भारतीय जनता पार्टी संविधान के अनुच्छेद 370 और जम्मू-कश्मीर को मिलने वाले विशेष दर्जे के प्रावधानों पर आज जो कहे, सच यह है कि इसके प्रेरणा पुरुष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान सभा में इस अनुच्छेद का ज़बरदस्त समर्थन किया था। बीजेपी के लोग यह कहते नहीं अघाते हैं कि इस अनुच्छेद को ख़त्म करना मुखर्जी का सपना था और इसके लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया था, सच यह है कि इस अनुच्छेद को तैयार करने और लागू करने में वह पूरी तरह जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ थे।
जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और गृह मंत्री बल्लभ भाई पटेल ने हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विश्वास में लिया था। मुखर्जी शुरू से ही उनके संपर्क में थे और लगभग हर मुद्दे पर उनकी सलाह ली जाती थी।
मुखर्जी का मानना था कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिलना ही चाहिए क्योंकि इससे वहाँ के लोगों में देश से जुड़ने की भावना प्रबल होगी और देश की अखंडता मजबूत होगी।
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लेखक और पत्रकार सुभाष गताडे ने अपनी किताब 'हिन्दुत्वाज़ सेकंड कमिंग' में इस बारे में विस्तार से बताया है। उन्होंने लिखा है कि किस तरह नेहरू ने पटेल और मुखर्जी दोनों को ही अपनी टीम में शामिल किया था। इस अनुच्छेद के मुख्य पैरोकार पटेल थे। कांग्रेस के कुछ लोगों ने जब इसका विरोध किया, यह पटेल ही थे, जिन्होंने एन. गोपालस्वामी अयंगर और कांग्रेस के दूसरे सदस्यों को समझा बुझा कर मामला सलटाया था।
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हिन्दू महासभा के इस सदस्य ने इस बारे में एक चिट्ठी नेहरू को लिखी थी। इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा था, 'दोनों ही पक्ष इस बात को दुहराते हैं कि राज्य की एकता बरक़रार रखी जाएगी और स्वायत्तता का सिद्धांत जम्मू, लद्दाख और कश्मीर घाटी के लोगों पर लागू होगा।'
शेख अब्दुल्ला ने 17 फरवरी 1953 को एक पत्र नेहरू को लिखा, जिसमें उन्होंने मुखर्जी की चिट्ठी का हवाला दिया। अब्दुल्ला के ख़त के मुताबिक़, 'श्यामा प्रसाद मुखर्जी इससे सहमत थे कि दिल्ली समझौता, जिसके तहत राज्य को विशेष दर्जा देने की बात कही गई है, जम्मू-कश्मीर संविधान सभा के अगले सत्र में लिया जाए।'
बाद में जब मुखर्जी अपनी बात से पलट गए और राज्य को विशेष दर्जा देने का विरोध किया तो नेहरू ने इसी खत का हवाला देते हुए कहा था कि उन्हें अपना आंदोलन तुरन्त ख़त्म कर देना चाहिए।
अनुच्छेद 370 को पहले अनुच्छेद 306 कहा जाता था। कांग्रेस की ओर से एन. गोपालस्वामी अयंगर ने संविधान सभा की बैठक में 17 अक्टूबर 1949 को इसे पेश किया था। उस प्रस्ताव का सिर्फ एक सदस्य ने विरोध किया था और उसके ख़िलाफ़ वोट डाला था और वह थे मौलाना हसरत मोहानी। मोहानी ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देना दूसरे राज्यों के साथ भेदभाव है, उन्होंने सवाल उठाया था कि यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है।
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आंबेडकर के साथ हसरत मोहानी
इसके जवाब में अयंगर ने कहा था, 'यह भेदभाव इसलिए किया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति भी विशेष है। यह राज्य पूर्ण एकीकरण के लिए अभी पूरी तरह तैयार नहीं है। साल के शुरू में युद्धविराम हुआ, यह अभी भी लागू है। पर राज्य की स्थिति असामान्य है। इसिलए यह ज़रूरी है कि प्रशासन इस तरह तब तक चलाया जाए कि जब तक स्थिति सुधर नहीं जाती और दूसरे राज्यों की तरह नहीं हो जाती है।' लेकिन मोहानी इससे पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुए। उन्होंने कहा, 'आप महाराजा को विशेष सुविधाएँ दें, लेकिन मेरा विरोध इस पर है कि यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है।'
हसरत मोहानी ने बड़ौदा का सवाल उठाया। उन्होंने कहा, 'आप बड़ौदा के राजा को तो पेंशन देकर उस राज्य को बंबई राज्य में मिला दे रहे हैं, पर कश्मीर के महाराजा को विशेष सुविधाएँ दे रहे है। ऐसा क्यों?' इस पर संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने टोका और कहा, 'मौलाना, हमें बड़ौदा के राजा की चिंता नहीं है।'
उस सभा में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी मौजूद थे। उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर कोई ऐतराज नहीं किया। बाद में जब इस पर मतदान हुआ तो अनुच्छेद के ख़िलाफ़ एक और सिर्फ़ एक वोट पड़ा और वह था मौलाना हसरत मोहानी का। मुखर्जी ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया था।
यह वही हसरत मोहानी थे, जिन्होंने 'इंकलाब जिन्दाबाद' का नारा दिया था। मोहानी मशहूर शायर और स्वतंत्रता सेनानी थे।
जम्मू का स्थानीय दल प्रजा परिषद राज्य को विशेष दर्ज दिए जाने के ख़िलाफ़ था। उसका नारा था, 'एक देश, एक विधान, एक प्रधान'। उस समय तक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का हिन्दू महासभा से मोहभंग हो चुका था। वह महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें महासभा की कथित भूमिका से दुखी थे। उन्होंने अलग जनसंघ की स्थापना कर ली थी। जनसंघ ने प्रजा परिषद के नारे को लपक लिया और मुखर्जी ने कहा कि एक देश में दो प्रधानमंत्री नही हो सकते, दो संविधान नहीं हो सकते। बता दें कि उस समय तक जम्मू-कश्मीर सरकार के मुखिया को वज़ीरे आज़म यानी प्रधानमंत्री कहा जाता था। इस हिसाब से शेख अब्दुल्ला वहाँ के प्रधानमंत्री थे। मुखर्जी ने इसे भावनात्मक मुद्दा बनाया और सवाल उछाला कि एक देश में दो प्रधानमंत्री-नेहरू और शेख अब्दुल्ला नहीं हो सकते।
'एक देश, एक विधान, एक प्रधान' का नारा जनसंघ के हिन्दू राष्ट्रवाद के विचार में फिट बैठता था। उसने मुखर्जी के पहले के विचारों को दबा दिया और इस नारे को ही अपना नारा बना लिया। आज बीजेपी के उग्र हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद में मुखर्जी की कथित शहादत बहुत ही महत्वपूर्ण है। वह कहती फिर रही है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा ख़त्म होने से मुखर्जी का बलिदान सही साबित होगा, लेकिन सवाल यह है कि मुखर्जी ने संविधान सभा में उसका विरोध क्यों नहीं किया, उसके ख़िलाफ़ वोट क्यों नहीं दिया। जिसने विरोध किया था, लोग उसे आज भूल चुके हैं।
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