(यूँ तो यह आलेख सौ प्रतिशत सच्ची घटनाओं पर आधारित है लेकिन आज की युवा पीढ़ी इसे पढ़ेगी तो उसे यह कपोलकल्पित इसलिए लगेगा क्योंकि उसके इर्दगिर्द ऐसा कोई परिवेश नहीं है। शिक्षकों के बतौर अपने चारों ओर वह जिनसे घिरा है वह ऐसा 'गिरोह' है जो शिक्षा देने के अलावा बाक़ी सारे धंधों में मशग़ूल हैं। यह ज़्यादा पुरानी बात नहीं जब प्रत्येक छोटे-बड़े शहर और क़स्बे के हर विद्यार्थी के जीवन में एक न एक आरपी तिवारी होते थे जो उसकी सोच और व्यक्तित्व को सँवारने में विशेष और निःस्वार्थ भूमिका अदा करते। क्यों आज ऐसे शिक्षकों का अकाल है?)
डॉ. राजपति तिवारी जैसा अध्यापक मिलना हरेक छात्र के सौभाग्य में नहीं। उन्हें जानने वाले बहुसंख्य लोग सिर्फ़ उन्हें उनके अंग्रेज़ी नाम (डॉ. आरपी. तिवारी) से ही जानते हैं। वह आगरा के मशहूर ‘आरबीएस कॉलेज’ में लंबे समय तक अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के रिटायर हो जाने के बाद उन्होंने यह पद संभाला था।
उनसे मेरी सबसे पहली भेंट सन 74 की है। वह मेरे पिता के मिलने वाले थे। पिताजी राजनीतिक कारणों से उन दिनों फ़रारी जीवन बिता रहे थे। एक मुलाक़ात में उन्होंने मुझे एक 'बुकलेट' की कुछ प्रतियाँ देते हुए जिन 2-3 लोगों तक पहुँचाने के लिए कहा, उनमें तिवारी जी भी थे। शाम का धुंधलका उतर चुका था जब मैं ‘प्रोफ़ेसर कॉलोनी’ स्थित उनके आवास पर पहुँचा। पैंट-शर्ट, जूते-मोज़े में वह एकदम 'टिचिंग' बैठे थे। मैं समझ गया कि वह या तो कहीं से अभी-अभी आए हैं या कहीं जाने वाले हैं। (बाद में मुझे मालूम हुआ कि कुछ अपवादों को छोड़कर वह हमेशा ऐसे ही तैयार बैठे रहते हैं।) उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। उन्होंने मुझे बैठाया, मुझसे मेरी पढ़ाई-लिखाई की बाबत पूछताछ की, मेरे शौक़ और अभिरुचियों की पड़ताल की। उनकी आवाज़ भले ही पतली थी लेकिन थी काफ़ी तीखी। मुझे पहली ही भेंट में उनका पूरा व्यक्तित्व ख़ासा 'हावी' हो जाने वाला लगा, कॉलेज के एक 'टिपिकल' प्राध्यापक सरीका। मैं ख़ुद उस समय ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और कॉलेज के माहौल को ठीक से नहीं समझता था तो भी मैंने अंदाज़ लगाया कि ‘आरबीएस’ के 'तुम्मनखां लौंडे' भी उनसे जल्दी-जल्दा अटकने की जुर्रत न करते होंगे।
उन्हीं दिनों मैं एक राजनीतिक छात्र संगठन से जुड़ा था। एक विचार गोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में उन्हें आमंत्रित किया गया। दरअसल इस गोष्ठी में पहले शहीद भगतसिंह के साथी और सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा को आना था लेकिन किसी कारण से उनका आना स्थगित हो गया। पूर्व क्रांतिकारी और कालेपानी के सज़ायाफ़्ता ठाकुर रामसिंह कार्यक्रम के संयोजक थे और उन्हीं की सलाह पर छात्र संगठन संयोजक राजेंद्र शर्मा (इन दिनों सम्पादक 'लोकलहर') ने डॉ. आरपी तिवारी को आमंत्रित कर लिया। निश्चित समय पर तिवारी जी आए। राजेंद्र उस समय आरबीएस कॉलेज से हिंदी साहित्य में एमए कर रहे थे। इस नाते भी वह तिवारी जी से पहले से वाक़िफ़ थे। गोष्ठी का विषय क्या था, मुझे याद नहीं आ रहा है लेकिन इतना याद है कि वह किसी क्रांतिकारी की स्मृति से जुड़ा था-शायद भगत सिंह या कि चंद्रशेखर आज़ाद की।
अपने स्वागत उद्बोधन के बाद राजेंद्र ने ठाकुर रामसिंह को बोलने के लिए आमंत्रित किया। ठाकुर साहब अच्छे वक्ता तो नहीं ही थे, ग्रामीण पृष्ठभूमि होने के चलते शहरी आभिजात्य और बनावट से भी कोसों दूर थे। व्यक्तित्व में भी इतने सीधे-सादे और सपाट कि कई बार यह जान पाना ही मुश्किल हो जाता कि वह जो कह रहे हैं आख़िर कैसे कह पा रहे हैं। बहरहाल, उन्होंने बोलना शुरू किया। वह बताने लगे कि उनकी योजना तो आज के कार्यक्रम को बड़ा धुआंधार बनाने की थी और उन्होंने शिव वर्मा को बुलाया था लेकिन क्या बताएँ, शिव वर्मा की तबियत ही नासाज हो गयी।
"तब मैंने राजेन्द्र से कई के बई प्रोग्राम करना है तो किसी को तो बुलाना ही है तो तुम ऐसा करो, तिवारी जी को पकड़ लाओ। प्रोग्राम तो हो भलेई उत्ता अच्छा न हो। समजे साब, बई तिवारी जी तो हमारे लिए घर का जोगी हैंइ। वो कैते है न के घर का जोगी जोगना आन गाँव का सिद्ध।"
तिवारी जी के चेहरे पर नाराज़गी की हलकी सी लकीर दिखाई दे रही थी। उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। वह खड़े हुए।
"ठाकुर साब! न तो मैं घर का जोगी हूँ, न आन गाँव का सिद्ध हूँ।" कहते हुए उन्होंने शुरुआत में ही ठाकुर साहब पर ज़बरदस्त हमला बोला। “मुझे शिव वर्मा जी का विकल्प भी न बनाइए। वह हम सब के गर्व और गौरव हैं। आपने हाथी के सामने चुहिया के तौर पर मुझे बुलाया, इसका शुक्रिया।” काफ़ी देर तक उन्हें अच्छी तरह से ठिकाने लगाने के बाद वह मूल विषय पर आए। ठाकुर साहब तो बेचारे कहीं भी, कुछ भी बोल देने के लिए 'मशहूर' थे ही। मुझे ठाकुर साहब की बात में ऐसा कुछ नहीं लगा जिस पर इतना 'रिएक्ट' करने की ज़रूरत हो। मैं बचपन से उन्हें और उनके अबोधत्व से भली-भाँति परिचित था। उन्हें तिवारी जी के हाथों इस तरह अपमानित किया जाना अच्छा नहीं लगा। मुझे यह भी बड़ा अजीब लग रहा था कि उन पर हमला हो रहा था और वह इधर-उधर लोगों को देखकर हँस रहे थे। पहली विस्तृत मुलाक़ात में मुझे तिवारी जी का व्यक्तित्व बड़ा आपत्तिजनक लगा।
काफ़ी दिनों की मुलाक़ातों में मैंने महसूस किया कि तिवारी जी दरअसल ठाकुर साहब का न सिर्फ़ बहुत सम्मान करते हैं बल्कि उनसे बेइंतिहा प्रेम भी करते हैं। लोगों की टांग खिंचाई करना उनका शगल था और यह कला उन्होंने हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा से सीखी थी जिन्हें वह अपना उस्ताद मानते हैं।
यह सन पचहत्तर था। आपातकाल शुरू हो चुका था। बारहवीं पास करके मैंने 'आगरा कॉलेज' में दाखिले के लिए आवेदन किया था। 2 हफ्ते बाद 'कॉलेज' से चिट्ठी मिली कि मेरा ‘आवेदन रद्द किया जाता है।‘ पता किया तो जानकारी हुई कि छात्र राजनीति की गतिविधियों में संग्लग्न होने के चलते प्रशासन द्वारा भेजी गयी उस सूची में मेरा भी नाम दर्ज था जिन्हें दाखिला न देने की हिदायत थी। आगरा कॉलेज तब तक छात्र राजनीति का प्रमुख केंद्र था इसलिए प्रशासन ने वहाँ ख़ास तौर से इस तरह के इंतज़ाम किये थे। मुश्किल यह थी कि बाक़ी कॉलेजों में भी आवेदन फ़ॉर्म जमा करने की तारीख़ निकल चुकी थी।
मैं तिवारी जी से मिला। उन्होंने मुझे अगले दिन सुबह 10 बजे ‘कॉलेज’ के इंग्लिश डिपार्टमेंट में इंटर की मार्कशीट और हाई स्कूल के सर्टिफिकेट की फ़ोटो कॉपी के साथ आने को कहा। सप्ताह भर बाद निकली प्रवेश सूची में अपना नाम देख मैं बेहद ख़ुश था।
देसी स्कूलों के बच्चे और इंग्लिश
देसी स्कूलों के हिंदी माध्यम से बारहवीं पास करके निकले हम छात्र-छात्राओं को उनकी 10 फ़ीसदी इंग्लिश ही 'जोड़-तोड़' करके पल्ले पड़ रही थी। ग़नीमत यह थी कि पहले दिन उन्होंने 'पोएट्री पढ़ाई नहीं, सिर्फ़ किताब का नाम बताया जिसे हमें ख़रीद कर अगले दिन आना था। उन्होंने ब्लैक बोर्ड पर चॉक से अंग्रेज़ी महीनों के नाम वाले कुछ शब्द लिखे। हम लोगों से इन्हें ''प्रनाउन्स'' करने को कहा। शब्द निहायत सामान्य से थे जो हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सुबह से शाम तक न जाने कितनी बार बोलते रहते थे। उन्होंने बोर्ड पर लिखा- 'जे' 'यू' 'एल' 'वाई'। वह घूमें। अपनी गर्दन को एक साइड से दूसरी साइड घुमाकर उन्होंने हम लोगों के चेहरों की तरफ़ देखा।
हममें से आधे उनकी इंग्लिश सुनकर ‘बेहोश’ थे और आधे यह सोचकर अंदर ही अंदर काँप रहे थे कि 'हे भगवान्! क्या कॉलेज में सारी क्लासें अंग्रेज़ी में ही होंगी?' हमारे आतंक को शायद वह महसूस कर रहे थे।
"नाव प्रनाउन्स इट"
कुछ क्षणों के बाद उनके चेहरे पर हलकी सी मुस्कराहट उभरी। उनका पतला लेकिन तीखा स्वर क्लास में गूंजा "नाव प्रनाउन्स इट।" उन्होंने क्लास में मौजूद किसी लड़की को नहीं टोका लेकिन वह लड़कों को एक-एक करके अपने बाँये हाथ की अंगुली से इशारा करके उठाते रहे। 'जुलाई' और 'जूलाई' से लेकर 'जौलाई' तक, क्लास में उच्चारणों की बाढ़ आती- जाती रही और हर बार वह गर्दन झटकते, ज़बान टेढ़ी करके बोलते रहे "नो।" अंत में परमवीर चक्र विजेता के भाव से उन्होंने स्वयं पुकारा "इट्स जुलाय!" 'ला' को लम्बोदर स्वर देते हुए आई उनकी ऊँची आवाज़ सुनकर पूरी क्लास ध्वस्त हो गयी। इसके बाद उन्होंने लिखा 'नवंबर' और सबसे हारी मनवाकर अंत में बोले “इट्स नोवेम्ब!", 'आर' वह पूरा खा ही गए। इसी तरह "ऑक्टूब..","ऑगस्ट।"
45 मिनट की क्लास में वह बॉल पर बॉल फेंकते रहे, पूरी क्लास को क्लीन बोल्ड करते रहे। अंत में अपनी बॉल पर ख़ुद ही सिक्सर लगाकर वह इस कोने से उस कोने तक फैली क्लास पर वैसी ही संक्षिप्त सी मुस्कान फेंकते जैसे कामयाब बैट्समैन अपने बैट की टक्कर खाकर आसमान छूने भागती बॉल को 90 डिग्री पर गर्दन ले जाकर देखता है और तब उसके शोख़ चेहरे पर एक विजयी मुस्कान क़ाबिज़ हो जाती है। इस बीच देर से पहुँचने वाले छात्र क्लास के दरवाज़े पर पहुँच कर 'मे आई कमिन सर' की गुहार लगाते रहे, वह बिना उनकी ओर देखे, हिकारत भरे स्वर में "नो" कहते रहे। मुझे नहीं लगता है कि उन्होंने जीवन भर अपनी क्लास में किसी 'लेट-लतीफ़' को कभी घुसने की इजाज़त दी हो।
तिवारी सर का यह 'उच्चारण पुराण' शुरू के सप्ताह भर चला। उनके "नो" में उपेक्षा का भाव नहीं था। हम लोगों को लगने लग गया कि वह हमें ज़लील करने के भाव से "नो" नहीं कहते। बस वह मज़े ले-लेकर हमारे साथ 'प्रोनन्सिएशन-प्रोनन्सिएशन' खेलते रहे, वैसे ही जैसे कोई 'कबड्डी-कबड्डी' खेलता है। इसे खेलने में अब हम लोगों को भी मज़ा आने लगा था। अब वह लड़कियों को भी खड़ा करते रहे। उनके और इंग्लिश के प्रति व्याप्त हमारे भीतर का आतंक सप्ताह भर में लगभग आधा हो गया था। उनकी क्लास में 95 फ़ीसदी छात्रों की उपस्थिति होने लगी थी।
इन्हीं क्लासों में किसी एक दिन उन्होंने हम लोगों को उच्चारण सुधारने के लिए ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकेशन की 'एडवांस लर्नर्स' डिक्शनरी ख़रीदने की सलाह भी दी। हममें से बहुतों ने उसे ख़रीदा भी। मैं यह दावा तो नहीं कर सकता कि विदेशी भाषा होने के चलते मेरा अंग्रेज़ी का उच्चारण आज पूरम्पूर शुद्ध है लेकिन इतना तय है कि इसे सीख कर 'शुद्ध' बनाने की चेतना और कोशिश अभी भी बदस्तूर जारी है और इसका सारा क्रेडिट तिवारी जी को ही जाता है। आज जब पलट कर पीछे देखता हूँ तो चाहकर भी 'काउंट' नहीं कर पाता कि उन्होंने मुझ जैसे न मालूम अपने कितने छात्रों में यह चेतना डाली होगी! शायद सैकड़ों में या शायद हज़ारों में। यही वजह है कि देश के दर्जनों विश्वविद्यालयों सहित अंग्रेज़ी भाषा के अनेक संस्थानों में आज उन्हीं के शिष्य एचओडी हैं।
‘पोएट्री’ की क्लास
अगले हफ़्ते उन्होंने ‘पोएट्री’ पढ़ानी शुरू की। उन्होंने शुरू में ही कहा कि किसी पोएट्री का असली मज़ा उसके मूल भाव में ही है। अनुवाद या व्याख्या उसके भाव को क्षीण करते चले जाते हैं। उन्होंने रहीम के कुछ दोहे तथा ग़ालिब के एक दो शेर सुनाये। फिर उनका आसान हिंदी में अनुवाद किया। सचमुच अनुवाद करते ही जैसे रचनाओं के प्राण निकल जाते हैं। किसी अंग्रेज़ रचनाकार (शायद रॉबर्ट फ्रॉस्ट) को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा "ही सेज़, टू इन्टरप्रेट द पोएट्री इज़ टू किल द पोएट्री!" इसके बाद वह बड़ी नाटकीय मुद्रा में हम सभी को देखते रहे और फिर गर्दन मोड़कर आहिस्ता से ब्लैक बोर्ड की तरफ़ मुड़ते हुए बोले "एनीवे! आइल ट्राई तो किल द पोएट्री।"
शेक्सपियर की 'ट्रयू लव'
उन्होंने पोएट्री की किताब खोली। सबसे पहली कविता शेक्सपियर की 'ट्रयू लव' (सच्चा प्यार) थी। उन्होंने बताया कि यह महान कवि की विश्वप्रसिद्ध 'सॉनेट' है। उन्होंने सॉनेट की मीमांसा की। वह ब्लैक बोर्ड के आगे-पीछे नाच-नाच कर शेक्सपियर पढ़ा रहे थे। उन्होंने सॉनेट की पहली लाइन पढ़ी। वह फिर व्याख्या करने लग गए- ‘लेट्स नॉट क्रिएट इम्पिडिमेंट्स बिटवीन टू सिंसियर लवर्स!’ उन्होंने युवा अवस्था के प्रेमी जीवन और उसमें डाले जाने वाली अड़चनों का विस्तृत विवरण दिया। व्याख्या करते-करते वह जैसे कहीं डूब गए। हममें से ज़्यादातर के किशोर और युवा मन के भीतर प्रेम की छोटी-बड़ी लकीरें और उसमें पड़ने वाले व्यवधानों की गहरी खटास अभी भी मौजूद थी। उनके साथ-साथ हम भी डूबने- उतराने लग गए।
वह शेक्सपियर को पढ़ा रहे थे। उन्हें पढ़ाते-पढ़ाते वह सूरदास को पढ़ाने लग जाते। वह मीर तक़ी ‘मीर’ पर आ जाते, फिर फ़िराक़ गोरखपुरी की सवारी गाँठते हुए ग़ालिब पर चढ़ जाते। लौट कर वह फिर शेक्सपियर के उसी छोर को पकड़ लेते जो कुछ देर पहले उन्होंने छोड़ा था।
वह हर नए (और हम लोगों के लिए अनजान लगने वाले) शब्दों को ब्लैक बोर्ड पर लिखते जाते। उनका कोट और पैंट चॉक के पाउडर से सफ़ेद होता जाता था। वह जैसे शहीदी भाव से उसे हथेली से झाड़ते रहते। हिन्दी मीडियम से इंटरमीडिएट पास करके आए हम छोटे-छोटे युवाओं के मन-मस्तिष्क पर वह अपनी 'फन्ने खां' अंग्रेज़ी की घुड़सवारी कर रहे थे। वह हमारे चारों ओर साहित्य का, प्रकृति का, प्रेम का, मानवीय संवेदनाओं का, परिकल्पनाओं का और सपनों का बेहद महीन जाल बुनते जाते थे और हम सब उस जाल में पूरी तरह से उलझते जाते। इस जाल से बाहर निकलने की हमारी न तो कोई इच्छा होती और न हम निकलने की कोई कोशिश ही करते।
इस तरह 3 दिन तक हमारी क्लास में शेक्सपियर हम लोगों को अपनी मौजूदगी का सघन अहसास करते रहे। बीच-बीच में हम लंदन चले जाते। वहाँ 'ग्लोब थिएटर' के गेट पर शेक्सपियर की बेटी सुसाना हमारा स्वागत करती। वह हमें सबसे आगे वाली क़तार में ले जाकर बैठा देती। बिना टिकट! सरिता, मंजू, अंजू, लता-सब आपस में खुसुर-पुसुर करने लग जातीं कि वैसे तो उनके पापा बहुत अच्छे हैं पर काश कि पिता के रूप में उन्हें शेक्सपियर मिले होते तो वे भी पिद्दी-सिकुड़ी सी न होकर सुसाना की तरह हृष्ट पुष्ट होतीं। सुधीर इतना बदमाश निकलेगा, किसी को अंदाज़ा नहीं था, सुसाना को 'फ्लर्ट' करने में जुट जाता।
शेक्सपियर और ‘थम्स अप’!
स्टेज की साइड विंग में खड़े शेक्सपियर हमारी तरफ़ देखकर मुस्कराते और हमें ‘थम्स अप’ करते। हम भी हवा में अपना अँगूठा लहरा कर 'चीयर अप' करते। कभी हम 'ट्वेल्थ नाइट' के दर्शक होते तो कभी 'ओथलो' के। 'मेकबेथ' के अँगने में बहती ख़ून की मुसलसल दरिया देखकर सरिता गर्ग बेहोश हो गई। एक बार अचानक 'मर्चेंट ऑफ़ वेनिस' की स्टेज से नीचे उतर कर शाइलॉक हमारे पास चला आया। उसने मेरा गिरेबान थाम लिया और मेरे गोश्त की पैमाइश करने लग गया। बड़ी मुश्किल से मैंने पिंड छुड़ाया। 'थिएटर' से बाहर निकलते समय तिवारी सर ने बताया कि शाइलॉक इन दिनों अक्सर लंदन 'स्ट्रीट' छोड़कर बिहार, यूपी, आंध्र और तमिलनाडु के गाँवों के दौरे पर चला आता है और वहाँ के ग़रीबों, दलितों का गोश्त छीलने लग जाता है।
एक दिन आँखें तरेर कर भुजंग हैमलेट ठीक हमारे सामने आ खड़ा हुआ और चीख़ कर हमीं से सवाल करने लग गया- ‘मेरे पिता को किसने मारा?’ हम बेगुनाह थे! विंग में खड़े शेक्सपियर से हाथ जोड़ कर इशारों-इशारों में हमने सफ़ाई दी- हमने किसी को नहीं मारा सर और न हमने किसी को किसी का मर्डर करते देखा ही है! हैमलेट के सवाल सुनकर हम थर-थर काँप रहे थे कि तभी न जाने कहाँ से तिवारी सर आ गए। बड़े स्नेह के साथ उन्होंने हमारे कंधों पर हाथ रखा और हमारी अंगुली थाम कर हमें 'ट्र्यू लव' की प्रेम गली में वापस लौटा लाए।
सचमुच हमारी सूखी ज़िंदगी में ये 3 दिन बसंत-बहार बनकर आए थे। हमारे इर्द-गिर्द शेक्सपियर की साक्षात उपस्थिति के दिन। हम उन्हें देख सकते थे, हम उन्हें महसूस कर सकते थे, उनका गाउन, उनका विग, उनकी स्टिक, उनकी पूरी-पूरी प्रॉप्स- हम उन सब का स्पर्श कर सकते थे। 3 दिन में शेक्सपियर हमारे ‘क्लोज़ फ़्रेंड’ बन चुके थे। अरविन्द चौहान जैसे कइयों के तो वह सपनों में भी आने लगे थे! रात में और दिन में भी। इसके बाद पूरे साल एक-एक करके शैली, कीट्स, ब्रायन, मिल्टन, टॉमस ग्रे, विलियम वर्डस्वर्थ, जॉन क्लेअर और दूसरे ढेर से कवि हमें सोते-जागते, सपनों में छेड़ते रहे।
इस तरह सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी का यूरोप हमारे सामने एक-एक करके अपना रोज़नामचा लेकर हाज़िर होता रहा और हम! ‘फिसड्डी’ देसी स्कूलों के 'मास्साबों' और 'भैनजियों' की हरी संटियों की मार खा-खाकर सयाने हुए लड़के-लड़कियाँ, एक-एक करके इन रोज़नामचों पर अपना इक़बालिया बयान दर्ज़ कराते रहे।
आपातकाल ख़त्म होने पर पिताजी का वॉरंट वापस हुआ और वह घर लौटे। उनके आने के बाद तिवारी जी भी अब हमारे यहाँ गाहे-बगाहे आने लगे। वह पिताजी का बड़ा सम्मान करते थे। अस्सी का दशक आते-आते तिवारी जी के साथ मेरे रिश्तों का स्वरूप बदलता गया। अब वह मुझसे दोस्ताना रिश्ते रखने लगे थे। उनको लेकर मेरे भीतर जो अध्यापकीय बोध था, वह आहिस्ता-आहिस्ता कम होने लगा। अक्सर उनके घर पहुँचता तो मुझे लेकर कभी वह दिल्ली गेट के बाबू भाई के ढाबे पर चाय पीने को लिवा लाते या कभी मन होता तो गोवर्धन होटल की चाय गैलरी में जा बैठते। उनके पास गपशप करने को सैकड़ों मुद्दे होते। मैं भी अपने सवालों के साथ वहाँ मौजूद रहता। उनके और भी कई चेले थे, वह उन सब से भी बड़ा स्नेह मानते। उन लोगों के कॅरियर को लेकर वह बड़े सचेत रहते। मैंने रंगकर्म के साथ पत्रकारिता भी शुरू कर दी थी। वह मेरी दोनों गतिविधियों में गंभीरता से रूचि लेते थे।
‘आरबीएस कॉलेज’ में शिक्षकों और प्रबंधन में कभी नहीं बनी। शिक्षकगण लोकतांत्रिक आन्दोलनों से जुड़े हुए थे। 'आगरा विश्वविद्यालय शिक्षक संघ' (औटा) की मुख्य गतिविधियों का केंद्र था ‘कॉलेज’। तिवारी जी यद्यपि 'औटा' में किसी पद पर कभी नहीं रहे लेकिन इसकी गतिविधियों के प्रति वह बहुत गंभीर रहते थे। दूसरी तरफ़ 'कॉलेज' के प्रबंधन पर ज़्यादातर सामंती तत्वों का क़ब्ज़ा रहा। ये गिने-चुने लोगों का कॉकस था जो शिक्षकों की इन गतिविधियों को नापसंद करता था। कुछेक बार शिक्षकों ने इनके भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने जुझारू आंदोलनों से इस प्रबंधन को भंग करवा कर वहाँ सरकार का नियंत्रक भी बैठवा दिया था।
एक स्थिति ऐसी भी आई कि, 'यूपी हायर एजुकेशन सलेक्शन बोर्ड' द्वारा तिवारी जी को ‘आरबीएस कॉलेज’ का प्रिंसिपल नियुक्त कर दिया गया। मैं आगरा पहुँचा, उनसे मिलने गया। उन्हें प्राचार्य की कुर्सी पर देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही थी। सोच रहा था कि अब शायद कॉलेज के दिन सुधरेंगे। अंग्रेज़ी विभाग से उन्होंने छुट्टी ले रखी थी।
तिवारी जी ने प्रिंसिपल पद से रिज़ाइन कर दिया
परन्तु यह क्या? वह ख़ुश नहीं थे! तनाव की एक गहरी रेखा उनके माथे पर थी। एक तो मैनेजमेंट और उसकी नीतियों से वह नाख़ुश थे, दूसरा उन्हें इस बात बात का भी गहरा मलाल था कि प्रशासनिक भागदौड़ के चलते वह नियमित क्लास नहीं ले पाते हैं।
"टीचिंग इज़ माय फ़र्स्ट पैशन।" खीझ भरे स्वर में वह बोले।
बहरहाल, मैं लौट कर दिल्ली पहुँचा। 2 सप्ताह बाद मेरे श्वसुर साहब का फ़ोन आया- "तिवारी जी ने प्रिंसिपल पद से रिज़ाइन कर दिया है।"
वह वापस इंग्लिश डिपार्टमेंट में पहुँच गए थे। साहित्य विभाग के अपने रोज़नामचे पर वह फिर हर दिन इक़बालिया बयान लिखने लग गए थे। एक बार फिर वह 'पोएट्री किल' करने में जुट गए थे।
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