उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को विधानसभा चुनाव के बाद विधान परिषद में भी बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी है। इसके बाद समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ख़िलाफ़ पार्टी में मुसलिम नेताओं ने मोर्चा खोल दिया है। आज़म ख़ान और शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ से लेकर से लेकर कई मुसलिम नेताओं की नाराज़गी सामने आई है। इससे लगने लगा है मुसलमानों का समाजवादी पार्टी और ख़ासकर इसके अध्यक्ष अखिलेश यादव मोहभंग हो रहा हो रहा है। लेकिन सवाल यह है कि अखिलेश से नाराज़ मुसलमानों के पास विकल्प क्या है?
क्या है अखिलेश से नाराज़गी की वजह?
समाजवादी पार्टी के तमाम मुसलिम नेता अखिलेश पर ही आरोप लगा रहे हैं कि मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है और अखिलेश यादव पूरी तरह चुप हैं। इस दर्द को समाजवादी पार्टी के लंभुआ सुल्तानपुर विधानसभा के सचिव सलमान जावेद राइनी ने पार्टी से दिए अपने इस्तीफे में बयां किया है।
ज़िला अध्यक्ष को भेजे अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा है, “मुसलमानों के साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ, प्रदेश से लेकर दिल्ली तक सत्ता की मलाई खाने वाले समाजवादी पार्टी के पदाधिकारियों, नेताओं का आवाज़ न उठाना, आज़म ख़ान साहब को परिवार सहित जेल में डाल दिया गया!नाहिद हसन को जेल भेजा गया! शहज़िल इस्लाम का पेट्रोल पंप गिरा दिया गया! अखिलेश यादव खामोश रहे! जो कायर नेता अपने आपको विधायकों के लिए भी आवाज़ नहीं उठा सकता वो आम कार्यकर्ता के लिए क्या आवाज उठाएगा।।।?”
सलमान राइनी ने यह चिट्ठी सोशल मीडिया पर भी साझा की है। यह जमकर वायरल हो रही है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुसलमानों के बीच किस तरह समाजवादी पार्टी के खिलाफ माहौल बन रहा है।
पार्टी में बढ़ा नाराज़गी का दायरा
सलमान जावेद राइनी पार्टी नेतृत्व के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले अकेले नेता नहीं है। उनसे पहले संभल से सांसद शफ़ीकुर्रहमान बर्क़ अखिलेश यादव के ख्याल ख़िलाफ़ बयान दे चुके हैं। विधान परिषद के लिए हुए मतदान वाले दिन मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि वो बीजेपी के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं। बीजेपी सरकार मुसलमानों के हित में काम नहीं कर रही है। बीजेपी तो छोड़िए समाजवादी पार्टी ही मुसलमानों के हित में काम नहीं कर रही।
बर्क़ के बाद समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म ख़ान के मीडिया प्रभारी ने भी अखिलेश यादव के नेतृत्व गंभीर सवाल उठाए थे। उनकी नाराज़गी इस बात को लेकर है कि आज़म खान ढाई साल से जेल में बंद हैं। अखिलेश यादव उनकी रिहाई की कोशिश तो को छोड़िए आवाज तक नहीं उठाई।
आज़म ख़ान के परिवार की तरफ से मीडिया प्रभारी के इस बयान पर कोई टिप्पणी नहीं आई है। इसलिए माना जा रहा है कि यह बयान आज़म खान की सहमति से दिया गया है। मुसलिम नेताओं की इस नाराज़गी से समाजवादी पार्टी में हड़कंप मचा हुआ है।
मुसलिम संगठनों का भी सपा से मोहभंग
समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव से मुसलमानों के मोहभंग होने वाले दायरा बढ़ता जा रहा है विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का समर्थन करने वाले मुसलिम संगठनों ने भी मुसलमानों से समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ने की अपील कर दी है। बरेलवी मसलक के सबसे बड़े संगठन ऑल इंडिया तंजीम उलमा-ए-इस्लाम ने इसकी शुरुआत की है। संगठन के राष्ट्रीय सचिव मौलाना शहाबुद्दीन रजवी ने बाक़ायदा एक बयान जारी करके मुसलमानों से सपा का साथ छोड़ने और विकल्प तलाशने की अपील की है। इसके साथ ही उन्होंने मुसलमानों को बीजेपी का विरोध नहीं करने की सलाह भी दे डाली है।
मौलाना शहाबुद्दीन रजवी ने अपने बयान में कहा है कि मुसलमानों में डर और निराशा है मगर वे सकारात्मक रहें। यह विश्लेषण करने की ज़रूरत है कि हम किस के साथ खड़े हैं और कहां खड़े हैं।
अखिलेश की नेतृत्व क्षमता पर सवाल
समाजवादी पार्टी के मुसलिम नेताओं के साथ अब मुसलिम संगठन भी अखिलेश यादव के नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठा रहे हैं। खासकर विधान परिषद के चुनाव में समाजवादी पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद यह सवाल और पुख्ता होकर उभर रहे हैं। दरअसल समाजवादी पार्टी के गढ़ समझे जाने वाले इटावा मैनपुरी और आज़मगढ़ जैसे ज़िलों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई है। इससे आम धारणा बन रही है कि अखिलेश यादव अपने ही लोगों को बीजेपी में जाने से नहीं रोक पा रहे।
शहाबुद्दीन रजवी ने भी अपने बयान में इस मुद्दे को उठाया या है। उन्होंने कहा है कि विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को एक तरफा वोट दिया था। इससे पार्टी की ताक़त तो बढ़ी मगर उसकी सरकार नहीं बन सकी। इसके लिए अखिलेश यादव पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं। वो अपने समुदाय यानी यादव वोटरों को एकजुट रखने में पूरी तरह नाकाम रहे। यादव बहुल 43 विधानसभा सीटों पर बीजेपी की जीत इसका ठोस सबूत है।
मुसलमान कर रहे विकल्पों पर विचार
सबसे अहम और बड़ा सवाल यह है कि अखिलेश यादव से नाराज होने वाले पार्टी के भीतर के नेताओं और मुसलिम संगठनों के पास आखिर विकल्प क्या है सबसे पहले और करते हैं कि मौलाना शहाबुद्दीन रजवी ने अपने बयान में क्या कहा है। उन्होंने कहा है, “मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता का ठेका लेना बंद कर देना चाहिए। राजनीति और भागीदारी पर नए सिरे से बात करें। एक ख़ास पार्टी के सहारे रहकर साथ कुछ नहीं मिलेगा। इसके अलावा दूसरे विकल्प पर विचार करें। किसी के ख़िलाफ़ होकर दुश्मनी नहीं लेनी चाहिए।”
इससे साफ़ है कि वह मुसलमानों को बीजेपी से दुश्मनी का भाव त्यागने की अपील कर रहे हैं और बीजेपी के साथ जुड़ कर हिस्सेदारी मांगने की बात कर रहे हैं। विधान परिषद के चुनाव में तमाम चुने हुए मुसलिम प्रतिनिधियों ने खुले तौर पर बीजेपी को वोट दिया है बीजेपी के टिकट पर जीतने वाले कई सदस्यों ने खुले तौर पर यह स्वीकार किया है कि उनके क्षेत्र से उन्हें मुसलिम ग्राम प्रधानों जिला पंचायत के सदस्यों चेयरमैन हों और नगर पालिका व पंचायत अध्यक्षों के साथ-साथ पार्षदों के वोट भी मिले हैं।
क्या बसपा हो सकती है विकल्प?
पिछले तीन दशकों से उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के लिए सपा और बीएसपी दो ही विकल्प रहे हैं। कांग्रेस 1989 में सत्ता से बाहर होने के बाद पूरी तरह से हाशिए पर रही है। इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी को हुआ है। उसका करीब 10% वोट कम हुआ है। जबकि सपा का 10% वोट बढ़ा है। इसका मतलब ये है कि भविष्य में समाजवादी पार्टी ही बीजेपी का विकल्प बन सकती है।
बीएसपी में बीजेपी का विकल्प बनने की ताक़त अब नहीं रही। ऐसे में समाजवादी पार्टी से नाराज़ मुसलमानों के लिए बीएसपी मज़बूत विकल्प नहीं हो सकती।
वैसे भी जिन मुद्दों पर समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी है उन मुद्दों पर बीएसपी प्रमुख मायावती का भी वही रवैया है जो अखिलेश यादव का है। ऐसे में बीजेपी को हराने की सोच रखने वाले मुसलमानों के लिए बीएसपी मज़बूत और भरोसेमंद विकल्प नहीं हो सकती।
बीएसपी का पुराना रिकॉर्ड बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का है। इस बार विधानसभा चुनाव में भी बीएसपी के बारे में यह चर्चा आम थी कि अगर बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो वह बीएसपी की वजह से सरकार बना सकती है।
क्या उभर सकता है मुसलिम नेतृत्व?
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि आज़म और शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ जैसे मुसलिम नेता असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर कोई मुसलिम मोर्चा खड़ा कर सकते हैं। हालांकि इस बात की संभावना है बहुत कम है। इसका कोई तार्किक आधार भी नहीं है।
मुसलिम नेतृत्व वाली कई पार्टियां पहले ही मुसलमानों का उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई है। आज़म ख़ान भले ही अपनी कट्टर मुसलिम छवि के लिए जाने जाते हों लेकिन राजनीति उन्होंने हमेशा धर्मनिरपेक्षता की ही की है। समाजवादी पार्टी से 6 साल के लिए निकाले जाने जाने के बाद भी उन्होंने न अपनी अलग पार्टी बनाई थी और न ही किसी दूसरी पार्टी का दामन थामा था।
राजनीति में क़यास लगते रहते हैं। पार्टियों के भीतर नाराज़गी चलती रहती है। ये बग़ावत में तब तक नहीं बदलती जब तक सामने कोई ठोस विकल्प न हो। समाजवादी पार्टी के भीतर नाराज चल रहे मुसलिम नेताओं के सामने विकल्प का संकट है।
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