मोदी सरकार और बीजेपी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जी-जान से जुटे हुए हैं। लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 350 पार का आंकड़ा हासिल करने की रणनीति बनाकर चुनावी तैयारियों में जुट गई है। वहीं कांग्रेस लोकसभा चुनाव तो छोड़िए, इसी साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों में मजबूती से खड़ी होती नहीं दिख रही।
चुनाव वाले राज्यों में कांग्रेस को एक के बाद एक झटका लग रहा है। हाल ही में जम्मू कश्मीर में पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने चुनाव अभियान समिति की कमान संभालने से इंकार कर दिया था। इस झटके से कांग्रेस अभी उबरी भी नहीं थी कि हिमाचल प्रदेश में वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर पार्टी आलाकमान को सकते में डाल दिया है।
आनंद शर्मा ने क्यों दिया इस्तीफा?
आनंद शर्मा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा है। पत्र में आनंद शर्मा ने लिखा कि 26 अप्रैल को हिमाचल कांग्रेस की स्टीयरिंग कमिटी का प्रमुख बनाने के बावजूद आज तक उनकी भूमिका स्पष्ट नहीं की गई। उन्होंने लिखा कि बीते दिनों दिल्ली और शिमला में हिमाचल चुनाव को लेकर हुई पार्टी की महत्वपूर्ण बैठकों में भी उन्हें नहीं बुलाया गया। इन वजहों से हिमाचल कांग्रेस स्टीयरिंग कमेटी प्रमुख के पद से इस्तीफा देते हुए आनंद शर्मा ने साफ किया है कि वे पार्टी के चुनाव अभियान का सहयोग करते रहेंगे।
आनंद शर्मा को हिमाचल प्रदेश के सबसे बड़े नेताओं में माना जाता है। उन्होंने अपने पत्र में कांग्रेस अध्यक्ष को बताया है कि उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंची है क्योंकि उन्हें पार्टी की किसी भी बैठक में नहीं बुलाया गया। गौरतलब है कि कांग्रेस में आलाकमान से नाराज चल रहे नेताओं के गुट जी-23 का हिस्सा आनंद शर्मा भी रहे हैं।
कांग्रेस के लिए बड़ा झटका
आने वाले नवंबर में गुजरात के साथ ही हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं इसलिए शर्मा के इस्तीफे को कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। ये सच है कि शर्मा हिमाचल प्रदेश में कभी जमीनी नेता नहीं रहे। उन्होंने सिर्फ़ एक बार 1982 में विधानसभा का चुनाव लड़ा था। उसके बाद से वह लगातार राज्यसभा में जाते रहे हैं। वे मनमोहन सिंह की दोनों सरकारों में मंत्री रहे।
पिछले साल उनका राज्यसभा का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं मिला। बताया जाता है कि इस वजह से वो पार्टी आलाकमान से नाराज चल रहे हैं। कई बार उन्होंने कांग्रेस आलाकमान के फैसलों पर सवाल उठाए हैं। वह जी-23 का भी हिस्सा रहे हैं।
हिमाचल में बढ़ गई कांग्रेस की चुनौती
हिमाचल प्रदेश में एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी की सरकार बनने का सिलसिला कई दशकों से चला रहा है। 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की तत्कालीन सरकार को हटाकर बीजेपी सत्ता में आई थी। तब बीजेपी ने जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया था। चुनाव में बीजेपी को राज्य की कुल 68 सीटों में से 44 सीटों पर जीत हासिल हुई थी जबकि कांग्रेस महज 21 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। कांग्रेस को उस चुनाव में 15 सीटों का नुक़सान हुआ था। जबकि बीजेपी को 18 सीटों का फायदा हुआ था। बीजेपी को 48.8% और कांग्रेस को 41.7% वोट मिले थे। इस बार कांग्रेस के सामने बीजेपी की मौजूदा सरकार को हराकर राज्य की सत्ता हासिल करने की बड़ी चुनौती है।
हिमाचल कांग्रेस में वर्चस्व की जंग!
दरअसल, बाकी राज्यों की तरह हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेसी नेताओं के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई है। नेताओं के बीच आपसी तालमेल बैठाने के लिए वहाँ के प्रभारी राजीव शुक्ला काफी कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कई प्रयोग किए हैं। कुछ महीने पहले प्रतिभा सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी संतुलन बनाने के लिए उनके साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए गए। लेकिन पार्टी में बवाल ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। 4 दिन पहले ही पार्टी के दो विधायक पवन काजल और लखविंदर राणा बीजेपी में शामिल हो गए हैं।
इन दोनों को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने जेपी नड्डा की मौजूदगी में पार्टी में शामिल कराया। बीजेपी की तरफ़ से दावा किया जा रहा है कि कांग्रेस के कुछ और विधायक उनके साथ आ सकते हैं। दरअसल बीजेपी इस बार हिमाचल प्रदेश में चुनाव जीत कर एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी की सरकार बनने की पुरानी परंपरा को तोड़ना चाहती है। कांग्रेस बीजेपी के इस मंसूबे पर पानी फेरने में फिलहाल नाकाम होती दिख रही है।
आज़ाद ने भी दिया है कांग्रेस को झटका
आनंद शर्मा से पहले गुलाम नबी आजाद भी कांग्रेस को जम्मू कश्मीर में झटका दे चुके हैं। पार्टी आलाकमान ने गुलाम नबी आजाद को जम्मू कश्मीर में चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया था। लेकिन इस समिति के ऐलान के कुछ घंटे बाद ही गुलाम नबी आज़ाद ने ज़िम्मेदारी संभालने से मना कर दिया। आजाद के इस फ़ैसले से जम्मू कश्मीर में कांग्रेस की सत्ता में वापसी की संभावनाओं को बड़ा झटका लगा है।
दरअसल, आज़ाद के नेतृत्व में ही 2 साल पहले कांग्रेस के 23 नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर पार्टी को पूर्णकालिक और सक्रिय अध्यक्ष देने की मांग की थी। नेताओं के इसी गुट को जी-23 नाम दिया गया था। तभी से गुलाम नबी आजाद और कांग्रेस आलाकमान के बीच मनमुटाव चल रहा है।
कांग्रेस आलाकमान ने आजाद को बड़ी जिम्मेदारी देकर इस मनमुटाव को दूर करने की कोशिश की थी। उन्होंने यह जिम्मेदारी संभालने से इनकार करके अपने इरादे साफ कर दिए।
गुजरात में भी लगा था बड़ा झटका
कुछ दिन पहले कांग्रेस को गुजरात में भी बड़ा झटका लगा था। गुजरात विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे नरेश रावल और गुजरात से राज्यसभा सदस्य रहे राजू परमार कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए। इससे पहले लगभग एक साल की रस्साकशी के बाद युवा नेता हार्दिक पटेल ने भी कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया था। हार्दिक पटेल ने भी कांग्रेस आलाकमान पर अपनी अनदेखी का आरोप लगाया था।
गुजरात के चुनाव कांग्रेस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। 2017 में कांग्रेस ने 77 सीटें जीतकर बीजेपी को कड़ी चुनौती दी थी। बीजेपी 99 सीटों पर सिमट गई थी। लेकिन बाद में कांग्रेस के 14 विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा देकर बीजेपी का दामन थाम लिया था। अभी भी चर्चा चल रही है कि कांग्रेस के कुछ और भी नेता बीजेपी में जा सकते हैं।
बीजेपी गुजरात और हिमाचल की अपनी सरकार बचाने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही है। दोनों ही राज्यों में बीजेपी चुनाव जीतकर यह साबित करना चाहती है कि उसकी सरकारों के ख़िलाफ़ राज्यों में किसी तरह की सत्ता विरोधी लहर नहीं है। वहीं कांग्रेस बीजेपी को चुनौती देने के लिए डट कर खड़ी तक नहीं हो पा रही है। उसके कद्दावर नेता साथ छोड़ कर भाग रहे हैं। इससे कांग्रेस में हताशा और निराशा है। इस सूरत में राजनीतिक विश्लेषक सवाल उठा रहे हैं कि कांग्रेस अगर विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में मज़बूती से खड़ी भी नहीं हो पाएगी तो चुनाव कैसे जीत पाएगी।
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