“मस्ती की थी छिड़ी रागिनी, आजादी का गाना था।
भारत के कोने-कोने में, होगा यह बताया था
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई, और पेशवा नाना था
इधर बिहारी वीर बाँकुरा, खड़ा हुआ मस्ताना था
अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।’’
यह पंक्तियां मनोरंजन प्रसाद सिंह की लंबी कविता से ली गयी हैं जिससे एक अंदाजा होता है कि बाबू वीर कुंवर सिंह का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में क्या स्थान था। इस कविता में ये दो पंक्तियां भी हैंः
शेरशाह का खून लगा करने तेजी से रफ्तारी
पीर अली फाँसी पर लटका, वीर बहादुर दाना था।
वीर कुंवर सिंह की अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई वास्तव में भारत में हिन्दू-मुसलमानों के संयुक्त संघर्ष की एक बेहतरीन मिसाल है जिसकी चर्चा कम होती है।
बीजेपी का 'विजयोत्सव' कार्यक्रम
इस समय वीर कुंवर सिंह की चर्चा इस बात के लिए भी काफी हो रही है कि बिहार में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के अगुवा और अंग्रेजों के खिलाफ हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त संघर्ष के प्रतीक रहे बाबू वीर कुंवर सिंह के नाम पर उनके पैतृक गांव जगदीशपुर के दुलौर में 23 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी एक विशाल 'विजयोत्सव' मनाने की तैयारी में जुटी है।
इस कार्यक्रम में गृह मंत्री अमित शाह शामिल होने वाले हैं। इसमें 75 हजार तिरंगे के साथ लगभग तीन लाख लोगों को जुटाने की तैयारी चल रही है।
इतिहासकारों के अनुसार 80 साल की उम्र में 1857 के संग्राम में शामिल होकर कई जगहों से लड़ते और अंग्रेजों को हराने के बादर 23 अप्रैल, 1858 को कुंवर सिंह ने जगदीशपुर में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज को धूल चटायी थी। उनके साथियों ने ब्रितानी फौजियों को भगाकर वहां के किले से यूनियन जैक उतार फेंका था। हालांकि इस जीत के तीन दिनों के बाद ही बुरी तरह जख्मी होने के कारण उनकी मौत हो गयी थी।
1966 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। 1992 में राबड़ी देवी सरकार ने उनके नाम पर आरा में विश्वविद्यालय खोला। बिहार सरकार खुद भी हर साल उनके विजय दिवस पर कार्यक्रम आयोजित करती है।
कुंवर सिंह का जन्म जगदीशपुर में 13 नवंबर 1777 को माना जाता है हालांकि कुछ जगह पर इसे 1782 भी लिखा गया है। 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई। वे उज्जैनिया वंश के परमार राजपूत थे। उनकी मां का नाम पचरतन कुंवर था। उनके पिता साहबजादा सिंह की मौत 1826 में बताई जाती है जिसके बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर की गद्दी पर बैठे।
साहबजादा सिंह खुद एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद कलकत्ता में इशरी प्रसाद से समझौता करने के बाद 1804 में गद्दी पर बैठे थे। उस समय यह पद तालुकदार कहलाता था।
कुंवर सिंह छह फुट के लंबे-तड़ंगे और शिकार के शौकीन व्यक्ति थे। शिकार के शौक के कारण शुरू में अंग्रेज अफसरों से उनके अच्छे संबंध थे लेकिन जब उनके खिलाफ रण छेड़ने का समय आया तो उन्होंने इस दोस्ती को आड़े नहीं आने दिया बल्कि यही बात अंग्रेजों को हैरत में डालने वाली थी। कुंवर सिंह एक जबर्दस्त रणनीतिकार थे। उन्होंने युद्ध के तरीके और अपने धावों में परिवर्तन लाकर अक्सर अंग्रेजों को हैरत में डाल दिया था।
जनहित के काम
’बिहार-झारखंड में महायुद्ध’ पुस्तक में प्रसन्न कुमार चौधरी लिखते हैंः डुमरांव राज के बाद कुंवर सिंह की सबसे बड़ी जमींदारी थी जिसमें पीरो, नोनौर, बिहिया, भोजपुर और सासाराम सहित कुल 1787 मौजे थे। उनकी माली हालत खराब थी लेकिन जनतिहकारी कार्यों के लिए धन देने में उन्होंने कंजूसी नहीं की। उन्होंने स्कूल खोले, तालाब खुदवाए। जदीशपुर और आरा में मस्जिदें बनवायी थीं। पटना इंडस्ट्रियल स्कूल के लिए 1100 रुपये का दान दिया। कुंवर सिंह ने 5 बीघा लगान मुक्त जमीन पीरों के नूर शाह फकीर को नमाज व मस्जिद के रखरखाव के लिए मुहैया कराई थी। उन्होंने फकीर गुन्नौर में 10 बीघा लगान मुक्त जमीन दी थी।
ईस्ट इंडिया सरकार की पूरी सतर्कता के बावजूद दानापुर, जो उस वक्त दीनापुर कहलाता था, के देसी फ़ौजियों ने 25 जुलाई 1857 को विद्रोह कर दिया और आरा की तरफ निकल पड़े। वे 26 जुलाई की शाम में वहां पहुंचे तो कुंवर सिंह फौरन उनके साथ हो लिये।
पटना के अंग्रेज कमिश्नर विलियम टेलर को इस बात पर पर विश्वास नहीं था कि कुंवर सिंह भी विद्रोह में शामिल हो जाएंगे जबकि उन्होंने उस विद्रोह का नेतृत्व ही संभाल लिया था। हालांकि शाहाबाद के मजिस्ट्रेट और कुछ अन्य को इसका शक था।
अपनी कलाई काट डाली
उस समय कुंवर सिंह का आरा पर कब्जा हो गया लेकिन तीन अगस्त को अंग्रेज फौज ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। बताया जाता है कि इसी दौरान गंगा को पार करत हुए उन्हें बायीं कलाई में गोली लग गयी तो उसके जहर को आगे फैलने से रोकने के लिए उन्होंने अपनी ही तलवार से वह हिस्सा काट डाला।
इसके बाद वे दिसंबर 1857 में लखनउ पहुँचे जहां उनकी मुलाकात दूसरे विद्रोही नेताओं से हुई। अंग्रेजों के खिलाफ अपनी कार्रवाइयां जारी रखीं और मार्च 1858 में उन्होंने आजमगढ़ पर कब्जाा जमा लिया। जब अंग्रेजों ने उन्हें यहां से भगााने में कामयाबी हासिल की तो वे वापस आरा आये और अंततः जगदीशपुर की अपनी गद्दी दोबारा हासिल कर ली।
बाबू कुंवर सिंह अक्खड़ किस्म के थे और एक बार अपने पिता के गद्दी पर रहते हुए हथियारबंद साथियों के साथ जिला कलक्टर पर हमला करने आरा कोर्ट में घुस गये थे। इसी तरह अंग्रेजों ने जेलों में मेस की व्यवस्था शुरू की तो राहत अली और दूसरे आंदोलनकारियों के साथ लगातार पत्राचार कर रहे थे।
बिहार की विरासत पर काम करने वाले हेरिटेज टाइम्स नाम से यूट्यूब चैनल चलाने वाले मोहम्मद उमर अशरफ लिखते हैं कि बाबू कुंवर सिंह के साथ मुसलमान सिर्फ 1857-58 की जंग में ही नही थे बल्कि काफी पहले से काम कर रहे थे। जिसमें 1844 का जिक्र तो अंग्रेज अपने दस्तावेज में करते हैं।
जहां 1856 में काजी जुल्फिकार अली खान को बाबू कुंवर सिंह का लिखा खत उनके बीच के रिश्ते को बखूबी जाहिर करता है, वहीं 1844-45 में पीर बख्श, दुर्गा प्रसाद, मुंशी राहत अली, ख्वाजा हसन अली, मौलवी अली करीम, मौलवी नियाज अली, बरकतउल्लाह और मीर बाकर के साथ बाबु कुंवर सिंह का नाम भी बगावत में आता है।
अशरफ लिखते हैं कि कुंवर सिंह जिस जगह गए, उनके साथ मुसलमान चट्टान के साथ खड़े रहे। उनकी शहादत के बाद मोहसिन पुर के जमींदार ‘मीर कासिम शेर’ और उस्ताद गुलाम हुसैन खान जैसे लोग बाबू अमर सिंह के साथ खड़े रहे।
डॉक्टर के के दत्ता द्वारा 1957 में लिखित ’बायोग्राफी ऑफ कुंवर सिंह एंड अमर सिंह’ में कुंवर सिंह के बारे में लिखा गया है कि वे शुरू से बहुत उत्साही और दुस्साहसी व्यक्ति थे। उनकी पढ़ाई उनके पिता की जगदीशपुर से लंबी अनुपस्थिति और सीमित आर्थिक संसाधनों के कारण प्रभावित हुई।
इस पुस्तक के अनुसार कुंवर सिंह नियमित तौर पर अपने पारिवारिक आवास से दूर रहते थे। उन्होंने चितौरा के जंगल में एक खूबसूरत मड़ई बनवाई जहां रहकर वे शिकार में निकलते थे। वे अक्सर जगदीशपुर के आसपास गांव 100 सवारों के साथ जंगलों में घूमा करते थे।
कुंवर सिंह और उनके भाई दयाल सिंह दोनों की शादी देव मूंगा स्टेट के राजा फतह नारायण सिंह की बेटियों से हुई थी।
उस समय के अंग्रेजी और पारसी दस्तावेजों के मुताबिक कुंवर सिंह की कई उपपत्नियां भी थी। उस समय के लिए आम बात थी। उनकी उपपत्नियों में धरमन बीवी का नाम सबसे चर्चित हैं जो उनकी खास पसंद थीं। शाहाबाद के गांवों में आज भी कुंवर सिंह का धरमन बीवी के लिए कुंवर सिंह के अत्यधिक प्रेम के किस्से सुने-सुनाए जाते हैं।
धरमन बीबी के जरिए बनाई गई दो मस्जिदें आरा और जगदीशपुर में
आज भी कायम हैं। धरमन बाई जगदीश पुर की पराजय के बाद कुंवर सिंह के साथ रीवा और अन्य जगहों पर भी साथ-साथ रहीं।
केके दत्ता लिखते हैं कि कुंवर सिंह के गद्दी पर बैठने के बाद से जगदीशपुर इस्टेट में शांति और सद्भावना और भव्यता का नया दौर शुरू हुआ। नये बाजार बनाये गये। कुएं और नहरें खुदवायी गयीं। जल्द ही जगदीश पुर मेलों और उत्सवों का केन्द्र बन गया। उन्होंने महादेव बाजार की नींव डाली।
कुंवर सिंह की दिलचस्पी जंगल लगाने में भी बहुत थी। उनके आदेश पर ही जगदीशपुर के जंगलों को बचाया और बढ़ाया गया। यही जंगल अंग्रेजों के खिलाफ उनके संघर्ष में बहुत काम आये। इन जंगलों में गोपनीय रास्ते बनाये गये जो सिर्फ कुंवर सिंह के साथियों को पता थे। इन रास्तों के इस्तेमाल से ही अंग्रेजों पर ऐसे अचानक हमले किये गये जिनकी उन्हें भनक तक नहीं लगती थी। बाद में इन्हीं जंगलों को काटकर उसकी लकड़ियों से अंग्रेजों ने रेलवे लाइन के स्लीपर्स बनवाये।
1857 का विद्रोह
हालांकि कुंवर सिंह की चर्चा 1857 के विद्रोह को लेकर होती है लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ हो रही गोलबंदी में उनका रोल और पहले यानी 1845-46 था। उस समय अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन कर रहे प्रमुख नामों में एक नाम पटना के सब्जी बाग निवासी राहत अली का नाम था जिनसे कुंवर सिंह का संपर्क था। पटना के अंग्रेज मजिस्ट्रेट को इस आंदोलन में बाबू कुंवर सिंह के भी शामिल होने का शक था। उस समय भी अंग्रेज विरोधी मोर्चा बनाने में कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि वे नेपाल के राजा के पास भी अंग्रेजों के अत्याचार की कहानी सुनाने गये थे। उस समय कुंवर सिंह को आगे के संघर्ष के लिए एक सशक्त सेना तैयार करने को कहा गया था। उन्होंने एंगलो-सिख युद्ध में सिखों की मदद के लिए जाने वाले थे।
इस सूचना के बाद पटना के मजिस्ट्रेट ने शाहाबाद के मजिस्ट्रेट को खत लिखकर इस बात की जांच करने को कहा कि कुंवर सिंह की जांच कर उन्हें पकड़े लें।शाहाबाद के मजिस्ट्रेट जैकसन ने ईस्ट इंडिया सरकार को लिखा कि बाबू कुंवर सिंह को गिरफ्तार करने से जन विद्रोह की संभावना है। इसके बदले उन्हें समन देने का फैसला किया गया।
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