कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन के बीच प्रवासी मज़दूरों का संकट बड़े मानवीय संकट के रूप में आया। दिल को झकझोर देने वाली तसवीरें और वीडियो आए। संकट से जुड़े मामले हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में पहुँचते रहे। मद्रास, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक से लेकर गुजरात के हाई कोर्टों ने सरकारों और अधिकारियों से तीखे सवाल किए। उन्हें स्थिति सुधारने के निर्देश दिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जब यही मामले गए तो हाई कोर्ट की तरह स्थिति नहीं दिखी।
लॉकडाउन के बीच लाखों भूखे लोग सड़कों पर पैदल निकले। लोग दिन-रात भूखे प्यासे चलते रहे। कई लोगों के मरने की ख़बरें आती रहीं। बच्चों की ट्रॉली पर लेटकर जाती हुई तसवीरें दिखीं। राज्यों की सीमाओं पर हज़ारों लोगों की भीड़ लगी रही। इस संकट को लेकर कई अदालतों में याचिकाएँ लगाई गईं। हालाँकि अधिकांश मामले जनहित याचिकाओं से जुड़े हैं, लेकिन उच्च न्यायालयों ने कुछ महत्वपूर्ण मामलों का ख़ुद ही संज्ञान भी लिया। ऐसी स्थिति को देखकर हाई कोर्ट ने प्रवासी मज़दूरों के संकट को मानवीय संकट तक कह दिया। उनके सीमित कामकाज के बावजूद उच्च न्यायालय महामारी से निपटने को लेकर सरकार से सवाल कर रहे हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ख़ुद को इससे अलग रखता रहा।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और संविधान के जानकार फाली एस नरीमन ने भी ऐसे ही आरोप लगाए हैं। उन्होंने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में एक लेख लिखकर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने पैदल चल रहे प्रवासी मज़दूरों को यातायात मुहैया कराने के मुद्दे पर तीन अलग-अलग आदेशों में सरकार को कोई भी निर्देश देने से इनकार कर दिया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि मानवीय सहायता मुहैया कराने के लिए राज्यों को निर्देश देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान नहीं लिया।
वह लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उस विशेष क़ानून पर विचार करने में विफल रहा है जिसे संसद ने 1979 में प्रवासी मज़दूरों की नौकरी और उनकी स्थिति को रेगुलेट करने के लिए बनाया था। इसमें कहा गया था कि प्रवासी मज़दूर राज्य के संरक्षण के योग्य उत्पीड़ित व्यक्तियों का एक वर्ग है जहाँ वे कार्यरत हैं।
प्रवासी मज़दूरों पर उच्च न्यायालय
तमिलनाडु से लगने वाली महाराष्ट्र सीमा पर हिरासत में लिए गए 400 से अधिक प्रवासी कामगारों की सुरक्षित वापसी की याचिका पर मद्रास उच्च न्यायालय ने 15 मई को सुनवाई की। कोर्ट की एक खंडपीठ ने राज्य और केंद्र सरकार से 12 सवाल पूछे कि लॉकडाउन के बाद उपजे प्रवासी संकट से वे कैसे निपट रही थीं।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा, ‘पिछले एक महीने से मीडिया में दिखाए गए प्रवासी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को देखकर कोई भी अपने आँसुओं को रोक नहीं सकता है। यह मानवीय त्रासदी के अलावा और कुछ नहीं है।’ कोर्ट ने जो सवाल पूछे वे थे- कितने प्रवासी फँसे हुए थे या हाइवे पर चल रहे थे, उनको घर पहुँचाने के लिए क्या क़दम उठाए जा रहे थे। कोर्ट ने इन पर आँकड़े भी माँगे थे।
उसी दिन आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने राज्य में फँसे प्रवासियों की सुरक्षा के लिए हस्तक्षेप की माँग करने वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई की।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि प्रवासियों की दुर्दशा पर प्रतिक्रिया नहीं दी तो अदालत ‘अपनी भूमिका में विफल हो जाएगी’। तब अदालत ने प्रवासियों का पता लगाने और उनके लिए भोजन, आश्रय गृह और यात्रा व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए सरकार को कई दिशा-निर्देश दिए।
प्रवासी मज़दूरों पर सुप्रीम कोर्ट
उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी संकट पर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया। याचिका में फँसे हुए प्रवासियों की पहचान करने और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने की माँग की गई थी। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के अनुसार, तीन न्यायाधीशों वाली पीठ का नेतृत्व करते हुए जस्टिस नागेश्वर राव ने कहा, ‘लोग चलते जा रहे हैं और वे रुक नहीं रहे हैं। हम इसे कैसे रोक सकते हैं?’ फिर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह राज्यों पर है कि वे स्थिति से निपटें।
पीपीई किट पर निर्देश
अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, इसी सप्ताह बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि सभी साइज़ के पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) फ्रंटलाइन श्रमिकों तक तुरंत पहुँचाई जाएँ। मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार को इस पर स्टेटस रिपोर्ट देने का निर्देश दिया कि वह कैसे यह सुनिश्चित कर रही है कि प्रवासी श्रमिक रेलवे स्टेशनों पर पहुँचें और कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल सरकार को संकट से निपटने के प्रयासों पर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया।
रेल किराया विवाद
श्रमिक एक्सप्रेस ट्रेनों में घर लौटने के लिए टिकट देने वाले प्रवासियों का मुद्दा अभी भी कर्नाटक उच्च न्यायालय के रोस्टर में है। 18 मई को मुख्य न्यायाधीश अभय ओका की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्य सरकार से स्पष्ट करने को कहा कि टिकट के लिए कौन भुगतान कर रहा है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के अनुसार, केंद्र सरकार ने कहा कि गंतव्य वाले कुछ राज्यों ने अपने लोगों की यात्रा के लिए भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की है, अन्य मामलों में प्रवासियों ने ख़ुद से भुगतान किया है। हालाँकि, अदालत इससे संतुष्ट नहीं थी और उसने कहा कि इस तरह के वर्गीकरण से प्रवासी कर्मचारी के समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा, जिनके गृह-राज्य उनके किराया का भुगतान नहीं करेंगे।
5 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका में उसी मुद्दे पर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। इसने कहा कि शीर्ष अदालत को यह तय नहीं करना है कि रेल किराया कौन देता है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के बयानों को रिकॉर्ड करते हुए अदालत ने कहा, ‘श्रमिकों से रेलवे टिकटों की 15 प्रतिशत राशि वसूल करना, यह कोर्ट के लिए नहीं है कि अनुच्छेद 32 के तहत कोई आदेश जारी करे। राज्य/रेलवे संबंधित दिशा-निर्देशों के तहत आवश्यक क़दम उठाएँ।’ कोर्ट ने यह तब कहा था जब तुषार मेहता ने कहा था कि ‘प्रवासियों द्वारा कितनी राशि एकत्र की जा रही है, इस पर कोई बयान नहीं दिया जा सकता है।’
बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी वारले ने 20 मई को समाचार पत्रों की डिलीवरी के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र सरकार के परिपत्र का संज्ञान लिया। गुजरात उच्च न्यायालय ने निजी अस्पतालों द्वारा कोविड रोगियों के उपचार में अस्पताल में बढ़ाए गए भर्ती शुल्क का स्वत: संज्ञान लिया। अदालत ने कहा कि सरकार ने गुजरात में बराबरी सुनिश्चित नहीं किया है, जहाँ मामले पहले ही 12,000 को पार कर चुके हैं।
प्रवासी मज़दूरों के पक्ष में कर्नाटक हाई कोर्ट के जज़ों के मानवीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए फाली एस नरीमन ने अपने लेख में तो सैल्यूट किया।
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