उपराष्ट्रपति का चुनाव दो दिन बाद होना हो और संसद की कार्यवाही चल रही हो तब क्या राज्यसभा में प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को समन भेजा जा सकता है? क्या सदन की कार्यवाही छुड़ाकर 8 घंटे की पूछताछ की जा सकती है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति होते हैं। यह सवाल इसलिए और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राज्यसभा और राज्यसभा सांसद के विशेषाधिकार से भी जुड़ा है।
ईडी के समन भेजने के अधिकार से बड़ा अधिकार राज्यसभा का विशेषाधिकार है। यह विशेषाधिकार राज्यसभा को ऐसे समन को अमल में आने से रोकने का अधिकार देता है। खुद राज्यसभा सांसद भी इस समन का पालन करने से इनकार कर सकते थे लेकिन ऐसा वे किस मुंह से करते जब खुद राज्यसभा ही उनके पीठ पर खड़ी ना हो।
उपराष्ट्रपति के वोटर से पूछताछ पर चुनाव आयोग क्यों मौन?
आपत्ति उपराष्ट्रपति उम्मीदवार मार्ग्रेट अल्वा या जगदीप जनखड़ भी उठा सकते थे कि उनके वोटर को मतदान से ठीक दो दिन पहले समन कर परेशान नहीं किया जा सकता। मगर, मल्लिकार्जुन खड़गे अकेले पड़ गये। खड़गे से ऐसी पूछताछ हुई कि उपराष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार मार्ग्रेट अल्वा की बुलायी डिनर में भी वे शामिल नहीं हो सके। यह निश्चित रूप से चुनाव आचार संहिता का भी उल्लंघन है जिस पर संज्ञान चुनाव आयोग को लेना चाहिए।
क्या यह राज्यसभा सांसद के विशेषाधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या राज्यसभा के पीठासीन पदाधिकारी को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए- चाहे वे उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू हों या फिर उपसभापति हरिवंश? क्या उनकी चुप्पी लोकतंत्र का गला नहीं घोंट रही है?
अनुच्छेद 105 की उड़ी धज्जियां
संसद और सांसदों के विशेषाधिकार संविधान के अनुच्छेद 105 में उल्लिखित हैं। एक सांसद को संसद सत्र चलने के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। दीवानी या आपराधिक किसी भी मामले में एक सांसद पर कार्रवाई करने से पहले स्पीकर या सभापति या उपसभापति से अनुमति लेना जरूरी है।
ईडी को अदालत के समकक्ष ही समझा जाना चाहिए क्योंकि समन भेजने से लेकर गिरफ्तार करने तक के अधिकार ईडी के पास होते हैं। बहुतेरे विशेषाधिकार और उन्मुक्तियों के रहते मल्लिकार्जुन खड़गे से ईडी ने जो पूछताछ की है उसमें राज्यसभा और राज्यसभा सांसद दोनों के विशेषाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन होता दिखता है।
चौंकाने वाली है उपसभापति की चुप्पी
जब संसद या सांसद के विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां तय हो रही थीं तब ईडी का जन्म नहीं हुआ था। 2002 में एक कानून के तहत जिस ईडी का जन्म 2005 में हुआ, उसे भले ही संसद या सांसद के विशेषाधिकार का पता न हों। लेकिन, स्पीकर या उपसभापति इसे कैसे भूल सकते हैं?
राज्यसभा की कार्यवाही शुरू होते ही मल्लिकार्जुन खड़गे ने सदन को बता दिया था कि उनके पास ईडी का समन है। सदन की कार्यवाही को छोड़कर उन्हें ईडी के समन का पालन करना है। अब आगे की जिम्मेदारी राज्यसभा के पीठाधीश की होनी चाहिए थी। पीठाधीश मौन रह गये। जवाब देने लग गये केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल- “कोई गलत करेगा तो केंद्रीय एजेंसिया अपना काम करेंगी ही।”
पीयूष गोयलजी! विशेषाधिकार के सामने सुप्रीम कोर्ट भी लाचार
केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल को पता होना चाहिए कि केंद्रीय एजेंसिया क्या सर्वोच्च न्यायालय तक अपना काम नहीं कर सकतीं जब संसद और सांसद का विशेषाधिकार आड़े आ जाता है। यह विशेषाधिकार विधायिका का एक्सक्लूसिव पावर है। यह लोकतंत्र में संसद की सर्वोच्चता का सबूत है। इस सर्वोच्चता को लोकतंत्र के बाकी स्तंभ चुनौती देने की सोच भी नहीं सकते।
अनुच्छेद 105 पूरी संसद- चाहे लोकसभा हो या राज्यसभा- के लिए इतना बड़ा रक्षा कवच है कि अंदर गोली भी चल जाए, हत्या भी हो जाए तो कोई अदालत इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। स्पीकर या सभापति या उपसभापति का फैसला ही अंतिम होगा। ऐसे में ईडी की इतनी हिम्मत कि वह सदन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सदन की कार्यवाही छोड़ने को विवश कर दे! विवश मल्लिकार्जुन खड़गे नहीं हुए हैं, विवश हुआ है सदन।
खड़गे के लिए कोई विकल्प नहीं था। वे ईडी की हिरासत में जाने को विवश थे। तकनीकी रूप से कोई प्रश्न उठा सकता है कि मल्लिकार्जुन खड़गे हिरासत में नहीं थे। मगर, समन और समन का पालन करते हुए 8 घंटे तक पूछताछ में शरीक होना हर दृष्टि से हिरासत माना जाएगा। खड़गे गिरफ्तार भी होते तो भी उनका माननीय सदन जिनके वे माननीय सदस्य हैं, उन्हें बचाने के लिए खड़ा नहीं था।
क्या डर जाएगा प्रतिपक्ष?
ईडी की कार्रवाई को उपराष्ट्रपति के चुनाव में मतदाता को डराने वाली कार्रवाई के तौर पर देखा जाना चाहिए। प्रतिपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी के नेता को मतदान से ठीक दो दिन पहले निशाना बनाया जाना भी वोटरों को डराने के समान है। चुनाव आयोग तक भी इस पर संज्ञान ले सकता था, लेकिन चुनाव आयोग ने अब इन विषयों पर ध्यान देना भी छोड़ दिया है।
यह सब क्यों हुआ या हो रहा है? लोकतंत्र के विभिन्न अंगों पर सत्ताधारी दल के बहुसंख्यकवाद का असर साफ तौर पर दिखने लगा है। ईडी के दुरुपयोग की कहानी उसके अपने आंकड़े कहते हैं। 5422 मामलों में सिर्फ 23 को सज़ा दिला सकी है ईडी। 992 मामले अंडरट्रायल चल रहे हैं। इन मामलों में सत्ता पक्ष के लोग नहीं हैं। सिर्फ विपक्ष के नेता ही ईडी के निशाने पर हैं।
ईडी का इस्तेमाल राजनीतिक निष्ठा बदलने, सरकार गिराने या सरकार बनाने में किया जा रहा है। जब तक नेता राजनीति में सत्ताधारी दल के खिलाफ होते हैं, ईडी उन्हें डरा रही होती है और जैसे ही वह अपनी निष्ठा बदल लेता है ईडी उसके साथ नरम हो जाती है।
अब ईडी का इस्तेमाल सदन के विशेषाधिकारों को भी खत्म करने के लिए किया जाने लगा है। यह बेहद गंभीर स्थिति है। ईडी कार्यपालिका का एक हिस्सा भर है जो अर्धन्यायिक भी है। मगर, विधायिका के सामने ईडी की क्या बिसात! लेकिन, ये सब बातें किताबी हैं।
ज़मीनी हकीक़त यही है कि ईडी के सामने राज्यसभा या राज्यसभा सदस्य की कोई अहमियत नहीं है। अनुच्छेद 105 की शक्ति की परवाह तक ईडी को नहीं है तो निश्चित जानिए कि इस ईडी के साथ कोई और ही बड़ी शक्ति खड़ी है।
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