...औरतों के ख़िलाफ़ जुल्म का मसला कितना बड़ा है, मैं यह महसूस करके भौचक्की रह जाती हूँ। हर उस औरत के मुक़ाबले, जो जुल्म के ख़िलाफ़ लड़ती है और बच निकलती है...कितनी औरतें रेत में दफ़न हो जाती हैं...बिना किसी कद्र और क़ीमत के, यहाँ तक कि क़ब्र के बिना भी। तकलीफ की इस दुनिया में मेरा दु:ख कितना छोटा है...।
अब एक और दु:ख पढ़िए। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के स्थानीय न्यायालय में विवाह विच्छेद और हर्ज़ाने की माँग का मामला आया। विवाहिता की बहन ने न्यायालय में दायर शपथ पत्र में कहा है कि उसकी बहन की शादी किला इलाक़े के व्यक्ति से 5 जुलाई 2009 को हुई और शादी के दो साल ठीक-ठाक चले।
तीन तलाक़ कहकर निकाला घर से
विवाहिता की बहन का आरोप है कि बच्चे न होने के कारण महिला के पति और उसके परिजनों ने उसे बाँझ कहकर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। अत्याचार बढ़ते गए और महिला के पति ने तलाक़-तलाक़-तलाक़ बोलकर 15 दिसंबर 2011 को उसे घर से निकाल दिया। लड़की के पिता ने ससुराल वालों से फ़ैसले पर फिर से विचार करने को कहा तो परिवार ‘हलाला’ की शर्त पर फिर से उसे अपने साथ रखने को सहमत हो गया। लड़की ने इसका विरोध किया तो उसे नशीली दवाएँ देकर उसके पति ने अपने पिता से ही लगातार 10 दिन तक ‘हलाला’ करा डाला।
इसके बाद महिला को उसके पति ने 2017 में फिर तलाक़ दे दिया। बीच-बचाव के बाद घर लाने पर उसका पति उसे अपने भाई के साथ ‘हलाला’ करने के लिए बाध्य करने लगा। इस बार महिला तैयार नहीं हुई और तब से यह मामला न्यायालय में पहुँच गया है।
महिला पर ही उठाई जाती है उंगली
जब भी इस तरह के मामले आते हैं तो कई तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं। सबसे पहले तो महिला के चरित्र पर उंगली उठाई जाती है। उसके बाद आपसी विवाद के चलते झूठे आरोप लगाने और मामले में फंसाने के आरोप लगते हैं। इसके अलावा इसके विरोध में बोलने वाले को धर्म का विरोधी भी घोषित किया जाता है।
सही बात का पक्ष नहीं लेते लोग
इस तरह के मामलों को जस्टिफ़ाई करने के लिए कुछ झूठे मामलों के उदाहरण दिए जाते हैं। अन्य किसी धर्म की किसी प्रथा का हवाला दिया जाता है कि वहाँ भी तो ऐसा ही होता है। यह बोलने वालों की संख्या बहुत कम होती है कि यह ग़लत है। जबकि पीड़ित महिला को न्याय मिलना चाहिए और उसकी रोजी-रोटी का इंतजाम होना चाहिए।
यह पूरे समाज का रुख है। जब इस तरह के मामले थानों में जाते हैं तो पुलिस का भी यही रवैया होता है। यहाँ तक कि बलात्कार के मामलों पर भी कई बार पुलिस और वहाँ मौजूद आरोपी का पक्ष एक तरफ़ हो जाता है और दोनों मिलकर महिला के साथ थाने में मौखिक, भाव-भंगिमाओं के माध्यम से लगातार बलात्कार करते हैं।
पीड़िता को ही ठहराया जाता है अपराधी
पीड़िता को सिर झुकाकर अपराधी की भाँति खड़े रहना पड़ता है, उसे समाज द्वारा यह अहसास पहले से ही दिलाया जा चुका होता है कि उसके अंग विशेष में जो इज्जत थी, वह लुट चुकी है। साथ ही बलात्कार के अपराध में पीड़ित होने के बावजूद उसे ही अपराधी साबित करने की क़वायद की जाती है।
माता-पिता को मिलती हैं गालियाँ
अगर बलात्कार की पीड़िता 5-6 साल की बच्ची हुई तो वह कोने में पड़ी बिलख रही होती है। उसके प्रति सहानुभूति तो होती है, लेकिन उसके माता-पिता को गालियाँ पड़ती हैं कि उसे सुनसान जगह जाने क्यों दिया, उस पर ध्यान क्यों नहीं रखा? इसका मतलब यह कि लड़की के पिता को यह मानकर चलना चाहिए कि भारत बलात्कारियों का देश है और अगर कहीं चूक हुई तो उसकी बच्ची पर बलात्कारी टूट पड़ेंगे। समाज और पुलिस व्यवस्था लड़कियों की उम्र उसके स्तन के आकार से नापती है और वह समाज और थानों में आँखों से ही नापा जाता है।
भले ही लड़की 18 साल की न हुई हो, लेकिन बलात्कार के मामले में उसे चरित्रहीन, कुलटा मान लिया जाता है और कहा जाता है कि उसने अपनी सहमति के साथ सेक्स किया है और वह बलात्कार के झूठे आरोप लगा रही है।
घर के अंदर भी होता है शोषण
आख़िर महिलाएँ न्याय की उम्मीद लगाएँ तो कहाँ और किससे? भारत में सवर्ण तबके़ में महिलाएँ घर के अंदर शोषित होती हैं और इज्जत के नाम पर उनके मामले घर के बाहर नहीं जाने दिए जाते। हालाँकि बाहर शोषण होने पर उन्हें रक्षा का हल्का सा जातीय कवच ज़रूर मिल जाता है। लेकिन उन ग़रीब महिलाओं का क्या, जिनकी थाने से लेकर न्यायालय या समाज की पंचायत तक में कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है।
महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद कम
भारत के शीर्ष न्यायालयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ख़राब है। 6 फरवरी 2019 को संसद में एक सवाल के जवाब में क़ानून मंत्री पी. पी. चौधरी ने सूचना दी कि 31 जनवरी 2019 तक के आंकड़ों के मुताबिक़ देश के 25 उच्च न्यायालयों में से 6 उच्च न्यायायलों - हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, तेलंगाना, त्रिपुरा और उत्तराखंड में महिला न्यायाधीश नहीं हैं। इतना ही नहीं, 25 उच्च न्यायालयों में 1079 न्यायाधीश के पद स्वीकृत हैं और इनमें सिर्फ़ 76 महिलाएँ हैं।
उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने इस स्थिति पर दुख जताते हुए ट्वीट किया है कि न्यायालय में जेंडर डायवर्सिटी को लेकर उपेक्षा अत्यंत दुखद है, स्वतंत्रता के 7 दशक बाद भी यह हालात हैं।
Shocking neglect of gender diversity in court, this seven decades after independence https://t.co/OLZ6artsqr
— indira jaising (@IJaising) February 6, 2019
एससी-एसटी, पिछड़े वर्ग को जगह नहीं
उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में भारत की 85 प्रतिशत आबादी कहे जाने वाले अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के न्यायाधीश क़रीब नदारद होने को लेकर आवाज़ बार-बार उठती रहती है। और ऐसे में यह कल्पना कर पाना भी संभव नहीं है कि इन 76 महिला न्यायाधीशों में एक भी महिला न्यायाधीश अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के परिवार की हो सकती है।
सवर्ण महिलाओं का व्यवहार घृणास्पद
सामान्यतया महिलाओं की आधी आबादी को प्रतिनिधित्वविहीन माना जाता है। कुछ हद तक यह सही भी है। लेकिन भारत में सवर्ण महिलाओं का व्यवहार अवर्ण महिलाओं के प्रति घृणास्पद ही रहता है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि मायावती जैसी प्रतिभाशाली नेता के ख़िलाफ़ महिलाएँ भी जमकर भड़ास निकालती हैं।
इसके अलावा अगर वंचित तबके को अधिकार दिए जाने की बात आती है तो उनका मुँह अजीब सा बन जाता है और उनकी प्रतिक्रिया बेहद ख़राब होती है।
पुरुष से भयावह पीड़ा झेलने वाली महिलाएँ खौफ़ के साये में होती हैं। उन्हें पुरुष किसी डरावने प्रेत की छाया की तरह नज़र आता है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि उन जगहों पर ऐसी महिलाएँ ताक़त में हों, जिन्हें वे अपना समझ सकें, अपनी बातें उनके सामने रख सकें।
वंचित तबक़े को मिले उचित हिस्सेदारी
समाज में जिस भी तरह का विभेद है, उसे ख़त्म करने का सबसे कारगर हथियार यही है कि हर जगहों पर वंचित तबक़े को समान प्रतिनिधित्व दिया जाए। बगैर उचित हिस्सेदारी के वंचित तबक़ा यह महसूस ही नहीं कर पाएगा कि देश, दुनिया और समाज उसका भी है। यह असंतोष को जन्म देता है। भारत और धार्मिक, सामाजिक, जातीय कुठाओं में डूबे पिछड़े देश असमानता की बारूद के पहाड़ पर खड़े हैं।
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