पांचों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अभी जन सभाओं और रैलियों पर रोक है। राजनीतिक दलों को उम्मीद है कि अब यह रोक ख़त्म हो जाएगी, इसलिए कई बड़े नेताओं के बड़े कार्यक्रम तय भी कर लिए गए हैं। उत्तर प्रदेश में अकेले बहुजन समाज पार्टी ही ऐसा राजनीतिक दल है जिसने अभी तक कोई बड़ा कार्यक्रम या रैली का आयोजन तय नही किया।
बीएसपी नेता मायावती सोशल मीडिया के माध्यम से ही अपनी बात कह रही हैं और उनके कार्यकर्ता डोर टू डोर मीटिंग्स कर रहे हैं। बहुत से राजनीतिक जानकार मायावती की इस चुप्पी को कभी बीजेपी के साथ गोपनीय गठजोड़ क़ा नाम दे रहे हैं तो कभी बीएसपी का राजनीति के हाशिये पर जाना तय मान रहे हैं। मेरे मित्र और दलित चिंतक विचारक प्रोफेसर बद्नी नारायण कहते हैं, “अगर आप मायावती को इस चुप्पी के आधार पर मौजूदा राजनीति में नज़रअंदाज़ करने की ग़लती कर रहे हैं तो यह आपकी बड़ी भूल होगी। मायावती ना तो चुप हैं और ना ही निष्क्रिय, वो और उनकी पार्टी लगातार अपने वोटर से संपर्क में हैं। कभी भाईचारा सम्मेलन के माध्यम से तो कहीं डोर टू डोर कैंपेन से और सोशल मीडिया पर भी उनका लगातार संपर्क है, साथ ही यह भी याद रखिए कि उनका वोट बैंक उनके साथ जुड़ा हुआ है।”
एक और दलित विचारक प्रोफेसर रविकांत भी मानते हैं कि फिलहाल मायावती को सत्ता का दावेदार माना जाए या नहीं, लेकिन उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्या मायावती इन चुनावों में ‘किंगमेकर’ हो सकती हैं, के सवाल पर रविकांत ने कहा कि मायावती कभी ‘किंगमेकर’ की भूमिका में नहीं होतीं, ऐसे हालत में वो खुद “किंग” बनती हैं।
यूपी का राजनीतिक इतिहास देखें तो समझ आएगा। मायावती अब तक चार बार मुख्यमंत्री बनी हैं, इनमें से तीन बार वो कम सीटों के बावजूद ‘किंगमेकर’ के बजाय खुद सत्ता के सिंहासन पर बैठी हैं। वैसे इस बार के अब तक आए ओपिनियन पोल और सर्वेक्षणों की बात मानें तो इस बार बीएसपी का प्रदर्शन पिछली बार से भी कम और अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहने वाला है यानी वो राजनीतिक हाशिए पर पहुंचने वाली हैं।
सर्वेक्षणों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश का चुनाव अब दो पार्टियों- बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच कांटे का मुकाबला हो गया है जिसमें फ़िलहाल प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुख्यमंत्री योगी आगे हैं, लेकिन अखिलेश यादव का ग्राफ़ तेजी से बढ़ रहा है, तो क्या मायावती या बीएसपी की इन चुनावों में कोई भूमिका नहीं होगी, क्या चार बार मुख्यमंत्री रहने वाली नेता को इस तरह से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।
यूपी के चुनावी इतिहास के मुताबिक़ पिछले विधानसभा चुनाव में साल 2017 में लोगों को लग रहा था कि समाजवादी पार्टी के खिलाफ लहर का फायदा बीएसपी को मिलेगा और वो सत्ता में वापसी करेगी, लेकिन उस चुनाव में पार्टी का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा।
बीएसपी को केवल 19 सीटें मिलीं और वोटों में हिस्सेदारी थी 22.23 फीसदी। करीब इतने ही वोटों पर समाजवादी पार्टी को 47 सीटें मिल गईं जबकि बीजेपी ने सबसे बेहतर प्रदर्शन करते हुए 312 सीटों के साथ सरकार बना ली। कांग्रेस को केवल 7 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
प्रोफ़ेसर अभय दुबे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि बीएसपी के वोटों की हिस्सेदारी उसी अनुपात में सीटों पर नहीं बदलती जैसा समाजवादी पार्टी के साथ होता है क्योंकि बीएसपी को पूरे प्रदेश में वोट मिलता है यानी वोट तो मिल जाते हैं, लेकिन वो सीटों में नहीं बदलते। बीएसपी को सीटों में ताक़त बढ़ाने के लिए कम से कम तीस फ़ीसदी वोटों की ज़रूरत होती है, इतना वोट फ़िलहाल उसे मिलता नहीं दिखता।
पिछली बार मायावती ने 13 मई 2007 को चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और सात मार्च 2012 तक वो लखनऊ में पंचम तल पर बैठती रहीं। यानी अब दस साल पूरे हो जाएँगे। मायावती इससे पहले बीजेपी के समर्थन से तीन जून 1995 से 18 अक्टूबर 1995 तक, फिर 21 मार्च 1997 से 21 सितम्बर 1997 तक मुख्यमंत्री रहीं।
उत्तर प्रदेश के बंटवारे के बाद साल 2002 में हुए चुनाव में यूपी विधानसभा सीटों की संख्या 425 से घटकर 403 हो गई। इन चुनावों में बीएसपी ने 401 सीटों पर लड़कर 98 सीटें हासिल कीं। बीएसपी को तब 23.06 फ़ीसदी वोट मिले थे। इस चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत न मिलने की वजह से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। यह 56 दिन तक लागू रहा। फिर बीजेपी की मदद से मायावती 3 मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक मुख्यमंत्री रहीं। उसके बाद मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने।
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मायावती कम सीटों के बावजूद बीजेपी के समर्थन से तीन तीन बार मुख्यमंत्री बन गईं। साल 2007 आते-आते उन्हें समझ आया कि अकेले दम पर सरकार बनाने के लिए अपने दलित वोट बैंक से आगे बढ़ना होगा और तब पार्टी ने ‘बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय’ के नारे को बदल कर ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का नारा दिया। नया नारा मिला- ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ और ब्राह्मणों को साथ लाने की खास कोशिश की गई। ब्राह्मण सम्मेलन किए, उनके समाज को ज़्यादा टिकट दिए गए। उस चुनाव में बीएसपी ने 206 सीटें हासिल कीं और वोट मिले कुल 30.43 फ़ीसदी। तब समाजवादी पार्टी को 97 और बीजेपी को सिर्फ़ 51 सीटें मिलीं। कांग्रेस का आँकड़ा 22 तक ही पहुंचा। मायावती की उस सरकार में क़ानून व्यवस्था तो पुख्ता रहने की बात हुई, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों में वह घिर गईं।
इसके बाद हुए साल 2012 के चुनाव में बीएसपी को सरकार के ख़िलाफ़ खासी नाराज़गी का सामना करना पड़ा, उसकी सीटें एक तिहाई रह गईं और केवल 80 सीटें मिल पाईं।
वोट में हालाँकि सिर्फ़ 5 फीसदी की कमी आई, तब उसे 25.91 फीसदी वोट मिले। तब समाजवादी पार्टी ने चुनाव तो मुलायम सिंह यादव की लीडरशिप में लड़ा, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी। समाजवादी पार्टी को तब 224 सीटें मिली थी। बीजेपी इन चुनावों में अपने सबसे कम सीटों 47 और कांग्रेस 28 सीटों के साथ विधानसभा पहुंची।
उत्तर प्रदेश की वोटों की गणित में आमतौर पर सुरक्षित सीटों का खासा असर रहता है यानी जिस पार्टी ने ज़्यादा सुरक्षित सीटों पर कब्ज़ा किया, सरकार उसी की बन पाई। प्रदेश में 86 सुरक्षित सीटें हैं, इनमें से साल 2017 में बीजेपी ने 76 सीटें जीतीं। इससे पहले साल 2012 के चुनाव में जब अखिलेश यादव ने सरकार बनाई थी तब उन्हें 403 में से जो 226 सीटें मिलीं उनमें 85 में से 58 सीटें सुरक्षित जीती थीं। इसी तरह साल 2007 में मायावती जब मुख्यमंत्री बनीं तब 89 सुरक्षित सीटों में से 61 बीएसपी ने जीती। लोकसभा सीटों के नजरिए से समझें तो यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 17 सुरक्षित सीटें हैं। 2019 में बीजेपी ने 14, अपना दल ने एक और बीएसपी ने 2 सीटें जीतीं।
हो सकता है कि बीएसपी अपने दलित वोट बैंक में से एक बड़े हिस्से को अपने साथ रखने में कामयाब हो सके, लेकिन दूसरे समुदायों से वोट में उसकी हिस्सेदारी बढ़ने की फ़िलहाल संभावना नहीं दिख रही है। दलित वोट बैंक क़रीब 20 फ़ीसदी है, लेकिन एक ताक़तवर पार्टी होने के लिए भी बीएसपी को कम से कम 25 फ़ीसदी वोटों की ज़रूरत पड़ेगी, तभी उनका यह नारा काम आ पाएगा कि ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी’ और अब बीजेपी भी वो पुराने वाले नेतृत्व की बीजेपी नहीं रह गई है जो आसानी से किसी को मुख्यमंत्री बना दे। याद रखने के लिए पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना बेहतर उदाहरण हो सकते हैं। अभी तो चुनावी चाय के प्याले में तूफान से पहले की शांति है।
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