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SC बार की कार्यकारी समिति ने की चुनावी बॉन्ड पर खत के लिए अध्यक्ष की आलोचना

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की कार्यकारी समिति ने अध्यक्ष आदिश अग्रवाल के उस पत्र की निंदा की जिसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से चुनावी बॉन्ड के फैसले को लागू करने से रोकने की मांग की गई थी। कार्यकारी समिति ने न केवल खुद को अग्रवाल के रुख से अलग कर लिया है, बल्कि स्पष्ट रूप से इस विचार की निंदा भी की है और इसे सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार को ख़त्म करने और कमजोर करने का प्रयास बताया है।

ऑल इंडिया बार एसोसिएशन यानी एआईबीए के लेटरहेड पर मंगलवार को जारी किए गए अग्रवाल के इस पत्र में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से इलेक्टोरल बॉन्ड के फ़ैसले के खिलाफ प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस के माध्यम से इसको प्रभावी होने से रोकने की मांग की है। इसके साथ ही उन्होंने मामले की दोबारा सुनवाई होने तक फ़ैसले को रोकने के लिए भी कहा। उन्होंने पत्र में कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे फैसले नहीं देने चाहिए जो संवैधानिक गतिरोध पैदा करें और संसद की महिमा को कमजोर करें।

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सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष का यह ख़त तब आया है जब इलेक्टोरल बॉन्ड काफ़ी विवादों में रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़-साफ़ और सीधे-सीधे कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध था, अपारदर्शी था और असंवैधानिक था। सुप्रीम कोर्ट ने दावा किया कि पोल बॉन्ड योजना चंदे को गुमनाम करके भारतीय मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है, जो संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है। वैसे, बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए इस इलेक्टोरल बॉन्ड पर सरकार को छोड़कर सबको कभी न कभी आपत्ति रही। 2019 में चुनाव आयोग ने भी कड़ी आपत्ति की थी। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला गया तो इसने भी लगातार सवाल पूछे। विपक्षी पार्टियाँ गड़बड़ी का आरोप लगाती रहीं। चुनाव सुधार से जुड़े लोग इसको पीछे ले जाने वाला क़दम बताते रहे। 

आदिश अग्रवाल ने पत्र में तर्क दिया है कि जब चंदा दिया गया था तब चुनावी बॉन्ड योजना कानूनी और वैध थी। उनका तर्क है कि दानदाताओं, जिनमें कॉर्पोरेट संस्थाएं शामिल हैं, ने भारत की सरकार और संसद द्वारा प्रदान की गई वैध व्यवस्था का पालन किया।

उन्होंने कहा, '22,217 चुनावी बॉन्ड जो विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा कॉर्पोरेट चंदा के माध्यम से विभिन्न कॉर्पोरेट संस्थाओं से प्राप्त किए गए थे, पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक थे। जिस दिन चंदा दिया गया था उस दिन वैध और कानूनी नियम का उल्लंघन करने के लिए किसी कॉर्पोरेट इकाई को कैसे दंडित किया जा सकता है? भले ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगा दी हो, यह रोक केवल संभावित प्रभाव से लागू होगी, पूर्वव्यापी रूप से नहीं। जब कोई कानूनी या संवैधानिक रोक नहीं थी, और जब स्पष्ट प्रावधान और संशोधित कानून थे जो कॉर्पोरेट संस्थाओं को योगदान देने में सक्षम बनाते थे, तो अब उन्हें कैसे दोषी ठहराया जा सकता है और दंडित किया जा सकता है।'
पत्र में कॉर्पोरेट दानदाताओं की पहचान और राजनीतिक दलों को उनके योगदान को उजागर करने पर अग्रवाल ने उत्पीड़न के ख़तरे की चेतावनी दी है जिसका सामना इन कॉर्पोरेट संस्थाओं को करना पड़ सकता है।
इसके जवाब में इसके सचिव द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रस्ताव में एससीबीए कार्यकारी समिति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उन्होंने न तो किसी को ऐसा पत्र लिखने के लिए अधिकृत किया है और न ही वे उनके विचारों से सहमत हैं। इसने राष्ट्रपति मुर्मू को लिखे अग्रवाल के पत्र की स्पष्ट रूप से निंदा करते हुए इस कृत्य को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार को खत्म करने और कमजोर करने का प्रयास बताया है। इसने लिखा है, "पूरा सात पेज का पत्र, ऑल इंडिया बार एसोसिएशन के लेटरहेड पर लिखे जाने के बाद ऐसा लगता है कि इसे डॉ. आदिश अग्रवाल ने ऑल इंडिया बार एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में लिखा है। हालाँकि, यह देखा गया है उस पत्र पर अपने हस्ताक्षर के नीचे उन्होंने अन्य बातों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में अपने पदनाम का उल्लेख किया है। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की कार्यकारी समिति के लिए यह स्पष्ट करना ज़रूरी हो गया है कि समिति के सदस्यों ने उन्हें न तो राष्ट्रपति को ऐसा कोई पत्र लिखने के लिए अधिकृत किया है और न ही वे उसमें व्यक्त किए गए उनके विचारों से सहमत हैं।"
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यह हालिया घटनाक्रम एससीबीए के भीतर कलह को दिखाता है, क्योंकि यह पहली बार नहीं है कि अग्रवाल का कार्यकारी समिति के साथ मतभेद हुआ है। इससे पहले, एससीबीए अध्यक्ष ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर किसानों के चल रहे विरोध प्रदर्शन के बीच 'गलती करने वाले किसानों' के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई की मांग की थी और उनके कार्यों को 'राजनीति से प्रेरित' बताया था।

इसने एससीबीए कार्यकारी समिति के अधिकांश सदस्यों को एक प्रस्ताव जारी करने के लिए प्रेरित किया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि अग्रवाल ने समिति के सदस्यों के साथ किसी भी परामर्श के बिना एकतरफा पत्र लिखा था। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के करीब 150 वकीलों ने अध्यक्ष अग्रवाल को हटाने की मांग वाले एक प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी किये।

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