ढाई महीने पहले तक जिस श्रीलंका में ऊपरी तौर पर सिर्फ़ बिजली संकट दिख रहा था वहाँ अब कंगाली है। यानी फ्यूल संकट के साथ ही, भोजन का संकट, अप्रत्याशित महंगाई, अर्थव्यवस्था चौपट और अब तो राजनीतिक संकट भी। श्रीलंका के सामने जिस तरह की आर्थिक हालत महीनों पहले थी, कुछ उसी तरह की स्थिति दुनिया के कई अन्य देशों के सामने अब है। तो सवाल है कि क्या उन देशों के सामने भी श्रीलंका जैसा ख़तरा मंडरा रहा है? आख़िर इन देशों की आर्थिक और राजनीतिक हालत कैसी है?
इन सवालों का जवाब पाने से पहले यह जान लें कि श्रीलंका किन हालात में कंगाल हुआ। आम तौर पर श्रीलंका की इस हालत के लिए 2019 के बाद के घटनाक्रमों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। आर्थिक मामलों के जानकार भी और राजनीतिक मामलों के जानकार भी श्रीलंका के दिवालियेपन के पीछे यही वजह बता रहे हैं। 2019 ही वह साल है जब मौजूदा राजपक्षे सरकार सत्ता में आई थी। अब जो श्रीलंका की हालत है, उसके लिए इस परिवार के शासन के तौर-तरीक़ों पर सवाल उठाया जा रहा है। कहा तो यह जा रहा है कि इसकी पटकथा 2019 में ही तब लिख दी गई थी जब चुनाव होने वाले थे।
नवंबर 2019 के चुनाव से पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार गोटाबाया राजपक्षे ने लोगों को रिझाने वाली कई घोषणाएँ की थीं। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया, करों में कटौती जैसी घोषणाएँ कीं। वह सत्ता में आए।
लेकिन चुनाव से पहले एक भविष्यवाणी भी की गई थी। चुनाव से पहले तत्कालीन सरकार में वित्त मंत्री मंगला समरवीरा ने मूल्य वर्धित कर यानी वैट को 15% से घटाकर 8% करने और अन्य लेवी को ख़त्म करने की राजपक्षे परिवार के वादों पर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, 'अगर इन प्रस्तावों को इस तरह लागू किया जाता है तो न केवल पूरा देश दिवालिया हो जाएगा, बल्कि पूरा देश एक और वेनेजुएला या दूसरा ग्रीस बन जाएगा।' उनकी भविष्यवाणी को सच होने में लगभग 30 महीने लग गए।
राजपक्षे ने चुनाव जीतने के बाद करों को कम किया। नतीजा सामने था। अन्य देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम राजस्व मिला और उस पर कर्ज बढ़ता गया। व्यापक मंदी की आशंका सबसे पहले महामारी के साथ सामने आई। इसने अचानक पर्यटन और रेमिटेंस से राजस्व को छीन लिया।
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने श्रीलंका को डाउनग्रेड किया। इससे बचने के लिए सरकार ने मुद्राएँ छापीं। इससे देश में बेतहाशा मुद्रास्फीति बढ़ी। खाने के सामान भी आयात करने पड़े और विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया।
कुछ ऐसे ही आर्थिक हालात कई और देशों के हो सकते हैं। पारंपरिक ऋण संकट मुद्राओं के क्रैश करने, विदेशी मुद्रा भंडार के ख़त्म होने के कुछ ऐसे संकेत हैं जो अब कई विकासशील देशों में दिखते हैं। रायटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, श्रीलंका, लेबनान, रूस, सूरीनाम और जाम्बिया पहले से ही डिफ़ॉल्ट रूप में हैं, बेलारूस उसके कगार पर है और कम से कम एक दर्जन खतरे के दायरे में हैं। ऐसा इसलिए है कि बढ़ती उधार लागत, मुद्रास्फीति और ऋण, सभी आर्थिक पतन की आशंकाओं की ओर इशारा करते हैं।
कई जानकारों को उम्मीद है कि कई देश अभी भी डिफ़ॉल्ट से बच सकते हैं, खासकर अगर वैश्विक बाजार शांत हो और आईएमएफ उन देशों को सहयोग देने को आगे आए।
यूक्रेन व अर्जेंटीना
अर्जेंटीना में मुद्रा भंडार गंभीर रूप से कम है। सरकार के पास 2024 तक के लिए कोई पर्याप्त ऋण भी नहीं है। पेसो अब काला बाज़ार में लगभग 50% की छूट पर कारोबार कर रहा है। इसके अलावा यूरोपीय देश यूक्रेन भी संकट में है। रायटर्स की रिपोर्ट के अनुसार रूस के हमले का मतलब है कि यूक्रेन को निश्चित रूप से अपने 20 बिलियन डॉलर से अधिक के ऋण का पुनर्गठन करना होगा। ऐसा मॉर्गन स्टेनली और अमुंडी जैसे हैवीवेट निवेशकों ने चेतावनी दी है। यूक्रेन की आर्थिक हालत को लेकर निवेशक सशंकित हैं जो वहाँ गंभीर संकट की ओर संकेत देते हैं।
युद्धग्रस्त यूक्रेन को लेकर निवेशकों की गंभीर चिंताएँ हैं और ये अकारण नहीं हैं।
पाकिस्तान भी संकट में
पाकिस्तान ने इस सप्ताह आईएमएफ़ के साथ एक महत्वपूर्ण सौदा किया है। ऊर्जा आयात की ऊँची कीमतों के कारण देश के सामने भुगतान संतुलन का संकट है। विदेशी मुद्रा भंडार 9.8 अरब डॉलर तक गिर गया है। यह आयात के पांच सप्ताह के लिए मुश्किल से ही पर्याप्त है। पाकिस्तानी रुपया कमजोर होकर रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गया है। नई सरकार को अब तेजी से खर्च में कटौती करने की ज़रूरत है क्योंकि वह अपने राजस्व का 40% ब्याज भुगतान पर खर्च करती है।
ट्यूनीशिया
अफ्रीका में कई ऐसे देश हैं जिनकी हालत ख़राब है। लेकिन इनमें भी ट्यूनीशिया सबसे अधिक जोखिम में है। लगभग 10% बजट घाटा है। ट्यूनीशिया मॉर्गन स्टेनली की संभावित शीर्ष तीन संकटग्रस्त देशों की सूची में है। घाना की भी आर्थिक स्थिति बेहद डाँवाडोल है और वहाँ महंगाई भी 30 फीसदी के करीब पहुंच रही है।
केन्या अपने राजस्व का लगभग 30 प्रतिशत ब्याज भुगतान पर खर्च करता है। इसके बांडों की लगभग आधा क़ीमत कम हो गई है और वर्तमान में पूंजी बाजारों तक इसकी कोई पहुंच नहीं है।
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