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समलैंगिक विवाह फैसले पर पुनर्विचार होगा या नहीं? 10 जुलाई को निर्णय

क्या समलैंगिक विवाह को मान्यता दिए जाने के फ़ैसले पर फिर से विचार होगा? इस पर 10 जुलाई को विचार किया जाएगा कि ऐसा किया जाए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच 10 जुलाई को बैठेगी और उन समीक्षा याचिकाओं पर विचार करेगी जिनमें समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की समीक्षा की मांग की गई है।

पिछले साल अक्टूबर में पाँच जजों की बेंच ने बहुमत से कहा था कि विधायिका को समलैंगिक विवाह लाने पर निर्णय लेना चाहिए। यानी संसद इस पर क़ानून बना सकती है। हालाँकि सभी पांच जज इस बात से सहमत थे कि शादी करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है और बहुमत के फ़ैसले में अदालत ने समलैंगिक विवाह के ख़िलाफ़ फैसला सुनाया। 

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इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने विवाह की समानता को वैध बनाने से इनकार कर दिया। लेकिन इसने इस बात पर जोर दिया कि किसी व्यक्ति के संबंध में जीने के अधिकार को सेक्सुअल ओरिएंटेशन के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। अदालत ने साफ़ कर दिया कि समलैंगिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इसके लिए इसने केंद्र और राज्यों को सख़्त निर्देश जारी किए। 

तब फ़ैसला सुनाते हुए सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने सरकार से कहा था कि उसे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के खिलाफ भेदभाव खत्म करना चाहिए। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिया जाता है कि समलैंगिक समुदाय के साथ भेदभाव नहीं हो, वस्तुओं और सेवाओं तक पहुंच में कोई भेदभाव नहीं हो। इसके साथ ही अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि सरकारें समलैंगिक अधिकारों के बारे में जनता को जागरूक करें, समलैंगिक समुदाय के लिए एक हॉटलाइन बनाएं, समलैंगिक जोड़ों के लिए सुरक्षित घर बनाएं, सुनिश्चित करें कि अंतर-लिंगीय बच्चों को ऑपरेशन के लिए मजबूर नहीं किया जाए।

उस बेंच में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड के अलावा संजय किशन कौल, रवींद्र भट्ट, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा थे। जस्टिस कौल और भट अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं और उनकी जगह जस्टिस संजीव खन्ना और बी नागरत्ना लेंगे। वे 10 जुलाई को चैंबर में समीक्षा याचिकाओं पर विचार करेंगे।
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5 जजों की बेंच ने 7 अक्टूबर, 2023 को चार अलग-अलग फैसलों में विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के प्रावधानों को रद्द करने या उसमें बदलाव करने से इनकार कर दिया था। 

इस फैसले को चुनौती देते हुए समीक्षा याचिकाओं में कहा गया है कि यह विरोधाभासी और स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि बहुमत का फैसला 'त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि यह पाया गया है कि भेदभाव के माध्यम से याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है और फिर भी प्राधिकारी भेदभाव को रोकने में विफल रहे हैं।

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क़मर वहीद नक़वी
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