बिहार चुनाव में अचानक से आरक्षण का मुद्दा आ गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे उछाला है। दूसरे चरण की वोटिंग से पहले वाल्मीकिनगर में नीतीश कुमार ने जातियों की आबादी के हिसाब से आरक्षण की बात कही है। यानी सीधे तौर पर नीतीश पिछड़ों को लुभाने में लगे हैं। पिछड़ों को लुभाने का मतलब है कि अगड़ों यानी सवर्णों को नाराज़ करना जो बीजेपी का कोर वोटबैंक है। बीजेपी नीतीश कुमार के जेडीयू के साथ गठबंधन में है। ऐसे में क्या नीतीश के जातियों की आबादी के हिसाब से आरक्षण की बात करने से बीजेपी को नुक़सान नहीं होगा? सवाल यह भी है कि नीतीश अपने लिए वोटबैंक का जुगाड़ कर रहे हैं या बीजेपी को नुक़सान पहुँचा रहे हैं?
आरक्षण का मुद्दा चुनाव को कितना प्रभावित करता है यदि यह देखना है तो बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव को याद कीजिए जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण के मुद्दे को उठाया था और वह कितना बड़ा मुद्दा बन गया था। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले भागवत ने कहा था कि देश में मौजूदा आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की ज़रूरत है। आरजेडी ने तब इस मुद्दे को लपका था। इसको इस रूप में व्याख्यायित किया गया कि बीजेपी और संघ दलितों-पिछड़ों को मिले आरक्षण को ख़त्म करना चाहते हैं। माना जाता है कि इससे पिछड़ों में बीजेपी के ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ी।
इस बारे में आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद कितने आश्वस्त थे कि तब उन्होंने कहा था कि संघ प्रमुख की टिप्पणी बिहार में बीजेपी के 'भाग्य का फ़ैसला कर चुकी है।'
2015 में बिहार चुनाव के जब नतीजे आए थे तब बीजेपी की ज़बरदस्त हार हुई थी और कहा गया था कि बीजेपी की हार में मोहन भागवत द्वारा मुद्दा उठाए जाने का बड़ा हाथ था। विपक्ष ही नहीं बीजेपी के कई नेताओं ने भागवत को हार का ज़िम्मेदार बताया था।
लालू यादव ने तब कहा था कि बिहार में 1995 जैसे हालात हैं जब 'मंडल बनाम कमंडल' की राजनीति के दौर में जनता दल विजयी हुआ था। यहाँ मंडल का मतलब था मंडल कमीशन से। वही मंडल कमीशन जिसने पिछड़ों के लिए आरक्षण की सिफ़ारिश की थी। 1989 के चुनाव में जनता दल ने अपने घोषणा पत्र में लिखा था कि अगर वह सत्ता में आता है तो मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। 1990 में वीपी सिंह की सरकार बनी और तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने चुनावी वादे को पूरा करने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का एलान कर दिया। इन सिफारिशों में पिछड़े वर्ग के लिए 27 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।
लेकिन आरक्षण लागू करने से पहले ही वीपी सिंह की सरकार गिर गई। हालाँकि 1991 में कांग्रेस की सरकार जीतकर आई और उसे मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण लागू करना पड़ा।
बहरहाल, भले ही बीजेपी के कोर वोटर सवर्ण हैं और अपने शुरुआती दिनों में वह इसकी खुलकर वकालत करती रही थी लेकिन हाल के दिनों में चुनावी मजबूरियों के कारण इस मुद्दे पर खुलकर बोलने से बचती रही है। हालाँकि उसने यह ज़रूर किया कि सवर्णों को भी आरक्षण के दायरे में लाकर उनको ख़ुश करने की कोशिश की। उसने अपने वोटबैंक का विस्तार हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाकर शुरू कर दिया और वह पिछड़ों के आरक्षण के विरोध में बोलने से बचती रही। यह इसलिए कि यदि बीजेपी आरक्षण के ख़िलाफ़ बोलती है तो उसे ज़बरदस्त नुक़सान हो सकता है। यही वजह है कि पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में हुए नुक़सान को देखते हुए अब आरएसएस के नेता भी आरक्षण पर ज़्यादा मुखर होकर बोलते नहीं देखे जाते हैं।
नीतीश कुमार ने आरक्षण पर उसी राग को छेड़ दिया है जो बीजेपी को चुभता है। यानी एक तरह से उन्होंने बीजेपी की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। नीतीश कुमार के ताज़ा आरक्षण के बयान को उससे भी जोड़कर देखा जा सकता है जिसमें कहा जा रहा है कि बीजेपी नीतीश कुमार को चुनाव में कथित तौर पर दरकिनार करना चाहती है।
इसमें एलजेपी के चिराग पासवान की उस रणनीति को भी जोड़कर देखा जा रहा है जिसमें वह एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ रही है। एलजेपी ने कहा है कि वह जेडीयू को हराने के लिए उसके ख़िलाफ़ उम्मीदवार तो उतारेगी लेकिन बीजेपी का समर्थन करेगी। चिराग तो इसके लिए यह भी कह चुके हैं कि उनके दिल में प्रधानमंत्री मोदी हैं।
अब इस संदर्भ में नीतीश के ताज़ा रुख़ को कैसे देखा जा सकता है? आरक्षण पर नीतीश का बयान चुनाव जीतने के लिए है या बीजेपी को नुक़सान पहुँचाने के लिए? क्या नीतीश कुमार को यह पता नहीं होगा कि जातियों की आबादी के हिसाब से आरक्षण की बात कहने से बीजेपी को नुक़सान होगा?
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