तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के नेतृत्व में दक्षिण भारत के राज्य लोकसभा सीटों के प्रस्तावित परिसीमन के खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठा रहे हैं। स्टालिन ने इसे दक्षिणी राज्यों के हितों पर हमला बताते हुए कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर संयुक्त कार्रवाई की अपील की है। इस मुद्दे पर आंध्र प्रदेश की विपक्षी पार्टी वाईएसआरसीपी भी मुखर है और उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर परिसीमन के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू इस मामले में केंद्र सरकार के समर्थन में खड़े नजर आ रहे हैं। यह विरोधाभास दक्षिण भारत की राजनीति में नई बहस को जन्म दे रहा है। आखिर चंद्रबाबू का यह रुख क्या संकेत देता है और इसका राजनीतिक असर क्या हो सकता है?
परिसीमन का मुद्दा दक्षिणी राज्यों के लिए संवेदनशील इसलिए है क्योंकि यह उनकी संसदीय सीटों और राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव को कम करने की आशंका से जुड़ा है। अगली जनगणना के बाद अगर लोकसभा सीटों का बंटवारा जनसंख्या के आधार पर हुआ, तो उत्तर भारत के राज्यों ज्यादा सीटें मिलेंगी, जबकि दक्षिणी राज्य जैसे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल को नुक़सान उठाना पड़ सकता है। स्टालिन का तर्क है कि दक्षिणी राज्यों ने परिवार नियोजन को प्रभावी ढंग से लागू किया, जिसके चलते उनकी जनसंख्या नियंत्रित रही। इसे लेकर वे इसे नियंत्रित जनसंख्या के लिए सजा करार दे रहे हैं।
आंध्र प्रदेश में विपक्षी दल वाईएसआरसीपी ने भी इसी आधार पर परिसीमन का विरोध किया है। पार्टी ने पीएम को लिखे पत्र में कहा कि यह कदम दक्षिणी राज्यों के साथ अन्याय होगा और उनकी राजनीतिक ताकत को कमजोर करेगा। वाईएसआरसीपी प्रमुख जगन मोहन रेड्डी ने इसे क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ाने वाला कदम बताया है।
परिसीमन पर नायडू की राय
दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू का रुख बिल्कुल उलट है। टीडीपी एनडीए गठबंधन का हिस्सा है और चंद्रबाबू ने परिसीमन को लेकर केंद्र सरकार का समर्थन किया है। हाल ही में नायडू ने परिसीमन को लेकर अपने विचार स्पष्ट किए हैं। उनका कहना है कि परिसीमन और जनसंख्या प्रबंधन दो अलग-अलग मुद्दे हैं और इन्हें वर्तमान राजनीतिक बहस से जोड़ना ठीक नहीं है।
नायडू ने दक्षिणी राज्यों की उन चिंताओं को भी दूर करने की कोशिश की जिसमें वे परिसीमन के बाद संसदीय प्रतिनिधित्व में कमी की आशंका जता रहे हैं।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब में उन्होंने कहा, 'इन सभी चीजों पर चर्चा होगी। कभी-कभी कुछ फ़ैसले अनुमानों के आधार पर लिए जाते हैं, लेकिन हर अनुमान समाज के लिए फ़ायदेमंद नहीं होता। हमें अपने विचार बदलने होंगे।'
नायडू का कहना है कि परिसीमन एक संवैधानिक प्रक्रिया है और इसे जनसंख्या संतुलन के लिए ज़रूरी माना जाना चाहिए। इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि आंध्र प्रदेश में घटती प्रजनन दर और बढ़ती बुजुर्ग आबादी चिंता का विषय है, जिसके लिए वे लोगों से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं।
टीडीपी को हाल के चुनावों में एनडीए के समर्थन से बड़ी जीत मिली है और केंद्र से विशेष पैकेज की मांग भी उनकी प्राथमिकता में है। ऐसे में वे परिसीमन जैसे मुद्दे पर केंद्र से टकराव मोल लेना नहीं चाहते।
इस पूरे घटनाक्रम का राजनीतिक असर गहरा हो सकता है। सबसे पहले, दक्षिणी राज्यों में उत्तर बनाम दक्षिण की बहस तेज हो सकती है। स्टालिन और वाईएसआरसीपी जैसे नेता इसे क्षेत्रीय असमानता का मुद्दा बनाकर जनता के बीच अपनी पैठ मजबूत करने की कोशिश कर सकते हैं। खासकर तमिलनाडु में डीएमके इसे 2026 के विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना सकती है।
दूसरी ओर, चंद्रबाबू के रुख से आंध्र प्रदेश में टीडीपी और वाईएसआरसीपी के बीच टकराव बढ़ सकता है। वाईएसआरसीपी पहले से ही चंद्रबाबू को केंद्र का 'हितैषी' बताकर निशाना साध रही है। अगर परिसीमन के बाद आंध्र की सीटें कम होती हैं, तो वाईएसआरसीपी इसे जनता के बीच भुनाने की कोशिश करेगी, जिससे टीडीपी की छवि को नुकसान हो सकता है।
तीसरा, एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच यह मुद्दा एक नया राजनीतिक मोर्चा खोल सकता है। जहां स्टालिन इंडिया गठबंधन के प्रमुख चेहरों में से एक हैं, वहीं चंद्रबाबू एनडीए के साथ हैं। परिसीमन पर दोनों का अलग-अलग रुख 2029 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन की रणनीतियों को प्रभावित कर सकता है।
एमके स्टालिन के नेतृत्व में दक्षिणी राज्य परिसीमन के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं, लेकिन चंद्रबाबू नायडू का केंद्र सरकार के पक्ष में खड़ा होना इस एकजुटता में सेंध लगा रहा है। यह स्थिति दक्षिण भारत की राजनीति में नई उथल-पुथल का संकेत देती है। जहां स्टालिन और वाईएसआरसीपी इसे क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़ रहे हैं, वहीं चंद्रबाबू की रणनीति गठबंधन और राज्य के दीर्घकालिक हितों पर टिकी दिखती है। आने वाले दिनों में यह मुद्दा कितना गरमाता है और इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर क्या पड़ता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)
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