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मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कर अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का मसला एक बार फिर चर्चा में आ गया है। मराठा आरक्षण को लेकर सुनवाई कर रही उच्चतम न्यायालय़ के पीठ ने इस मसले पर विचार करने का मन बनाया है। दरअसल मंडल रिपोर्ट भले ही विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने लागू करने का फ़ैसला किया था, लेकिन उसे अंतिम रूप से इंदिरा साहनी मामले में 1992 में आए उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद लागू किया गया था।
मंडल कमीशन रिपोर्ट सहित भारत में अब तक के सभी आरक्षणों का प्रमुख आधार सत्ता में उचित हिस्सेदारी न होना रहा है। इसमें यह तर्क दिया जाता रहा है कि जातीय भेदभाव के कारण देश की तमाम जातियों को शासन-प्रशासन और शिक्षा से वंचित रहना पड़ा और उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देने की जरूरत है, जिससे देश की बड़ी संख्या में शासन सत्ता से वंचित जातियां भागीदारी पा सकें और इस देश को अपना देश महसूस कर सकें।
तमाम राज्यों ने बगैर किसी आधार के और राजनीतिक दबाव और वोट बैंक बनाने के लिए तमाम जातियों को अनुसूचित जाति एवं जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग में डालने की क़वायद की।
इस सूची में किसी जाति या वर्ग को शामिल किए जाने के लिए मानदंड तय हैं, जिससे यह राज्य विधानसभाओं में पारित हो जाता है, लेकिन आगे की सुनवाई में मामले टिक नहीं पाते और ऐसे वर्गों को आरक्षण नहीं मिल पाता। वहीं तमाम राज्यों ने उचित तरीके से छानबीन करके वंचित तबके को आरक्षण दिया है और आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ऊपर गई है, जबकि कई न्यायिक फ़ैसलों में यह सीमा 50 प्रतिशत रखने की ही वकालत की गई है।
आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा रखने के न्यायलय के विभिन्न फैसलों का सम्मान करते हुए ही मंडल कमीशन की रिपोर्ट में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत की गई है। रिपोर्ट में कहा गया,
“हिंदू और गैर हिंदू ओबीसी की आबादी कुल आबादी की करीब 52 प्रतिशत है। इसी के मुताबिक केंद्र सरकार के सभी पदों पर ओबीसी के लिए 52 प्रतिशत पद आरक्षित होने चाहिए। लेकिन यह प्रावधान उच्चतम न्यायालय के तमाम फैसलों के खिलाफ जाता है, जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) के तहत आरक्षण की कुल मात्रा 50 प्रतिशत से नीचे होनी चाहिए। इसे देखते हुए ओबीसी के लिए आरक्षण एससी और एसटी के लिए निर्धारित 22.5 प्रतिशत आरक्षण को जोड़कर 50 प्रतिशत से नीचे होना चाहिए। कानूनी बाध्यताओं को देखते हुए आयोग ओबीसी के लिए सिर्फ 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की सिफारिश करता है, हालांकि अन्य पिछड़े वर्ग की असल आबादी इस आँकड़े का क़रीब दोगुना है।”
नरेंद्र मोदी सरकार ने आरक्षण का आधार ही बदल दिया है। नौकरियों व शिक्षा में उचित प्रतिनिधित्व देने का मसला छोड़कर मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है।
संभवतः इसका मकसद सवर्णों की गरीबी दूर करना है। हालांकि मोदी सरकार के इस फ़ैसले पर कोई खास चर्चा नहीं हुई और न ही उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में स्थगनादेश दिया है। इस आरक्षण का आधार न तो सामाजिक चिंतक पूछ रहे हैं और न ही न्यायालय पूछ रहा है कि सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण दे देने से सवर्णों की गरीबी कैसे दूर होगी? और अगर ग़रीबी दूर होगी तो इसका कितना असर होगा?
क्या ग़रीबी दूर करने की इस प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा ग़रीब यानी रेलवे स्टेशन के सामने भीख माँगने वाले गरीब, मंदिर के सामने बैठकर भीख माँगने वाले ग़रीब, या मोहल्ले में घूमकर भीख माँगने वाले ग़रीब में विभेद किया गया है कि किस तरह के ग़रीब को नौकरी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, ताकि उनकी गरीबी खत्म हो सके? इन तमाम मसलों पर चर्चा किए बगैर सरकार ने सवर्णों को संतुष्ट करने के लिए आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके को 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया।
मराठा, जाट, कापू, गुर्जर, पटेल सहित देश में जितने भी आरक्षण आन्दोलन चल रहे हैं, उनमें विभिन्न सरकारें अब तक कोई आधार तय नहीं कर पाईं कि इन तबकों को किस आधार पर उनकी माँग के मुताबिक आरक्षण दिया जाए?
राजनीतिक दबाव में राज्य सरकारें आरक्षण का प्रावधान करती हैं, जो केंद्र सरकार के स्तर पर या विभिन्न न्यायालयों में अटक जाते हैं। वहीं जिन राज्यों ने उचित सर्वे कराकर और प्रतिनिधित्व न होने का हवाला देकर क़ानून का पालन करते हुए फ़ैसले किए हैं, उन राज्यों में 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा आरक्षण लागू किया गया है।
न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता में न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति आर रवीन्द्र भट्ट की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने राज्यों को नोटिस जारी कर सभी राज्यों को नोटिस जारी करते हुए कहा कि वह इस मुद्दे पर भी दलीलें सुनेगी कि क्या इंदिरा साहनी मामले में 1992 में आए ऐतिहासिक फैसले, जिसे ‘मंडल फैसला’ के नाम से जाना जाता है, उस पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है।
मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था, “आयोग की सिफारिशें लागू करने की अवधि के बारे में आयोग की राय है कि पूरी योजना को 20 साल के लिए लागू की जानी चाहिए और उसके बाद इसकी समीक्षा की जानी चाहिए।”
मंडल कमीशन ने 40 प्वाइंट में सिफ़ारिशें की थीं। साथ ही सिफ़ारिशों को लागू कर 20 साल में इनकी समीक्षा करने को कहा था। इन्हें कभी लागू नहीं किया गया। मुख्य रूप से कमीशन की 2 सिफारिशें लागू हुईं। वी. पी. सिंह के समय सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। उसके बाद मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कराया।
मंडल आयोग की बाकी सिफारिशें धूल फाँक रही हैं। लेकिन इस बात पर चर्चा ज़रूर शुरू हो गई कि न्यायालय के जिस फ़ैसले के आधार पर नरसिम्हा राव सरकार ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था, उसकी समीक्षा कर दी जाए।
न्यायालय से लेकर समाजशास्त्री तक जाति जनगणना के मसले पर खामोश हैं। इस जनगणना की माँग मंडल कमीशन ने भी की थी, जिससे यह पता चल सके कि देश में वंचित लोग कौन हैं और उनकी संख्या कितनी है? जब तक यह गणना नहीं हो जाती, आँकड़ों के साथ यह समझ पाना मुश्किल होगा कि किस वर्ग के लिए आरक्षण की ज़रूरत और उसका आधार क्या है।
बहरहाल न्यायालय ने राज्यों से जवाब माँगा है। अब यह देखना है कि राज्य मंडल कमीशन पर 1992 के उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले पर पुनर्विचार कराना चाहते हैं या नहीं। और अगर कोई पुनर्विचार होता है तो किस तरह का पुनर्विचार होने जा रहा है। क्या यह सिर्फ आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक रखने या न रखने तक सिमटा रहता है, या कोई बड़ी बेंच मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के फैसले को पलट देती है।
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