मजबूर प्रवासी मज़दूर!
इस चिट्ठी में कहा गया है कि लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र के मज़ूदरों की रोज़ी-रोटी छिन गई, उनकी आय का कोई स्रोत नहीं रहा, उनके पास खाने-पीने का कुछ नहीं रहा, ऐसे में ये अपने कार्य स्थल को छोड़ सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गृह राज्य के लिए पैदल रवाना को मज़बूर हो गए।ऐसी स्थिति में अलख आोलक श्रीवास्तव ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इन मज़दूरों की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की तो सरकार ने अदालत में 31 मार्च को कहा, 'अपने घर जाने की कोशिश में कोई प्रवासी मज़दूर सड़क पर पैदल नहीं जा रहा है।'
इस पत्र में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने 31 मार्च को दिए एक फ़ैसले में सरकार की ओर से उठाए गए क़दमों पर संतोष जताया था।
जीने का अधिकार बेमानी
चिट्ठी में कहा गया है कि बाद में इन मज़दूरों को उनके गृह राज्य भेजने के लिए ट्रेन या बसें चलाई गईं तो उन्हें अपने राज्य की सीमा पर छोड़ दिया गया। वहां कई बार उनके साथ ऐसा व्यवहार किया गया मानो यह उनका देश नहीं है।
केंद्र की ज़िम्मेदारी
केंद्र सरकार ने एक आदेश से जारी किया और परिवहन बंद कर दिए, पूरे देश में सबकुछ बंद कर दिया। ऐसी स्थिति में मज़दूर फँस गए और उनकी स्थिति दयनीय हो गई।सुप्रीम कोर्ट को लिखी चिट्ठी में कहा गया है कि यह केंद्र और राज्य सरकारों का दायित्व है कि वे इन प्रवासी मज़दूरों को उनके घर तक पहुँचना सुनिश्चित करें। लेकिन इन ग़रीब मजदूरों की इस भयानक और दयनीय स्थिति में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई।
याचिका खारिज
इस चिट्ठी में यह भी कहा गया कि 15 मई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर दरख़्वास्त की गयी कि ज़िला मजिस्ट्रेटों को सड़क पर पैदल चल रहे इस तरह के मज़दूरों की पहचान करने, उन्हें खाने पीने के सामान देने और ठहरने का इंतजाम करने का आदेश जारी किया जाए। पर सर्वोच्च न्यायालय ने उस याचिका को खारिज कर दिया।इस ख़त में यह भी कहा गया है कि प्रवासी मज़दूरों का मुद्दा 'नीतिगत फैसला' नहीं है, यह संवैधानिक मुद्दा है। इन करोड़ों मज़दूरों के मौलिक अधिकारों का मुद्दा है। संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1) और 21 का यह उल्लंघन है।
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