कुछ दिन पहले अचानक एक नन्हे प्राणी के आने से घर में दहशत फैल गई। पढ़ रहे होते तो अचानक लगता, कोई बग़ल से गुज़रा है। जब तक नज़र जाती, वह ग़ायब हो जाता। ऐसा कई बार हुआ, पत्नी ने भी देखा, महरी ने भी देखा। बाद में पता चला, कोई नन्ही चुहिया है जो घर में घुस आई है और इधर-उधर दौड़-भाग कर रही है।
चुहिया के आने से दो तरह की चिंताएँ पैदा हुईं। पहली कि यह आई कहाँ से जबकि हम सारे खिड़की-दरवाज़े बंद रखते हैं। दूसरी यह कि अब आ गई है तो इसका क्या करें। कहीं उसने किताबें कुतर दीं तो? पैक किए सामान में दाँत लगा दिए तो? और हाँ, पका हुआ खाना जूठा कर दिया और हमें मालूम न हुआ तो?
माहौल में एक भय-सा तारी हो गया और उस चुहिया को रास्ते से हटाने के उपाय सोचे जाने लगे। पहला आइडिया यही आया कि चूहा पकड़ने का पिंजरा ख़रीदा जाए। लेकिन उसमें समस्या थी कि उसे पकड़कर छोड़ा कहाँ जाए। छोड़ेंगे तो वह किसी और के घर पर आफ़त मचाएगी। अपनी समस्या दूसरों के सिर लादना नैतिक रूप से सही नहीं था।
अंत में वही उपाय सूझा जो सबसे आसान था। बाज़ार से चूहे मारने का ज़हर ख़रीदा गया। हरे रंग की उस ज़हरीली पट्टी के पाँच टुकड़े किए गए और रात को उन्हें उन जगहों पर बिछा दिया गया जहाँ से चुहिया का आना-जाना देखा गया था। चुहिया की मौत के लिए सुरंगें बिछा दीं हमने।
महरी जा चुकी थी और उस चुहिया की लाश को उठाने और ठिकाने लगाने का काम मेरे ही सिर पर पड़ा। मैं गया, देखा - एक छोटी-सी चुहिया निष्प्राण उलटी पड़ी हुई थी। उसके छोटे-छोटे निष्क्रिय हाथ-पैर फैले हुए थे। मेरी आँखों में आँसू आ गए। दुनिया के युद्धग्रस्त इलाक़ों की ऐसी तमाम तस्वीरें मेरे सामने बिछ गईं जिनमें बमबारी का शिकार हुए छोटे-छोटे बच्चों के शव नज़र आते थे।
उस घड़ी मैं ख़ुद को उतना ही दोषी समझ रहा था जितना दोषी उन नेताओं और सेनाओं को समझता हूँ जो युद्ध में निर्दोषों की जान लेते हैं।
सालों पहले एक मित्र की चार-पाँच साल की बच्ची को क़ब्र में उतारा था। उस दिन चुहिया के शव को डस्टबिन में डालते हुए वैसा ही लग रहा था। मैं देर तक सोचता रहा, हमने उसे क्यों मारा? वह हमारा क्या बिगाड़ रही थी? इधर-उधर फुदक ही तो रही थी। न उसने हमारा कोई काग़ज़ फाड़ा, न कोई कपड़े कुतरे। डस्टबिन में पड़े सब्ज़ी या फलों के छिलकों या बचे हुए खाने से वह अपना पेट ही तो भर रही थी।
फिर भी हमने बिना किसी मुक़दमे, बिना उसका पक्ष सुने उसे सज़ा दे दी - मौत की सज़ा, घर में घुस आने की सज़ा। 'हमारे' घर में घुस आने की सज़ा।
मुझे लगा, मेरा व्यवहार उन गोरक्षकों से भिन्न कहाँ है जो गायों के साथ किसी दाढ़ीवाले को देखते ही उसपर जानलेवा हमला कर देते हैं! मुझे लगा, मेरा व्यवहार उन बांग्लादेशी कट्टरपंथियों से अलग कहाँ है जो हसीना वाज़ेद के पलायन के बाद अल्पसंख्यकों पर हमले कर रहे हैं!
मुझे लगा, मेरा व्यवहार उन अंग्रेज़ों से अलग कहाँ है जो दो लड़कियों की हत्या के बाद हर आप्रवासी को अपना दुश्मन मानकर उन्हें अपनी घृणा और हिंसा का शिकार बना रहे हैं!
आप कहेंगे कि मेरा अपराध इनके मुक़ाबले बहुत कम है क्योंकि मेरी हरकत से केवल एक चुहिया मरी है, उनकी हरकतों से इंसानी जानें जाती हैं। लेकिन मुझे लगता है कि दोनों में बहुत-कुछ कॉमन है, एक ही मानसिकता से दोनों ही तरह की हिंसाएँ पैदा होती हैं - चाहे वह इन जीवों के ख़िलाफ़ हो या इंसानी समुदायों के ख़िलाफ़।
मैं कहता हूँ, यह घर मेरा है, इसमें किसी और के आने की इजाज़त नहीं है। वह चुहिया आई, मारी गई। कोई कॉक्रोच आएगा, मारा जाएगा। कोई छिपकली आई तो उसे भगाया जाएगा। इसी तरह ये भी सोचते हैं कि भारत हम हिंदुओं का हैं, किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को यहाँ आने और रहने की इजाज़त नहीं है। यदि रह भी जाए तो उसे उस तरह रहना है जिस तरह हम कहें। डरकर, दुबककर। पिंजरों में बंद चूहों की तरह। उनकी नज़र में ये सभी चूहे हैं, कॉक्रोच हैं, छिपकलियाँ हैं जिनसे उन्हें अपने घर को मुक्त और स्वच्छ रखना है। इसलिए उनका ट्रीटमेंट वैसा ही है जैसा हम अपने-अपने घरों में चूहों, कॉक्रोचों और छिपकलियों के साथ करते हैं।
फिर से अपने मूल मुद्दे पर आता हूँ। मैंने चुहिया को क्यों मारा? निश्चित रूप से इस आशंका के कारण कि वह हमारा छोटा-बड़ा कोई भी नुक़सान कर सकती है। उन दिनों जब चुहिया जीवित थी और उसकी हत्या के बाद भी कई बार मुझे यह ख़्याल आता रहा कि काश, मैं उससे बात कर सकता। मैं उसे बता पाता कि मेरी आशंकाएँ क्या हैं और वह बता पाती कि उसका मेरा नुक़सान करने का कोई इरादा नहीं है। यदि ऐसा हो जाता तो वह भी रहती और हम भी रहते - एक ही घर में। यह घर जो बिना बच्चों के सूना-सूना लगता है, वहाँ अगर एक चुहिया बीच-बीच में फुदकती रहती हो हमें अच्छा ही लगता।
मैं उस चुहिया से बात करना चाहता था, नहीं कर पाया। लेकिन ये तो कर सकते हैं। ये लोग जो मुसलमानों से घृणा करते हैं, उन्हें अपना दुश्मन समझते हैं या दूसरे देशों के वे लोग जो हिंदुओं या दूसरे धर्मों के लोगों से नफ़रत करते हैं, उनको अपना दुश्मन समझते हैं - यदि वे एक-दूसरे से बात करें यह समझ और समझा सकें कि हमारा एक-दूसरे को नुक़सान पहुँचाने का कोई मक़सद नहीं है तो क्या यह नफ़रत, यह हिंसा रुक नहीं सकती? मैं उस चुहिया से संवाद नहीं कर पाया, लेकिन ये तो कर सकते हैं।
क्यों नहीं करते?
शायद इसलिए कि मेरे और उस चुहिया के बीच श्रेष्ठता का कोई झगड़ा नहीं था। मेरे मन में यह कामना नहीं है कि यह दुनिया चूहों से शून्य हो जाए। मेरी उससे कोई शत्रुता नहीं थी। बस कुछ आशंकाएँ थीं और उन आशंकाओं के चलते मैंने न चाहते हुए भी उसकी जान ले ली। लेकिन यह भी सच है कि उसकी लाश को देखकर मेरी आँखों में आँसू उमड़ आए थे।
लेकिन मुसलमानों या दूसरे धर्मों के लोगों की हत्याओं के बाद इन इंसानी हत्यारों की आँखों में आँसू नहीं उमड़ते, ख़ुशी की बिजलियाँ कौंधने लगती हैं।
क्या यही कारण नहीं है कि दुनिया से यह हिंसा, यह नफ़रत कम नहीं हो रही!
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