सूरत की सेशन्स कोर्ट द्वारा राहुल गांधी को दी गई ज़मानत और सज़ा के निलंबन की खबर के बाद कांग्रेस को कितने उत्साह के साथ राहत की सांस लेना चाहिए ? जमानत को ही राहत के लिए पर्याप्त मान लेना चाहिए या निचली अदालत द्वारा सुनाई गई सज़ा के ख़िलाफ़ दायर अर्ज़ी के निपटारे तक उत्साह पर रोक लगाकर ख़ामोश रहना चाहिए ? कहा जा सकता है कि सूरत एपिसोड की निर्णायक शुरुआत अब हुई है ! कोई निर्णय आने तक के देश का राजनीतिक सस्पेंस बना रहने वाला है। लोकसभा सदस्यता की बहाली के लिए सज़ा पर स्टे ज़रूरी है। अपनी सज़ा के ख़िलाफ़ दायर अर्ज़ी में राहुल गांधी ने जो तर्क कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किए हैं उसका एक-एक शब्द झकझोर देने वाला है।
सूरत की निचली अदालत द्वारा 23 मार्च को सुनाई गई सजा के बाद से चले घटनाक्रम से कांग्रेस और भाजपा के दो अघोषित ओपिनियन पोल्स संपन्न हो गए हैं ! कांग्रेस के लिए यह कि राहुल के ख़िलाफ़ हो सकने वाले किसी अदालती फ़ैसले अथवा राजनीतिक विद्वेष की कार्रवाई की देश की जनता, बाहरी मुल्क और विपक्षी दलों पर किस तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है ! भाजपा के लिए यह कि विपक्ष के एक प्रभावशाली नेता के ख़िलाफ़ होने वाली कार्रवाई प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि और पार्टी के वोट बैंक को कितनी क्षति पहुँचा सकती है ?
इस सवाल का कोई भी ईमानदार जवाब राहुल गांधी ही दे सकते हैं कि सूरत में जो कार्रवाई 3 अप्रैल को की गई वह 24 या 27 मार्च को ही क्यों नहीं हो सकती थी ? देश को ग्यारह दिनों तक संशय में क्या भाजपा के इस प्रचार-प्रहार की प्रतीक्षा में रखा गया कि फ़ैसले को चुनौती देने के तमाम क़ानूनी दरवाज़े खुले होने के बावजूद राहुल गांधी ‘विक्टिम कार्ड’ खेल कर वोटों की राजनीति करना चाह रहे हैं या फिर कोई और कारण था ?
एक कारण यह हो सकता है कि राहुल गांधी 2-3 अप्रैल के पहले तक तय नहीं कर पा रहे हों कि उन्हें किसकी सलाह मानकर अंतिम निर्णय लेना चाहिए ? निचली अदालत की सज़ा के ख़िलाफ़ अपील में हुए विलंब से अब यह संदेश अवश्य जा सकता है कि महत्वपूर्ण मसलों पर भी कांग्रेस अंदर से एकमत नहीं है। ऐसा मानकर चलने से राहुल गांधी की कोई अवमानना भी नहीं हो जाएगी कि जिस तरह की सहानुभूति उन्होंने सज़ा सुनाए जाने और लोकसभा की सदस्यता से निष्कासन के बाद देश और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त की थी न सिर्फ़ उसमें ही बल्कि उनकी अविस्मरणीय ‘भारत जोड़ो यात्रा ‘ की उपलब्धियों में भी पार्टी के असमंजस और उनकी लीगल टीम की कमज़ोरियों ने सेंध लगा दी !
यह एक हक़ीक़त है कि जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे आगे की क़ानूनी कार्रवाई को लेकर कांग्रेस का अंदरूनी संकट उजागर होता जा रहा था। पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी नेतृत्व के असली इरादे पता नहीं चल पा रहे थे। ऐसा भी मान कर चला जा रहा था कि राहुल शायद अपील न भी करें , तीस दिनों की मियाद ख़त्म होने के अंतिम दिनों में करें या फिर जेल में प्रवेश करने के बाद ही इस दिशा में कोई कदम उठाएं !
इस सवाल का उत्तर किसी आगे की तारीख़ के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है कि क्या पार्टी के किसी प्रभावशाली ख़ेमे के दबाव के चलते ही राहुल को आगे की क़ानूनी कार्रवाई के लिए राज़ी होना पड़ा ? कांग्रेस के एक तबके की ऐसी सोच भी रही है कि चाहे कुछ समय के लिए ही सही राहुल को एक बार तो जेल अवश्य जाना चाहिए। ऐसा हो जाने से कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में ज़्यादा आक्रामक बनकर प्रकट होगी ! पार्टी की अंदरूनी लड़ाइयाँ भी बंद हो जाएँगी और वह एक होकर भाजपा से मुक़ाबले के लिये जुट जाएगी।
दूसरी ओर, राहुल की अनुपस्थिति में विपक्षी दल भी आपसी एकता के प्रयास ज़्यादा ईमानदारी से करेंगे ! विपक्षी नेताओं को सरकार की मुखालफत के लिए राहुल की मौजूदगी की अहमियत भी तब ज़्यादा संजीदगी से समझ आएगी। जनता भी सरकार के ख़िलाफ़ हरकत में आने लगेगी ! सबसे बड़ी उपलब्धि यह कि भाजपा प्रतिरक्षात्मक मुद्रा में आ जाएगी !
समूचे घटनाक्रम से जो एक बात स्पष्ट नज़र आती है वह यह कि राहुल गांधी को लेकर भाजपा में ख़ासा भय व्याप्त हो गया है। राहुल अगर अपनी सूरत यात्रा कुछ दिनों के लिए टाल देते या वहाँ जाते ही नहीं तो भाजपा के सामने उत्पन्न होने वाली चुनौतियों की केवल कल्पना ही की जा सकती है। कहा जा सकता है कि राहुल गांधी के सूरत पहुँचकर ज़मानत प्राप्त कर लेने से कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा ने ज़्यादा राहत महसूस की होगी। भाजपा समझ गई है कि राहुल गांधी का कुछ दिनों के लिए भी जेल जाना उसका पूरा चुनावी एजेंडा बदल सकता है। राहुल गांधी कांग्रेस के पक्ष में 1980 का इतिहास दोहरा सकते हैं। सूरत की निचली अदालत के फ़ैसले के बाद राहुल गांधी ने सरकार की ओर अंगुली उठाते हुए कहा भी था : ‘आपने विपक्ष के हाथों में एक बड़ा हथियार दे दिया है।’
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