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अमृतकाल की विदाई वेला में महामना!

अब तो लोग पूछने लगे हैं कि अमृतकाल अब और कितने साल, कितने महीने या कितने दिन चलेगा....महामना इससे और भी कुपित हैं। वे पता नहीं क्या-क्या करेंगे अब। मगर भारत भाग्य विधाता तो फ़ैसला ले चुका है।
मुकेश कुमार

महामना उदास हैं। नाराज़ हैं, खीझे हुए हैं। मन कर रहा है कि कोई विधर्मी, कोई कांग्रेसी, कोई लिबरल, कोई कम्युनिस्ट कहीं मिल जाए तो उठाकर पटक दें, उसे जी भरके कूटें, गुजराती में मन भर के गरियाएं। 

ज़ाहिर है कि ये हताशा की चरम अवस्था है। इसमें दिन-रात हाथ-पाँव फड़फड़ाते रहते हैं। दिमाग़ में मारपीट के सीन चलते रहते हैं। 

पहले भी ये इच्छा होती थी, मगर ठोंकने की इच्छा या ठुकास दूसरी तरह से बुझ जाती थी। अब मॉब लिंचिंग की ख़बरों, ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स के किए से मन नहीं भर रहा। बुलडोजर भी तृप्ति प्रदान नहीं कर रहे। 

दरअसल, जब तक हाथ-पाँव की ठीक से सिंकाई न हो तब तक दुश्मन के साथ क्या किया और क्या नहीं किया। ठुंकने वाली की आह, ऊह सुनाई पड़नी चाहिए, उसकी रुलाई, दुहाई मन को जो शांति प्रदान करती है उसका कोई जवाब नहीं है।  

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वैसे महामना को ज़ुबानी ठुंकाई में भी बहुत मज़ा आ रहा था। वे उससे उस सुख की प्राप्ति कर लेते थे जो आज उनकी 56 इंची छाती डिमांड कर रही है। मगर अब क्या है कि उधर से भी जूते-चप्पल चलने लगे हैं, इसलिए मन खट्टा हो जाता है। 

वाक्-पिटाई का आनंद तभी तक रहता है जब तक ये इकतरफ़ा रहे, दूसरा जवाब देने में कमज़ोर हो या ज़ुबानी कमज़ोरी या लोकलाज के चलते जवाब न दे पाए। अर्थात् शालीनता और संस्कार सामने वाले को रोके रहें। मगर क्या ज़माना आ गया है। लोग संस्कारों की परवाह ही नहीं कर रहे। कम से कम अपने खानदान की प्रतिष्ठा का तो खयाल किया होता। मगर नहीं, महाशय तो अब और भी करारी भाषा में जवाब दे रहे हैं। महामना को इसकी आदत नहीं है। 

ये तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है कि कोई उन्हें नॉन बायोलॉजिकल कहकर ताने मारे, चिढ़ाए। अरे हमने कह दिया कि हम अवतारी लाल हैं तो हैं। चुपचाप मान लीजिए नहीं तो ईडी का नोटिस झेलिए, अदालत में जाकर नागरिकता साबित कीजिए। 

उन्हें वह आज्ञाकारी ऐंकर बाला याद आती है जिसने उनके नॉन बायोलॉजिकल होने पर बिलकुल भी शक़-शुबहा नहीं किया था। उन्होंने कहा और उसने मान लिया। उन्हें ऐसे ही पत्रकार, नेता और जनता पसंद हैं। अमृतकाल के यही तो सर्वोपरि लक्षण हैं। यही उसकी उपलब्धि भी है।  

लेकिन अब महामना को समझ में आने लगा है कि हो क्या रहा है। उन्हें दिखने लगा है कि अमृतकाल का अंत निकट आ रहा है। अमृतकाल का अमृत सूख गया है या क्या पता अमृत का घड़ा पहले से ही खाली था और अब हट्टा-कट्टा काल कंधे पर गदा लिए सामने खड़ा है। 

पहले उन्हें लगा था कि अमृतकाल लंबा चलेगा। 2047 की अवधि तो उन्होंने फेंकी थी। लेकिन उन्हें लगता था कि तब तक नहीं तो कम से कम 5-10 साल तो चलेगा ही चलेगा।

अयोध्या कांड के बाद तो उन्हें पक्का यक़ीन हो गया था कि राम लला ने उनके रूप में अवतार लिया है। उसी रौ में वे नॉन बायोलॉजिकल हो गए थे। सरयू पार खड़े होकर उन्हें चार सौ पार दिख रहे थे। शत्रु नेता बेऔकात और शत्रु सेना बौनी दिख रही थी। वे स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट मान रहे थे। राज दरबार में सेंगोल की स्थापना वे कर ही चुके थे।

वास्तव में वे उस समय ट्रांस में जी रहे थे, पारलौकिक या आलौकिक हो गए थे। उन्हें लग रहा था कि इस समस्त पृथ्वी लोक में उन जैसा सुदर्शन और शक्तिवान कोई है ही नहीं। दर्पण में अपनी छवि को निहारते हुए अकसर वे किसी को याद करते हुए लजा जाते थे। 

वे खुद को एक सुपर स्टार के रूप में पाते थे। कल्पनालोक में खो जाते थे। धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की तरह गुंडे विपक्ष को पटक-पटककर मारते थे। यहाँ सुंदरियों की बात करना उचित नहीं है, वे ब्रम्हचर्य व्रत का दृढ़ता से पालन करते हैं।

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उन्हें इस बात का भी पक्का यक़ीन हो गया था कि उनकी जन्मस्थली वडनगर में एक दिन उनका भी अयोध्या जैसा ही भव्य मंदिर बनेगा। मंदिर परिसर में तीन और मूर्तियाँ लगेंगी। एक उनके अपने चरम कुटिल हनुमान की और दो परम मित्रों की। 

फिर उन्हें डाउट हुआ था कि पता नहीं पार्टी के लोग उन्हें ये सम्मान दें न दें। मार्गदर्शन मंडल में भेजकर वैसे ही न निपटा दें जैसे उन्होंने निपटाया था। इसलिए उन्होंने तय किया था कि अपने रहते ही ये काम भी संपन्न कर देना उचित होगा। 

वैसे उस समय उन्हें ही क्यों पूरे मीडिया को लग रहा था कि वे महायोद्धा हैं, अपराजेय हैं। लाइन लगाकर इंटरव्यू ले रहे ऐंकरगण, गणिकाएं भी तो उन पर मुग्ध थे। वे उनकी दिव्यता के सामने खुद को कितना बौना समझ रहे थे। उनकी मुख मुद्राएं-भाव-भंगिमाएं बता रही थीं कि महामना कितने महान हैं, ऊंची चीज़ हैं। इसीलिए वे उनसे प्रश्न ही नहीं पूछ पा रहे थे। प्रश्न पूछने जाते थे तो जुबान साथ नहीं देती थी, शब्द प्रशंसा में बदल जाते थे।

महामना को ये भी लगा था कि जब ये लोग इतने मोहित हैं तो मतदाता कितने सम्मोहित होंगे। वे भला महामना के अलावा किसी विकल्प को क्यों स्वीकार करेंगे। उन्हें कहां मिलेगा ऐसा ईश्वरतुल्य नेता।

ये तो उनका सौभाग्य है जो खुद भगवान उनका नेतृत्व करने के लिए पृथ्वीलोक पर पधारे हैं। हाथ हिलाते हाथ मिलाते..... इधर से उधर, उधर से इधर यात्रा करते नेताओं को भला वे क्यों चुनेंगे। क्या उनकी मति मारी गई है। 

लेकिन विधाता को कुछ और ही मंज़ूर था। उसने मतदाताओं की बुद्धि फेर दी। उसने चित्रगुप्त से महामना का रजिस्टर मँगाया और उनके धतकर्मों का हिसाब लगाकर देखा तो पाया कि मृत्युलोक पर भारी गड़बड़ी चल रही है। महामना के कर्मों के हिसाब से तो कुछ और होना चाहिए था, मगर हो कुछ और गया। अकेले गुजरात दंगों का दंड ही नरक भेजने के लिए काफी था। 

बस विधाता ने तुरंत तय कर दिया कि चलो हो गया अमृतकाल पूरा। अब फटाफट निपटाओ मामले को। किसी ने आरटीआई डाल दी या कहीं चित्रगुप्त सेवा की ऑडिट हो गई तो ऊपर से नीचे तक सब नप जाएंगे। स्वर्ग में गाँधी ने उपवास शुरू कर दिया तो और मुसीबत खड़ी हो जाएगी, उनके समक्ष तो ब्रम्हा, विष्णु, महेश भी लाचार हो जाते हैं। 

लेकिन महामना नॉन बायोलॉजिकल होते हुए भी ये सब नहीं देख पाए। शायद सत्तामोह ने उनकी दिव्यदृष्टि हर ली होगी। चार जून को उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि वे नॉन बायोलॉजिकल नहीं बायोलॉजिकल हैं। ये उनके लिए बड़ा सदमा था। देश की पैंसठ प्रतिशत जनता ने उन्हें नकार दिया था। उनको कट टू साइज़ कर दिया था। छाती का नाप भी बदल दिया था। 

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और ये तो ग़ज़ब ही हो गया कि जहाँ से उन्हें नॉन बायोलॉजिकल होने का महाज्ञान प्राप्त हुआ था, वहीं की पुण्यभूमि में उनकी प्रतिष्ठा धूल धूसरित हो गई। धर्मच्युत मतदाताओं ने उन्हें वहीं हरा दिया। ये एक बुरा संकेत था, अपशकुन था, मगर उनकी बुद्धिमत्ता दग़ा दे गई। वे इसी मुगालते में रहे कि सब कुछ ठीक है, अमृतकाल अभी जारी है। 

उन्हें ये समझ में ही नहीं आया कि ये तो अभी शुरुआत है। अमृतकाल की विदाई वेला तो आ चुकी थी। कर्मों का चक्र चल पड़ा था। इसलिए राम मंदिर चूने लगा, अयोध्या का राम पथ धंस गया, लाखों की स्ट्रीट लाइट चोरी हो गईं। ज़मीनों की लूट का पर्दाफ़ाश हो गया। जगह-जगह पुल गिरने लगे। रेलें पटरियों से उतरने लगीं, आपस में टकराने लगीं। विदेश नीति की पोल खुली। परम मित्र के चलते एक बार फिर से घोटाला खुल गया। पार्टी के अंदर खटपट होने लगी, उन्हें अहंकारी, प्रतिशोधी, नाकारा कहा जाने लगा। बैसाखियाँ हिलने लगीं। यानी जहाँ-जहाँ उन्होंने परदे डाल रखे थे, सबके सब धड़धड़ करके गिरने लगे। 

परिणाम ये हुआ कि शत्रु सेना के हौसले बुलंद हो गए, उसने पूरी शक्ति से धावा बोल दिया। शत्रु और भी तीव्रता से वार करने लगे। महामना का देवत्व तेल लेने चला गया और उनके दानवत्व को देखकर लोग कुपित होने लगे। 

अब तो लोग पूछने लगे हैं कि अमृतकाल अब और कितने साल, कितने महीने या कितने दिन चलेगा....महामना इससे और भी कुपित हैं। वे पता नहीं क्या-क्या करेंगे अब। मगर भारत भाग्य विधाता तो फ़ैसला ले चुका है। अमृतकाल की चलाचली तय हो गई है।

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