(यूँ तो यह आलेख सौ प्रतिशत सच्ची घटनाओं पर आधारित है लेकिन आज की युवा पीढ़ी इसे पढ़ेगी तो उसे यह कपोलकल्पित इसलिए लगेगा क्योंकि उसके इर्दगिर्द ऐसा कोई परिवेश नहीं है। शिक्षकों के बतौर अपने चारों ओर वह जिनसे घिरा है वह ऐसा 'गिरोह' है जो शिक्षा देने के अलावा बाक़ी सारे धंधों में मशग़ूल हैं। यह ज़्यादा पुरानी बात नहीं जब प्रत्येक छोटे-बड़े शहर और क़स्बे के हर विद्यार्थी के जीवन में एक न एक आरपी तिवारी होते थे जो उसकी सोच और व्यक्तित्व को सँवारने में विशेष और निःस्वार्थ भूमिका अदा करते। क्यों आज ऐसे शिक्षकों का अकाल है?)
शिक्षक दिवस: तिवारी जी, जो शेक्सपियर को मंच पर उतार देते थे
- शिक्षा
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- 5 Sep, 2020

अंग्रेज़ी साहित्य की क्लास लगनी थी। हम सभी नए थे, परिचय के हमारे शोर शराबे के बीच उन्होंने क्लास में एंट्री ली। सूटेड-बूटेड डॉ. तिवारी के व्यक्तित्व में न जाने ऐसी क्या आभा थी कि उनके भीतर घुसते ही सभी छात्र एकदम ख़ामोश हो गए। उन्होंने अपना परिचय दिया और बताया कि वह 'इंग्लिश पोइट्री' पढ़ाएँगे। वह अंग्रेज़ी ही बोल रहे थे।
डॉ. राजपति तिवारी जैसा अध्यापक मिलना हरेक छात्र के सौभाग्य में नहीं। उन्हें जानने वाले बहुसंख्य लोग सिर्फ़ उन्हें उनके अंग्रेज़ी नाम (डॉ. आरपी. तिवारी) से ही जानते हैं। वह आगरा के मशहूर ‘आरबीएस कॉलेज’ में लंबे समय तक अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के रिटायर हो जाने के बाद उन्होंने यह पद संभाला था।
उनसे मेरी सबसे पहली भेंट सन 74 की है। वह मेरे पिता के मिलने वाले थे। पिताजी राजनीतिक कारणों से उन दिनों फ़रारी जीवन बिता रहे थे। एक मुलाक़ात में उन्होंने मुझे एक 'बुकलेट' की कुछ प्रतियाँ देते हुए जिन 2-3 लोगों तक पहुँचाने के लिए कहा, उनमें तिवारी जी भी थे। शाम का धुंधलका उतर चुका था जब मैं ‘प्रोफ़ेसर कॉलोनी’ स्थित उनके आवास पर पहुँचा। पैंट-शर्ट, जूते-मोज़े में वह एकदम 'टिचिंग' बैठे थे। मैं समझ गया कि वह या तो कहीं से अभी-अभी आए हैं या कहीं जाने वाले हैं। (बाद में मुझे मालूम हुआ कि कुछ अपवादों को छोड़कर वह हमेशा ऐसे ही तैयार बैठे रहते हैं।) उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। उन्होंने मुझे बैठाया, मुझसे मेरी पढ़ाई-लिखाई की बाबत पूछताछ की, मेरे शौक़ और अभिरुचियों की पड़ताल की। उनकी आवाज़ भले ही पतली थी लेकिन थी काफ़ी तीखी। मुझे पहली ही भेंट में उनका पूरा व्यक्तित्व ख़ासा 'हावी' हो जाने वाला लगा, कॉलेज के एक 'टिपिकल' प्राध्यापक सरीका। मैं ख़ुद उस समय ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और कॉलेज के माहौल को ठीक से नहीं समझता था तो भी मैंने अंदाज़ लगाया कि ‘आरबीएस’ के 'तुम्मनखां लौंडे' भी उनसे जल्दी-जल्दा अटकने की जुर्रत न करते होंगे।