व्यक्तिगत आज़ादी से ज़्यादा सामाजिक नैतिकता को ज़रूरी मानने वालों के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फ़ैसला झटका से कम नहीं है। कोर्ट की यह टिप्पणी लिव-इन संबंध को लेकर आई है। इसने कहा है कि लिव-इन संबंध जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं और इसे व्यक्तिगत स्वायत्तता के नज़रिए से देखने की ज़रूरत है न कि सामाजिक नैतिकता के। कोर्ट के इस फ़ैसले का मतलब है कि एक वयस्क किसके साथ रहना चाहता है वह ख़ुद तय कर सकता न कि उसके परिवार और सामाजिक नैतिकता।