जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाली संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक बैठक, बाकू, में लगभग असफल ही रही। विकसित देश सिर्फ़ अपने बारे में सोचने में लगे हैं उन्हें विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण से पैदा होने वाली चुनौतियों की कोई फ़िक्र नहीं है। इसलिए विकासशील देशों को स्वयं अपने बारे में सोचना चाहिए। यह बात भारत जैसे दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या और ख़तरनाक जनसंख्या घनत्व वाले देश के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। चुनाव परिणामों के वेग में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत वायु प्रदूषण की आपदा के मुहाने पर खड़ा है। 65 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या के मामले में भारत, चीन के बाद दुनिया में दूसरे स्थान पर है। भारत में लगभग 9 करोड़ बुजुर्ग हैं। जबकि 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, ऐसे बच्चों की संख्या भारत में 11 करोड़ से भी अधिक है। वैसे, वायु प्रदूषण किसी भी उम्र वर्ग को नहीं बख़्शता लेकिन देश की यह 20 करोड़ जनसंख्या वायु प्रदूषण से सबसे अधिक प्रभावित होती है। इतनी बड़ी जनसंख्या, सीमित क्षेत्रफल, लचर विनियामक संस्थाओं और लगभग शून्य जागरूकता वाले देश भारत के लिए वायु प्रदूषण एक ‘साइलेंट आपदा’ है।
चुनावों के शोरगुल में 22 लाख मौतों की रिपोर्ट छिप जाएगी क्या?
- विमर्श
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- 24 Nov, 2024

प्रतिष्ठित ब्रिटिश जर्नल BMJ ने पाया है कि भारत में हर साल लगभग 22 लाख मौतें वायु प्रदूषण से हो रही हैं। आख़िर ख़राब हवा से हो रही मौतें मुद्दा क्यों नहीं बन पातीं?
भारत की राजधानी दिल्ली, नीतिगत अनदेखी का एक क्लासिक उदाहरण है। इसी अनदेखी का ही परिणाम है कि दिल्ली में PM2.5 कणों का स्तर 150 माइक्रोग्राम/घन मीटर के आसपास बना हुआ है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) कहता है कि किसी भी हालत में यह संख्या 5 (वार्षिक औसत) और 15 ( प्रति 24 घंटे) से अधिक नहीं होना चाहिए। कारण यह है कि WHO का मानना है कि ये कण स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक होते हैं क्योंकि ये सूक्ष्म कण फेफड़ों के माध्यम से प्रवेश करके रक्त प्रवाह से होते हुए विभिन्न अंगों तक जाकर उन्हें नकारात्मक रूप से प्रभावित करते रहते हैं।