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क्या यूपी के चुनावी समीकरण बदल देंगी मायावती? 

10 और 14 फरवरी को पहले और दूसरे चरण में जाटलैंड कहे जाने वाले पश्चिमी यूपी की 113 सीटों पर मतदान होगा। यहाँ चुनाव प्रचार जोरों पर है। अमित शाह से लेकर योगी आदित्यनाथ कैराना और मुजफ्फरनगर में जाकर सपा सरकार में हुए दंगों और बिगड़ी कानून व्यवस्था को याद ही नहीं दिला रहे हैं बल्कि बहुत आक्रामकता के साथ 'गर्मी शांत करने' का ऐलान कर रहे हैं। जाहिर है, जयंत चौधरी और अखिलेश यादव उन पर जवाबी हमला कर रहे हैं। जयंत और अखिलेश यादव के साथ भारी जनसमर्थन दिख रहा है।

पिछले साल हुए किसान आंदोलन के प्रति मोदी सरकार की बेरहमी, आवारा पशुओं की समस्या और महंगाई-बेरोजगारी जैसे मुद्दों के कारण किसानों-नौजवानों में भाजपा के प्रति बहुत गुस्सा है। जयंत और अखिलेश द्वारा योगी आदित्यनाथ पर किए जा रहे पलटवार से आरएलडी और सपा के समर्थक-कार्यकर्ता अति उत्साहित हैं। भाजपा के प्रत्याशी, मंत्री और विधायकों का पश्चिमी यूपी के गाँवों में जाना और प्रचार करना मुश्किल हो रहा है। आरएलडी के कार्यकर्ता बीजेपी नेताओं को खदेड़कर भगा रहे हैं। इस तरह के तमाम वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो रहे हैं। सपा के कार्यकर्ता और समर्थक भी बड़े जोश के साथ ऐसे वीडियो 'खदेड़ा होबे' टैग के साथ शेयर कर रहे हैं।

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सपा के कार्यकर्ताओं के इस व्यवहार से आम जनमानस में बहुत सकारात्मक संदेश नहीं जा रहा है। योगी आदित्यनाथ और अमित शाह द्वारा सपा पर लगाए जा रहे दबंगई के आरोपों को ऐसे वीडियो हवा दे रहे हैं। गैर जाट और गैर यादव समाज में इसका नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। क्या इसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिलेगा?

दरअसल, भाजपा की यही रणनीति थी कि मीडिया और भाषणों के सहारे चुनाव को भाजपा और सपा के बीच दो ध्रुवीय बनाया जाए। फिर सपा पर दबंगई और मुसलिमपरस्ती के आरोप लगाकर लोगों को सपा के साथ जाने से डराया जाए। तीसरा विकल्प नहीं होने की स्थिति में भाजपा से नाराज गैर यादव मतदाता उसकी ओर लौटने के लिए मजबूर होंगे। लेकिन मायावती द्वारा बिछाई गई बिसात से भाजपा की रणनीति असफल होती हुई दिख रही है।

मायावती ने खामोशी से अपनी कुशल रणनीति के जरिए चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है। सामाजिक समीकरणों को साधते हुए मायावती ने अपने मजबूत प्रत्याशियों के जरिए बसपा को मुकाबले में लाकर खड़ा कर दिया है। अब मायावती बीती सरकारों की अपनी उपलब्धियों को अपने कार्यकर्ताओं के मार्फत जनमानस में पहुँचा रही हैं। सामाजिक परिवर्तन, निर्माण कार्य और रोजगार देने के अलावा बसपा सरकार (2007-2012) की उपलब्धियों में क़ानून व्यवस्था प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है।

बीजेपी सरकार के पास चुनाव मैदान में जाने के लिए कोई उल्लेखनीय सकारात्मक उपलब्धि नहीं है। इसलिए बीजेपी कथित मजबूत कानून व्यवस्था को योगी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश कर रही है।

बीजेपी इसके मार्फत एक साथ दो निशाने साधना चाहती है। मुसलमानों का पैशाचीकरण करके सपा को उनका समर्थक साबित करना बीजेपी की चुनावी रणनीति का हिस्सा है।

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दरअसल, पश्चिमी यूपी के चुनाव प्रचार में क़ानून व्यवस्था को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। यह सच है कि योगी सरकार की 'ठोको नीति' द्वारा कुछ माफिया और दबंगों को ठिकाने लगाया गया है। हालाँकि यह नीति चाक चौबंद कानून व्यवस्था से अधिक दहशत का कारण बनी है। अपराध ख़त्म करने का दावा करने वाली इस नीति को भेदभावपरक तरीके से लागू किया गया। योगी आदित्यनाथ पर आरोप है कि उनके सजातीय माफिया और दबंग आज भी पूरे रौब के साथ घूमते और क्रिकेट खेलते हुए नज़र आते हैं। असल में, ठोको नीति और कानून व्यवस्था के शिकार ऐसे दलित, पिछड़े और खासकर कमजोर मुसलिम हुए हैं; जिन पर बहुत साधारण अपराधिक मुक़दमे दर्ज थे। 

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गौरतलब है कि बीजेपी द्वारा उठाए गए क़ानून व्यवस्था के मुद्दे और समाजवादी पार्टी की मुसलिमपरस्ती और दबंगई के आरोपों से चुनाव में बीजेपी के बजाय बसपा को फायदा मिलते हुए दिख रहा है। दरअसल, यूपी की पिछले तीन दशक की राजनीति में मायावती का शासन भेदभाव रहित सबसे मज़बूत कानून व्यवस्था के लिए जाना जाता है। किसान से लेकर व्यापारी तक; सभी उनके सख्त कानून व्यवस्था और दुरुस्त प्रशासनिक कामकाज को आज भी शिद्दत से याद करते हैं। पत्रकार- बुद्धिजीवी आज भी साल 2010 के उस दिन को याद करते हैं; जब बाबरी मस्जिद और राम मंदिर विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला आया था। 

30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान और जस्टिस डीवी शर्मा ने अपने फ़ैसले में 2.77 एकड़ विवादित भूमि, हिन्दू महासभा, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को तीन हिस्सों में बांट दिया था। जाहिर है यह फैसला किसी भी पक्ष को स्वीकार्य नहीं था। लेकिन मायावती के मजबूत और चाक चौबंद कानून व्यवस्था के कारण इस फैसले को लेकर कहीं कोई विवाद या तनाव नहीं हुआ। 

मायावती ने फैसले की तारीख के दो दिन पहले ही पूरे यूपी के खास तौर पर शहरी इलाकों में सघन पुलिस गश्ती शुरू कर दी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि फैसला आने पर पूरे यूपी में कहीं कोई अराजकता या झगड़ा- फसाद नहीं हुआ।

आज सपा के साथ माना जाने वाला मुसलिम समाज भी मायावती के शासन में खुद को सुरक्षित महसूस करता है। मुसलिम समाज को अभी भी यकीन है कि मायावती के शासन में कोई सांप्रदायिक तनाव या दंगा नहीं हो सकता। इसलिए बीजेपी का कानून व्यवस्था का प्रचार बसपा के समर्थन में जाता हुआ दिख रहा है। इस मसले पर मायावती और बसपा के प्रति मजबूत होते जनविश्वास को देखकर बीजेपी मुश्किल में आ गई है। कभी बसपा को मुकाबले से बाहर मानने वाले बीजेपी नेता अमित शाह और योगी आदित्यनाथ अब मायावती पर जोरदार हमला बोल रहे हैं। इससे भी साबित होता है कि क़ानून व्यवस्था के मुद्दे से चुनावी लाभ बीजेपी के बजाय बसपा को मिल रहा है। अचानक लड़ाई में आई बसपा के कारण यूपी चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। 

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रविकान्त
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