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विधि आयोग ने 2018 में यूसीसी को 'खारिज' क्यों कर दिया था?

भारत में सभी समुदायों के लिए एक समान नागरिक कानून इस स्तर पर न तो ज़रूरी है और न ही वांछनीय। यह निष्कर्ष विधि आयोग ने 2018 में निकाला था। उसने यही परामर्श दिया था और इस सुझाव को खारिज कर दिया था कि यह देश में एक समान नागरिक संहिता का समय है।

2018 वाले उस विधि आयोग की सिफ़ारिश से अलग इस बार माहौल बदला हुआ है। दरअसल, कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस रितु राय अवस्थी के नेतृत्व वाले विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता के लिए दोबारा से राय मांगी है। प्रधानमंत्री मोदी ने खुद मध्य प्रदेश में यूसीसी की जोरदार वकालत की है। बीजेपी नेता और समर्थक पूरे जोश से इसकी पैरवी कर रहे हैं। माना जा रहा है कि इस मानसून सत्र में इससे जुड़ा विधेयक पेश किया जाएगा। लेकिन क्या यह इतना आसान है? यदि ऐसा है तो बीजेपी नेता और कानून व न्याय पर संसदीय समिति के अध्यक्ष सुशील मोदी ने क्यों सुझाव दिया है कि आदिवारियों को यूसीसी से बाहर रखा जाना चाहिए? आख़िर ऐसी क्या-क्या दिक्कतें आने वाली हैं?

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इन सवालों का जवाब पिछले 2018 में विधि आयोग को मिले सुझावों और उसके परामर्श से मिल सकता है। पाँच साल पहले विधि आयोग ने अपना तीन साल का कार्यकाल समाप्त होने से कुछ घंटे पहले पेपर जारी किया था। केंद्र ने तब उससे भी दो साल से अधिक समय पहले आयोग से यह जांच करने के लिए कहा था कि क्या विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों पर एक समान संहिता लाने का समय आ गया है।

जून 2016 में कानून मंत्रालय ने आयोग को एक संदर्भ भेजकर 'समान नागरिक संहिता के संबंध में मामलों' की गहन जांच करने के लिए कहा था और यह भी पूछा था कि क्या इसे लाने का समय आ गया है। इसके बाद आयोग ने इस मुद्दे पर टिप्पणियों और सुझावों के लिए राजनीतिक दलों, धार्मिक समूहों और बड़े पैमाने पर जनता से प्रतिक्रिया मांगी थी।

तब आयोग ने जोरदार ढंग से 'ना' में जवाब दिया था। तब उसने इस पर जोर दिया था कि 'पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव करने वाले कानूनों से निपटना ज़्यादा महत्वपूर्ण है'। आयोग ने कहा था, 'इसलिए इस आयोग ने समान नागरिक संहिता प्रदान करने के बजाय भेदभावपूर्ण क़ानूनों से निपटा है। समान नागरिक संहिता इस स्तर पर न तो ज़रूरी है और न ही वांछनीय।'
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बीएस चौहान की अध्यक्षता वाले पैनल ने 2018 में कहा था कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा बहुत बड़ा है और इसके संभावित प्रभावों की भारत में पड़ताल नहीं की गई है।

तब न्यायमूर्ति चौहान के पैनल ने कहा था कि किसी देश में विभिन्नता का अस्तित्व ही भेदभाव नहीं है, बल्कि एक मज़बूत लोकतंत्र का संकेत है। पैनल ने कहा था, अधिकांश देश विविधता को पहचानने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

विधि आयोग ने अगस्त 2018 में नागरिक क़ानून के सुधार के लिए सिफारिश की थी और तमाम धर्मों के पर्नसल लॉ में बदलाव का सुझाव दिया था। 

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तब कुछ ऐसे सुधार के सुझाव थे

  • पिछले लॉ कमीशन ने तीनों मुख्य धर्म हिंदू, मुस्लिम और क्रिश्चियन से संबंधित पर्सनल लॉ में बदलाव के लिए पक्षकारों से पक्ष जानने के लिए जानकारी मांगी थी। 
  • लॉ कमिशन ने कहा था कि लिव इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चे को पिता की संपत्ति में अधिकार देने के लिए कानून की दरकार है। लड़का और लड़की की शादी की उम्र एक की जानी चाहिए। 
  • बहुविवाह मामले में लॉ कमिशन ने कहा था कि एक आदमी जब कई महिलाओं से शादी करता है तो आईपीसी की धारा-494 के तहत अपराध है। बहु विवाह मामला चूंकि सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है ऐसे में उस मामले में हम सिफारिश नहीं करेंगे।
  • लॉ कमिशन ने कहा था कि स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत दो अलग-अलग धर्म के लोग भी शादी कर सकते हैं। इसके लिए 30 दिनों के नोटिस पीरियड का प्रावधान है। जोड़ों पर ख़तरे को देखते हुए लॉ कमिशन ने सुझाव दिया था कि 30 दिन की अवधि को कम किया जाए।
  • लॉ कमिशन ने कहा था कि महिलाओं को तलाक के बाद घर की संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलना चाहिए।

यूसीसी सत्तारूढ़ भाजपा का लंबे समय से चुनावी वादा और वैचारिक रुख रहा है, लेकिन कई अल्पसंख्यक समूहों ने इसका विरोध किया है। वे इसे अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को मिटाने के प्रयास के रूप में देखते हैं।
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क़मर वहीद नक़वी
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