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जाति गणना की रिपोर्ट पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने किया इंकार 

बिहार में हुई जाति गणना पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इंकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट में जाति गणना के आंकड़ो को सार्वजनिक किए जाने के खिलाफ याचिका दायर की गई थी। 
इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को बिहार सरकार को नोटिस जारी कर इस पर जवाब मांगा हैं। बिहार सरकार से इसपर चार सप्ताह के अंदर सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल करने को कहा गया है। 
इस याचिका पर सुनवाई को सुप्रीम कोर्ट ने अगले वर्ष तक के लिए टाल दिया है। इस मामले की अगली सुनवाई जनवरी 2024 में होगी। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस संजीव खन्ना और इसवीएन भट्टी की खंडपीठ ने कहा कि इस मामले पर विसतृत सुनवाई करने की आवश्यकता है।
खंडपीठ ने कहा कि फिलहाल बिहार में जाति गणना के आंकड़े को प्रकाशित करने पर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगाई जा रही है। खंडपीठ ने कहा कि कोर्ट किसी भी राज्य सरकार को फैसला लेने से नहीं रोक सकता। 
यदि ऐसा होता है तो यह गलत होगा। अगर याचिकाकर्ता को जाति गणना के आंकड़ों पर किसी तरह की कोई आपत्ति है तो उस पर कोर्ट गौर करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम अब यह जांच करेंगे कि राज्य सरकार के पास जाति गणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने का हक है या नहीं।  
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दो अक्टूबर को जारी किए गये थे जाति गणना के आंकड़े 

बिहार सरकार की ओर से कराए गए जाति सर्वेक्षण के आंकड़े 2 अक्टूबर को जारी कर दिए गए हैं। जातियों की गणना और उसके आंकड़े जारी करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बन गया है। 
इन आंकड़ों में बताया गया था कि बिहार में सबसे ज्यादा आबादी अति पिछड़ा वर्ग की 36.01 प्रतिशत है। इसके साथ ही  पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12 प्रतिशत है। दोनों की आबादी को जोड़ दिया जाए तो इनकी आबादी 63 प्रतिशत से अधिक हो जाती है। वहीं अनुसूचित जाति की आबादी भी 19.65 प्रतिशत है। दूसरी तरफ सामान्य वर्ग की आबादी मात्र 15.52 प्रतिशत है। 
इन आंकड़ों के सामने आने के बाद साफ हो चुका है कि बिहार में किस जाति के कितने लोग हैं।  राजनीति की नब्ज पर पकड़ रखने वाले मानते हैं कि अब इन आकंड़ो का इस्तेमाल जदयू, राजद और कांग्रेस समेत अन्य दल अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए करेंगे। इसमें उन्हें बड़ी सफलता भी मिल सकती है। 
माना जा रहा है कि बिहार में अब पहली मांग यह उठ सकती है कि सरकारी नौकरियों में मौजूदा 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को खत्म किया जाए और आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाए। यह जाति आधारित सर्वे आरक्षण की सीमा को चुनौती देने का रास्ता तैयार करेगा। 
पिछड़े वर्ग और अत्यंत पिछड़े वर्ग के बीच से अब अगली मांग यह आएगी कि उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में और अधिक आरक्षण दिया जाए। इन दोनों की आबादी बिहार में 63 प्रतिशत से अधिक है। ऐसे में उनका तर्क हो सकता है कि उन्हें उनकी आबादी के मुताबिक आरक्षण दिया जाना चाहिए जो कि उनकी आबादी से अभी आधे से भी कम दिया जा रहा है। 
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आरक्षण का दायरा बढ़ाने की अब उठ रही मांग 

जाति गणना के आंकड़े जारी करने के बाद बिहार में पिछड़े वर्गों का आरक्षण बढ़ाने की मांग होने लगी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले ही कह चुके हैं कि बिहार में जाति आधारित सर्वे एक बार हो जाएगा तो 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को बढ़ाया जा सकेगा।
इसे देशभर में होना चाहिए ताकि 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को बढ़ाया जा सके।  जाति सर्वे या जाति गणना  के आंकड़े आने के बाद राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा था कि  ये आंकडे  हाशिए के समूहों को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने में देश के लिए नज़ीर पेश करेंगे।
दो अक्टूबर को ही लालू यादव ने कहा था कि सरकार को अब सुनिश्चित करना चाहिए कि जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी हो। हमारा शुरू से मानना रहा है कि राज्य के संसाधनों पर न्यायसंगत अधिकार सभी वर्गों का हो। केंद्र में 2024 में जब हमारी सरकार बनेगी तब पूरे देश में जातिगत जनगणना करवायेंगे और दलित, मुस्लिम, पिछड़ा और अति पिछड़ा विरोधी भाजपा को सता से बेदखल करेंगे।
इसकी रिपोर्ट जारी होने के चंद घंटे बाद ही बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग कर दी थी। उन्होंने कहा था कि बिहार में जाति आधारित गणना की रिपोर्ट आ चुकी है। सूबे में एससी,एसटी, ओबीसी और ईबीसी की आबादी तो बहुत है पर उनके साथ हक़मारी की जा रही है। 
उन्होंने एक्स पर लिखा था कि  नीतीश कुमार से आग्रह करता हूं कि राज्य में आबादी के प्रतिशत के हिसाब से सरकारी नौकरी - स्थानीय निकायों में आरक्षण लागू करें, वही न्याय संगत होगा। 
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क़मर वहीद नक़वी
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