व्यक्तिगत आज़ादी से ज़्यादा सामाजिक नैतिकता को ज़रूरी मानने वालों के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फ़ैसला झटका से कम नहीं है। कोर्ट की यह टिप्पणी लिव-इन संबंध को लेकर आई है। इसने कहा है कि लिव-इन संबंध जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं और इसे व्यक्तिगत स्वायत्तता के नज़रिए से देखने की ज़रूरत है न कि सामाजिक नैतिकता के। कोर्ट के इस फ़ैसले का मतलब है कि एक वयस्क किसके साथ रहना चाहता है वह ख़ुद तय कर सकता न कि उसके परिवार और सामाजिक नैतिकता।
अदालत की यह टिप्पणी योगी सरकार के उस रवैये के भी ख़िलाफ़ है जिसमें उसने एक अन्य मामले में कुछ दिन पहले ही अदालत में हलफनामा देकर कहा है कि 'यह माना हुआ तथ्य है कि सामुदायिक हित हमेशा व्यक्तिगत हित पर सर्वोपरि रहेगा'।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में ज़ाहिर तौर पर व्यक्तिगत आज़ादी को तरजीह दी है। दरअसल, न्यायमूर्ति प्रीतिंकर दिवाकर और न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव की पीठ ने मंगलवार को दो लिव-इन जोड़ों की याचिकाओं का निपटारा करते हुए यह फ़ैसला सुनाया। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि दोनों मामलों में लड़कियों के परिवार वाले उनके दैनिक जीवन में हस्तक्षेप कर रहे हैं। 'बार एंड बेंच' की रिपोर्ट के अनुसार, इस मामले में पीठ ने कहा, 'लिव-इन संबंध जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित हैं।'
कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप को सामाजिक नैतिकता की धारणाओं के नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए। इसके बजाय भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दी गई जीवन के अधिकार की गारंटी में निहित व्यक्तिगत स्वायत्तता के नज़रिए से देखा जाना चाहिए।
अदालत ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार हर क़ीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए।
अदालतें भले ही संविधान, स्वतंत्रता के अधिकार और व्यक्तिगत आज़ादी पर जोर देती रही हैं, लेकिन सरकारें किसी न किसी तरह इस पर आपत्ति जताती रही हैं।
वैसे, अक्सर देखा तो यह जाता रहा है कि ताक़तवर सरकारें नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकार को कमतर करने के प्रयास में रही हैं। इसके लिए तरह-तरह की दलीलें भी दी जाती हैं। ताज़ा मिसाल योगी सरकार की धर्मांतरण विरोधी क़ानून पर दी गई दलीलें हैं जिसमें कहा गया है कि सामुदायिक हित व्यक्तिगत अधिकार से ज़्यादा मायने रखते हैं।
योगी सरकार ने इसी हफ़्ते इलाहाबाद उच्च न्यायालय में यह दलील धर्मांतरण विरोधी अधिनियम का बचाव करते हुए रखी। अदालत 'लव जिहाद' क़ानून के तौर पर माने जाने वाले इस ग़ैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। इसी को लेकर योगी सरकार ने हलफनामा दायर किया है। हलफनामे में इसने कहा है कि धर्मांतरण विरोधी क़ानून जन हित की रक्षा के लिए है। इसमें इसने कहा है कि धर्मांतरण जबरन कराए जाने के मामले आ रहे हैं।
बता दें कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ही पिछले साल एक फ़ैसले में कहा था, ‘किसी के व्यक्तिगत रिश्तों में दख़ल देना उनकी आज़ादी में गंभीर अतिक्रमण होगा। महिला या पुरूष का किसी भी शख़्स के साथ रहने का अधिकार उनके धर्म से अलग उनके जीवन और व्यक्तिगत आज़ादी के अधिकार में ही निहित है।’ तब एक हिंदू और मुसलिम जोड़े को लेकर अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा था, ‘हम प्रियंका और सलामत को हिंदू और मुसलमान के रूप में नहीं देखते बल्कि दो ऐसे युवाओं की तरह देखते हैं जो अपनी इच्छा से जीना चाहते हैं और पिछले एक साल से ख़ुशी-ख़ुशी साथ रह रहे हैं।’
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