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उपेंद्र कुशवाहा-नीतीश: फिर अजनबी बनने की बारी क्यों

अभी तक जदयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष पद पर कायम उपेंद्र कुशवाहा आजकल एम्स, दिल्ली में भर्ती रहकर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से मुलाकात के कारण चर्चित हो रहे हैं। दूसरी तरफ उनकी अपनी पार्टी यानी जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ऐसे बयान दे रहे हैं जिनसे लगता है कि दोनों तरफ से एक बार फिर अजनबी बनने की तैयारी है।कहने को तो उपेंद्र कुशवाहा एम्स में इलाज करा रहे हैं लेकिन वह वहां शादी जैसे अवसरों पर भी देखे जा रहे हैं। इधर नीतीश कुमार कह रहे हैं कि वह तो दो-तीन बार पार्टी छोड़ कर गए थे और फिर खुद वापस आए। वे यह भी कह रहे कि उपेंद्र कुशवाहा की क्या इच्छा है, यह उनको नहीं मालूम है। नीतीश ने उपेंद्र की बीमारी की बात की चर्चा करते हुए यह भी कहा कि सबको अधिकार है कि जहां इच्छा हो जाए। एक तरह से नीतीश कुमार ने यह साफ कर दिया है कि उनकी ओर से उपेंद्र कुशवाहा स्वतंत्र हैं, अब कुशवाहा को यह फैसला लेना है कि वह कहां रहते हैं।
कई राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि उपेंद्र कुशवाहा और जदयू के बीच अजनबी बनने की शुरुआत तभी से हो गई थी जब नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव से हाथ मिलाने का फैसला किया। इसकी वजह यह नहीं थे कि वे इस गठबंधन के सैद्धांतिक तौर पर खिलाफ थे बल्कि वह यह समझ रहे थे कि नए गठबंधन से उनके राजनैतिक महत्वाकांक्षा को नुकसान पहुंचेगा।
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यह बात खासकर उस वक्त और स्पष्ट हो गई जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन की ओर से 2025 का चुनाव तेजस्वी यादव के गठबंधन में लड़ने की बात कही। एक तरह से उपेंद्र कुशवाहा के लिए तब तक किसी बड़े पद की उम्मीद पर पानी फिर गया।हालांकि राजद से जनता दल के हाथ मिलाने के बाद भी जातीय गणना के मुद्दे पर उपेंद्र कुशवाहा खुलकर नीतीश कुमार के साथ थे लेकिन ऐसा लगता है कि वह महज एक विधान पार्षद होकर रहना नहीं चाहते थे और पार्टी या सरकार में कोई बड़ा पद चाहते थे। पार्टी में लगातार दूसरी बार राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद यह संभावना भी समाप्त हो गई थी।
इस संदर्भ में उनका यह बयान भी याद रखने के लायक है जो उन्होंने राजद कोटे से मंत्री चंद्रशेखर के रामचरितमानस संबंधी बयान के बाद दिया था। उन्होंने आरजेडी पर आरोप लगाया था कि उसके नेता भारतीय जनता पार्टी से मिले हुए हैं। सोचने की बात यह भी है कि जिस पार्टी के सहारे नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हुए हैं उसी पर उपेंद्र कुशवाहा के ऐसे आरोप का महागठबंधन पर क्या असर हो सकता है। विडंबना यह है कि उन्होंने यह आरोप उस समय लगाया जब खुद उनके बारे में यह अफवाह जोरों पर है कि वे भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिला सकते हैं।
उन्होंने खुद को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने के सवाल पर कहा था कि वह संन्यासी तो नहीं हैं। एक इंटरव्यू में खुद को पवेलियन में बैठा हुआ बढ़िया बल्लेबाज भी बताया था और शायद उन्हें अब यह उम्मीद नहीं कि उन्हें जल्द ही सरकार की पिच पर उतारा जाए, इसलिए वह अब दूसरी टीम तलाशने में लगे हुए दिखते हैं। इस मामले में वे कितने गंभीर हैं यह कहना आसान नहीं है।साढ़े तीन दशक से अधिक समय से राजनीति कर रहे उपेंद्र कुशवाहा के लिए सबसे अच्छा साल 2014 का माना जाता है जब उनकी एक साल पुरानी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का भारतीय जनता पार्टी के साथ बतौर एनडीए गठबंधन दल के लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन हो गया था। उस समय वे खुद काराकाट सीट से जीते थे जबकि सीतामढ़ी और जहानाबाद में भी उनकी पार्टी के उम्मीदवार को जीत मिली थी। वह मोदी सरकार में मानव संसाधन विभाग के राज्य मंत्री भी थे।
उपेंद्र कुशवाहा सन 2019 आते-आते एनडीए में खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे और उससे अलग होकर लोकसभा चुनाव के लिए यूपीए में शामिल हो गए लेकिन वह खुद दो-दो जगह से चुनाव हार गए। 2020 में उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए असदुद्दीन ओवैसी और मायावती की पार्टियों के साथ एक गठबंधन बनाया लेकिन उस गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी। उस गठबंधन ने उपेंद्र कुशवाहा को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार बताया था लेकिन उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी जबकि असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने 5 सीटों पर सफलता हासिल की थी।
2020 के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा के लिए सारे दरवाजे बंद थे तो उन्हें नीतीश कुमार के साथ हो जाने में ही भलाई नजर आई। नीतीश कुमार के लिए भी अपने पुराने साथी को वापस पाना इसलिए बेहतर लगा क्योंकि उनकी भारतीय जनता पार्टी के साथ बहुत अच्छी तरह नहीं निभ रही थी। इसी चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को भी बहुत कम सीट मिली थी और भारतीय जनता पार्टी का बढ़ता वर्चस्व साफ नजर आया। अपना आधार वोट मज़बूत करने के लिए उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा को जदयू में शामिल तो कर लिया लेकिन उनके लिए भी उन्हें कोई बड़ा पद देने की गुंजाइश कम थी।
विधानसभा चुनाव में हार और अपनी 8 साल पुरानी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का जनता दल यूनाइटेड में विलय कराने के बाद उपेंद्र कुशवाहा के पास बहुत कम विकल्प बचे मगर उनकी महत्वाकांक्षा कम नहीं हुई। कुशवाहा के नजदीक रहे लोगों का यह मानना है कि वह इस समय खुद ऊहापोह में हैं या नीतीश कुमार को उहापोह में रखने में लगे हैं। उनकी ऊहापोह इस बात को लेकर है कि अगर वह जदयू में रहते हैं तो उनकी आगे की राजनीति का क्या होगा। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिलाने पर भी उनका कोई खास भला होता नहीं दिख रहा है।
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कई लोगों का मानना यह है कि उपेंद्र कुशवाहा इस वजह से यह जताना चाहते हैं कि वह भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिला सकते हैं कि नीतीश कुमार उन्हें कोई और महत्वपूर्ण पद देने को तैयार हो जाएं।
इधर भारतीय जनता पार्टी को किसी ऐसे बड़े नेता की जरूरत है जो राज्य की राजनीति में पैर जमाए हुए हो और अपनी जाति के वोट पर भी पकड़ रखता हो। इसलिए उपेंद्र कुशवाहा का दिल्ली एम्स में भर्ती होना और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का उनसे मिलना बिना उद्देश्य तो नहीं माना जा सकता।

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समी अहमद
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