके नेता ज़िम्मेदार हैं।
बीजेपी के नेता चुनावों के समय कश्मीर को मुद्दा बनाते हैं, इस कारण उन्हें पाकिस्तान और मुसलमानों को निशाने पर लेने में आसानी होती है। लेकिन बाद में उसका ज़िक्र उतनी शिद्दत से नहीं करते। लगता है कि इस बार भी उनकी कोशिश यही थी लेकिन मामला बहुत आगे बढ़ गया।
देश की हर समस्या के लिये जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार बताने वाले नेताओं को अब यह समझ लेने की ज़रूरत है कि कश्मीर में अगर हालात सामान्य करने हैं तो नेहरू की किताब के पन्ने ही पढ़ने पड़ेंगे।
सत्ताधारी पार्टी बीजेपी जब भी विपक्ष में रही है, कश्मीर में संविधान के आर्टिकल 370 का विरोध करती रही है लेकिन जब भी सत्ता में आई है अलग बात करती है। लेकिन इस बार मामला थोड़ा अटक गया है। बीजेपी केंद्र में सत्ता में है और राज्य में भी राष्ट्रपति शासन के रास्ते उसी की सत्ता है।
हालात इतने चिंताजनक हैं कि केंद्र सरकार को फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाने पड़ेंगे। कहीं ऐसा न हो कि हर भाषण में कश्मीर की बात करके और प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके ध्रुवीकरण तो हो जाये लेकिन कश्मीर के हालात बद से बदतर हो जाएँ।
नेहरू की राह पर चलना ज़रूरी
इन हालात में ज़रूरी यह है कि कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए जवाहरलाल नेहरू की राह को अपनाया जाए जिन्होंने 27 मई 1964 को अपनी मृत्यु के दिन भी कश्मीर समस्या के समाधान के लिए लगातार प्रयास किया था। हालाँकि उन्होंने शेख़ अब्दुल्ला को 1953 में गिरफ्तार कर लिया था लेकिन उन्हें मालूम था कि कश्मीर की समस्या के हल के लिए कश्मीर के सबसे बड़े नेता को शामिल करना ज़रूरी होगा।
इसी सोच के तहत उन्होंने शेख अब्दुल्ला को रिहा किया और पाकिस्तान जाकर समाधान की संभावना तलाशने का काम सौंपा था। शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर गए और वहाँ लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया। 27 मई 1964 को जब पीओके के मुज़फ्फ़राबाद में उनके दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में जब उनके पुराने दोस्त मौजूद थे तभी नेहरू की मौत की ख़बर आ गयी और सब किया-धरा बर्बाद हो गया। उसके बाद कश्मीर के हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे।
कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने क़ानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी, वहाँ संविधान की धारा 356 और 357 लागू कर दी गयी। इसके बाद शेख़ अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया।
इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फ़ौज़ ने मुँह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दख़ल से ही सुलह हो सकी।
भारत से क्यों नाराज़ हैं कश्मीरी?
सवाल यह है कि कश्मीर का मसला इस मुकाम तक पहुँचा कैसे। जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना को धता बता दिया था और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख़ अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी, आज वह भारतीय नेताओं से इतनी नाराज़ क्यों है?
कश्मीर में पिछले 30 साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुसलिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारतीय नेताओं महात्मा गाँधी, नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था। इसको समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे इतिहास में जाना पड़ेगा।
भारत-पाक विभाजन के वक़्त, जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान के सामने स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेंगे। 15 अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे।
भारत सरकार को इससे चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता को इन शब्दों में कहा, ‘पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज़्यादा से ज़्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग-थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की जाए।’
नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कॉन्फ़्रेंस और शेख़ अब्दुल्ला से मदद माँगेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा। अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इसलिए मुश्किल हो जाएगा क्योंकि फिर उसे सीधे भारत से मुक़ाबला करना पड़ेगा।
राजा के हठ से बिगड़ी बात
अगर राजा ने नेहरू की बात को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता लेकिन इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। अक्टूबर तक बात बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया। पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढ़ाने के लिए लाहौर से आने वाले कपड़े, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी। संचार व्यवस्था में भारी अड़चन डाली गयी लेकिन राजा अपनी मनमानी पर अड़े रहे।संयुक्त राष्ट्र में पहुँचा कश्मीर मसला
राजा की ग़लतियों के कारण ही कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर 1947 वाली बात नहीं रही। संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाए कि वे किधर जाना चाहते हैं। भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे।
शेख़ अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता और वह भारत के साथ थे। लेकिन 1953 के बाद यह हालात भी बदल गए। बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत इससे पीछा छुड़ाने लगा।
राजा के वफ़ादार नेताओं की टोली यानी प्रजा परिषद ने हालात को बहुत बिगाड़ा, इंदिरा गाँधी के दौर में भी बात बिगाड़ी गयी। 1980 में जब वह दोबारा सत्ता में आईं तो अरुण नेहरू पर बहुत भरोसा करने लगी थीं।
अरुण नेहरू ने जितना नुक़सान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने किया हो। अरुण नेहरू ने डॉ. फ़ारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया। इसके अलावा कांग्रेस ने घोषित मुसलिम दुश्मन जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया। उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए।
उधर, पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक़ अपनी हरक़तों से बाज़ नहीं आ रहे थे। उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादियों को कश्मीर घाटी में भेज दिया। बची-खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी, जब 1990 में तत्कालीन गृह मंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया। यही दौर था जब कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ और आज हालात जहाँ तक पहुँच गए हैं, किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि वहाँ से वापसी कब होगी। ज़रूरत इस बात की है कि नेहरू जैसी बड़ी सोच अपनाई जाए और कश्मीर से आतंक को ख़त्म करने की गंभीरता से कोशिश की जाए।
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