बेटियों के सम्मान में निकल पड़े हैं किसान। संयुक्त किसान मोर्चा ने देशभर में धरना-प्रदर्शन का एलान किया है। 21 मार्च के बाद राष्ट्रव्यापी आंदोलन की रूपरेखा भी तय की जा रही है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज भी महिला पहलवानों के समर्थन में उठ खड़ा हुआ है। जंतर-मंतर पर रविवार को कैंडल मार्च में कई महिला संगठन भी शरीक हुए हैं।
सिविल सोसायटी के लोग लगातार महिला पहलवानों के संघर्ष में साथ आ रहे हैं। आंदोलनकारी महिला पहलवान आरोपी सांसद और रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह पर यौन शोषण के आरोपों में एफआईआर दर्ज होने के बाद उनकी गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं।
आंदोलन के औचित्य पर सवाल क्यों?
महिला पहलवानों के लिए समर्थन जहां बढ़ रहा है वहीं केंद्र सरकार और खेल संगठन खामोश हैं। देश का मीडिया और सोशल मीडिया का एक वर्ग आंदोलन के औचित्य पर ही सवाल उठा रहा है। जो सवाल उठ रहे हैं उस पर गौर करते हैं-
- महिला पहलवानों ने पहले क्यों मुद्दा नहीं उठाया?
- जंतर-मंतर पर धरना के पीछे राजनीति तो नहीं हो रही?
- किसान पहले से ही मोदी सरकार से नाराज़ थे, उन्हें मौका क्यों दे रहे हैं महिला पहलवान?
- आरोपी सांसद बृज भूषण शरण सिंह पर FIR तो दर्ज हो गयी, गिरफ्तारी की मांग क्यों?
- जब जांच हो रही है तो आंदोलन क्यों?
निश्चित रूप से ये सारे सवाल उनके लिए हैं जो पीड़ित हैं, महिलाएं हैं, देश का सम्मान हैं, खिलाड़ी हैं और यौन उत्पीड़न का शिकार हुई हैं। चाहे जितने समय बाद भी अगर इन पीड़ित महिला पहलवानों ने आवाज़ उठाई है तो उनकी आवाज़ को बुलंद करने की नैतिक जिम्मेदारी भी वे लोग उठाते नहीं दिख रहे हैं जो उपरोक्त सवाल उठा रहे हैं।
महिला सम्मान, खेल और खिलाड़ी, यौन शोषण करने वाले दबंग सांसद की गिरफ्तारी, खेल मंत्रालय की निष्क्रियता, खेल संघों की चुप्पी, प्रशासन की घनघोर लापरवाही, सत्ताधारी दल की पीड़ितों को दिल दुखाने वाली चुप्पी और आरोपी को खुला संरक्षण जैसे मुद्दे अगर राजनीति का विषय नहीं होगा तो कोई बताए कि राजनीति का विषय होना क्या चाहिए?
महिला, किसान, मानवाधिकार हितैषी उठा रहे हैं आवाज़
जो बात पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज को उद्वेलित कर रही है वह देश की सत्ताधारी दल या फिर मीडिया और सोशल मीडिया के उस वर्ग को क्यों नहीं बेचैन कर रही है जिसकी ऊपर चर्चा हुई है? पीयूसीएल ने भी चंद महत्वूपूर्ण सवाल उठाए हैं-
- आंदोलनकारी पहलवानों को बारिश में सुविधाएं उपलब्ध क्यों नहीं कराई गयीं?
- सुविधाएं उपलब्ध कराने वालों को क्यों रोका गया?
- आंदोलनकारी पहलवानों के साथ मारपीट पुलिस ने क्यों की?
- महिला पहलवानों की सुरक्षा में मौजूद पुलिसकर्मी तब नदारद क्यों रहे जब उनकी पिटाई हो रही थी?
- महिला पुलिस क्यों नहीं थी घटनास्थल पर जहां पुरुष पुलिसकर्मी महिला पहलवानों से उलझ रहे थे?
पीयूसीएल ने महिला पहलवानों की ओर से शराब के नशे में पुलिसकर्मियों के होने और उनसे बदसलूकी करने के आरोपों को भी गंभीरता से लिया है। लेकिन, दिल्ली पुलिस ने इन आरोपों को सीधे खारिज करते हुए सभी आरोपों को झटक दिया। क्या इतना काफी है?
पीयूसीएल ने मांग की है कि स्वतंत्र रूप से ऐसी कमेटी से इस घटना की जांच करायी जानी चाहिए जिसका नेतृत्व जज करें।
पीएम खिलाड़ियों के आंसू कब पोछेंगे?
जंतर-मंतर पर धरने पर बैठीं महिला पहलवानों का संघर्ष दुनिया के लिए कौतूहल का विषय है, मगर अपने देश में यह बातचीत के न्योते तक की भी तवज्जो हासिल नहीं कर पाया है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, खेल मंत्री या फिर देश में विभिन्न मंत्रालय संभाल रहीं महिला नेता इन खिलाड़ियों के आंसू पोंछने को तैयार नहीं। आंसू पोंछने की बात तो छोड़िए, फोन करके कुशल-क्षेम पूछना भी इन्होंने ज़रूरी नहीं समझा है।
भारतीय ओलंपिक संघ की अध्यक्ष उड़नपरी पीटी उषा ज़रूर महिला पहलवानों से मिलने पहुंचीं लेकिन इसलिए नहीं कि उन्हें न्याय दिलायी जाए, बल्कि इसलिए कि महिला पहलवान अपना आंदोलन खत्म कर लें। जंतर-मंतर पर पहुंचने से पहले ही पीटी उषा कह चुकी थीं कि आंदोलन के कारण दुनिया भर में बदनामी हो रही है। कितना अजीब है! महिलाओं का यौन उत्पीड़न हो, इससे दुनिया में हमारी बदनामी नहीं होती लेकिन इसके खिलाफ आवाज उठाने से देश बदनाम हो जाता है!
- क्या हम अपने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह उम्मीद नहीं रखते कि वे देश के सम्मान के लिए पहलवानी करती महिलाओं के आंसू पोंछने का काम करें?
- अगर एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जंतर-मंतर पर पहुंच जाते तो क्या किसी को भी महिला पहलवानों के मुद्दे पर कथित रूप से राजनीति करने का मौका मिलता?
- क्या खेल मंत्रालय इतना लाचार हो गया है कि वह यौन उत्पीड़न के मामले में एफआईआर दर्ज होने के बावजूद रेसलर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के प्रमुख पद से बृज भूषण शरण सिंह को बर्खास्त नहीं कर सकता?
- क्या बीजेपी इतनी लाचार हो गयी है कि वह अपने सांसद पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों पर अपनी जुबान तक न खोल सके?
सवाल यही है कि पीड़ित के पक्ष में खड़ा कौन है और पीड़ित के साथ खड़ा कौन है? बाकी बातें गैरजरूरी हैं। शासन और प्रशासन जब पीड़ित के खिलाफ नज़र आने लगें तो समझिए कि सड़क पर उतरने का वक्त आ गया है। अगर इस जरूरत की भी अनदेखी की जाती है तो चाहे कानून जितने बन जाएं हम उनके ही गुलाम बने रहेंगे जो दबंग हैं और शासन-प्रशासन को अपनी जरूरत के हिसाब से हांकना जानते हैं।
अपनी राय बतायें