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काश ! मोदी ने नेहरू को पढ़ा होता तो चीन... 

कहा जाता है राजनीति समझनी हो तो इतिहास को पढ़ना और उससे सबक लेने चाहिए। लेकिन भारत-चीन रिश्तों में जो चल रहा है, उसमें यह कहीं नज़र नहीं आ रहा कि हमने इतिहास से कोई सबक लिया है। हमारे नेता इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने में तो व्यस्त नज़र आते हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं की उन्होंने उनसे कुछ सबक भी हासिल किये हैं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 8 नवंबर, 1962, को संसद में प्रस्ताव रखा था जिसमें उन्होंने चीन के धोखे की बात कही थी। जवाहरलाल नेहरू ने कहा, ‘हम आधुनिक दुनिया की सचाई से दूर हो गए थे। हमने अपने लिए एक बनावटी माहौल तैयार किया और हम उसी में रहते रहे।’
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बनावटी हैं भारत-चीन रिश्ते?

नेहरू का यह बयान भारत-चीन रिश्तों के लिए अहम सन्देश देता है। इससे सवाल उठता है कि क्या हम आज भी बनावटी माहौल में जी रहे हैं? नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ एक 18 बार मुलाक़ात की। अहमदाबाद में साबरमती में झूला भी झुलाया, कई मुलाक़ात तो ऐसी कीं जिनका एजेंडा भी तय नहीं था।
शी जिनपिंग ने बयान भी दिया की भारत-चीन विवाद का अंत होगा और सब कुछ सुलझ जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और करीब 45 साल बाद दोनों देशों की सेनाओं के बीच ख़ूनी टकराव हुआ।  

1962 जैसे हालात?

ऐसा ही कुछ 1962 भारत-चीन युद्ध के पहले भी हुआ था। उस वक़्त भी हालात कमोबेश आज जैसे ही थे।
सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे, वे आज भी वैसे ही हैं। तब भी कुछ सैन्य विशेषज्ञ चीन से संभावित ख़तरों के लिए चेतावनी दे रहे थे। उन्हें उस समय भी नज़रअंदाज किया जा रहा था।
राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं तब भी जारी थीं। बल्कि उस दौर में तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे भी खूब गूंजा करते थे जैसा कि साबरमती के किनारे शी जिनपिंग के झूला झूलते हुए एक बदला हुआ माहौल दिखाया जा रहा था। 

अमेरिका और क्यूबा

विदेशी कूटनीति का एक महत्वपूर्ण उदाहरण आपको राजनीति की बड़ी सीख दे सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक 2016 में जब क्यूबा की धरती पर उतरे थे तो पूरी दुनिया को आश्चर्य हुआ था। कारण जगजाहिर था। दोनों देशों के बीच टकराव और युद्ध। 50 सालों तक दोनों देशों के बीच कोई बातचीत नहीं थी। क्यूबा के क्रांतिकारी राष्ट्रपति फ़िदेल कास्त्रो, अमेरिका को अपना नंबर एक दुश्मन मानते थे।
दोनों देशों में टकराव था, विचारधारा को लेकर। बताते हैं कि अमेरिका ने फ़िदेल कास्त्रो की हत्या के कई प्रयास किये थे, लेकिन सफल नहीं हो सके। उम्र होने के बाद फ़िदेल ने कुर्सी छोड़ दी और उनके भाई राउल कास्त्रो नए राष्ट्रापति बन गए।  

क्या कहा था ओबामा ने?

ओबामा ने क्यूबा में जाकर वहाँ के लोगों तथा देश की बहुत प्रशंसा की। यह सुनकर फ़िदेल कास्त्रो जो सत्ता से दूर बैठे थे एक बयान जारी किया, ‘अमेरिका का क्यूबा को लेकर जो प्रेम उमड़ कर आया है उसे देख क्यूबा की जनता को हार्ट अटैक आ जाएगा।’
फ़िदेल अनुभवी नेता थे, उनके एक लाइन के बयान से ओबामा की सारे प्रयासों पर पानी फिर गया।
हमारे देश के नेता यदि नेहरू की क़ब्र खोदने की बजाय चीन से हार के बाद के उनके बयान की गंभीरता ही समझ लेते तो चीन के नेताओं से गलबहियाँ करने से पहले एक बार ज़रूर सोचते।

1962 भारत-चीन युद्ध

1962 भारत-चीन युद्ध क्यों हुआ, इसको लेकर 50 सालों में अनेक पुस्तकें लिखी गयी हैं। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने ‘इण्डिया आफ्टर गांधी’ नामक अपनी किताब में इस युद्ध का कारण 1958 में पूर्वी तिब्बत के सशत्र विद्रोह और दलाई लामा को बताया है।
दलाई लामा ने भारत में शरण लेने का मन बनाया और भारत उन्हें शरण देने को तैयार हो गया। नेहरू से मिलकर दलाई लामा ने उन्हें खम्पा विद्रोह के बारे में जानकारी दी। 
नेहरू ने दलाई लामा को बताया कि भारत तिब्बत की आज़ादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता। नेहरू ने यह भी कहा कि ‘सारी दुनिया मिलकर भी तिब्बत को आज़ाद नहीं करवा सकती जब तक कि चीन ख़ुद पूरी तरह नष्ट न हो जाए।’

तुम्हीं से व्यापार, तुम्हीं से लड़ाई!

तिब्बत आज तक आज़ाद  नहीं हुआ और दलाई लामा आज भी हमारे देश में शरणार्थी हैं। चीन को हराने के लिए जिस कूटनीति की ज़रूरत है, उसे विकसित करना होगा।
एक तरफ हम चीन से मु़क़ाबला करना चाहते हैं, दूसरी तरफ उसे व्यापार ही नहीं, बड़े बड़े ठेके देने की खुली छूट देकर उसे आर्थिक रूप से मजबूत कर रहे हैं। ये दोनों कैसे संभव हैं?
चीन अपनी आर्थिक ताक़त के दम पर हमारे पड़ोसी देशों को भी एक-एक कर अपने पक्ष में करता जा रहा है। नेपाल आज उसके दम पर भारत से अपने रिश्ते बिगाड़ रहा है और हमारा पुराना शत्रु पाकिस्तान तो बहुत पहले से उसे गले लगाये हुए है। ऐसे में नयी कूटनीति की जरूरत है। 
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संजय राय
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