देश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि आख़िरकार दस साल बाद ही सही उनकी प्रेरणा से लोग बुद्धि के बारे में बात कर रहे हैं। पिछले दस वर्षों से भारतीय समाज और देशी मीडिया बुद्धि से परहेज कर रहे थे, उससे सुरक्षित दूरी बरत रहे थे। उन्होंने बौद्धिक कार्य-कलापों को लगभग बंद कर दिया था और आठों पहर बुद्धिहीनों की तरह व्यवहार कर रहे थे। बुद्धुओं का महिमागान उनका प्रिय शगल और टाइम पास बन गया था। मगर अब महामना की बदौलत वे बढ़-चढ़कर बुद्धि पर बात कर रहे हैं।
दरअसल, इस क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए हमें मोदी जी का आभारी होना चाहिए कि जिस समाज को उन्होंने पहले मंदबुद्धि बनाया था, अब वह उन्हीं की बदौलत बुद्धिमानी को गंभीरता से ले रहा है। टेम्पो भर के अतिरिक्त आभार इसलिए भी कि बुद्धिजीवियों से मोदी जी की जन्मजात दुश्मनी है, उनके और बुद्धिजीवियों के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है। मगर देश हित में उन्होंने अपनी निजी खुन्नस को आड़े नहीं आने दिया। ये सर्वविदित है कि अपने लंबे मुख्यमंत्रित्व और प्रधानमंत्रित्वकाल में उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वे बुद्धिजीवियों को क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते। उन्हें अपनी विद्वत्ता के सामने सब हल्के लगते हैं इसीलिए किसी संदिग्ध बुद्धिजीवी को भी अपने पास नहीं फटकने देते। ग़लती से कोई क़रीब आ जाए तो उसे चिमटे से पकड़कर दूर कर देते हैं। बुद्धिजीवियों के प्रति उनका रवैया ठीक उसी तरह का रहता है जैसे बजरंगियों का प्यार मोहब्बत करने वालों से।
दरअसल, मोदीजी का सिस्टम और इकोसिस्टम बुद्धिजीवियों के अनुकूल नहीं है, उसमें उनके लिए कोई जगह नहीं रखी गई है। वे उन्हें हिकारत से देखते हैं इसीलिए अगर कोई बुद्धिजीवी भूले-भटके उनके आसपास पहुंच जाता है, तो वह भी गुरुत्वाकर्षण बल के कारण खुद ब खुद कक्षा से बाहर फेंका जाता है। कहना मुश्किल है कि बुद्धिजीवियों के प्रति उनकी इस घृणा की वज़ह क्या है- उनका आंतरिक भय या फिर एहसास-ए-कमतरी। वैसे, नेहरू भी इसकी एक बड़ी वज़ह हो सकते हैं। नेहरू के प्रति मोदी जी की नफ़रत का एक कारण ये भी हो सकता है कि उनकी गिनती बुद्धिजीवियों में होती थी।
फिर समस्या ये भी है कि बुद्धिजीवी मोदीजी को घास ही नहीं डालते। हालाँकि उनके पास एंटायर पॉलिटिकल साइंस की डिग्री है और वे नेहरू के बराबर तीन बार प्रधानमंत्री चुने जा चुके हैं। लेकिन इन महान उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ करके भी अगर बुद्धिजीवी उनकी बुद्धि का लोहा नहीं मानते तो वे निश्चय ही घृणा एवं उपेक्षा के पात्र होने चाहिए।
वास्तव में उन्हें ये भी चिंता सताती रहती है कि अगर मोदी जी के पास ख़बर पहुंच गई कि वे किसी बुद्धिजीवी की सोहबत में थे तो उनकी छुट्टी न हो जाए। इसीलिए वफ़ादारी दिखाने के लिए वे बुद्धिजीवियों की चारित्रिक हत्या और उनका उत्पीड़न करना अपना नैतिक-राजनैतिक दायित्व समझते हैं।
मोदी सरकार और बुद्धिजीवियों के बीच प्रेम संबंध कितने प्रगाढ़ हैं इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि वह स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों से बौद्धिक सामग्री को बाहर कर रही है। एनसीईआरटी और यूजीसी का तो एकमात्र एजेंडा ही यही है।
दरअसल, मोदी जी और उनकी पार्टी का बुद्धि से जनम जनम का बैर रहा है। दोनों की आपस में सास बहू की तरह बनती ही नहीं है। यही हाल उनके मार्गदर्शकों का भी है। हेडगेवार से लेकर भागवत तक के विचारों का अध्ययन करके कोई भी इस निष्कर्ष तक पहुंच सकता है।
अंधभक्ति और बुद्धि विरोध उनके सामाजिक-राजनीतिक दर्शन के केंद्र बिंदु हैं और वे इससे टस से मस नहीं होते। बुद्धि की बात करने से वे उसी तरह भड़कते हैं जिस तरह अडानी और राहुल का ज़िक्र छिड़ने से मोदी।
कई लोगों का तर्क है कि बाल बुद्धि में एक तरह की मासूमियत होती है, सचाई और भोलापन होता है इसलिए उसे धिक्कारा नहीं... सराहा जाना चाहिए। मगर मोदी जी इतने उदार नहीं हैं इसीलिए उन्होंने बालक बुद्धि का कटाक्ष बचकानापन के संदर्भ में किया था। उनका अंधभक्त मीडिया उनको उनसे भी बेहतर समझता है इसलिए उसने भी उसे उसी संदर्भ में लिया।
अब चूँकि अपने आका की ही तरह मीडिया खुद भी बचकानेपन का शिकार है इसलिए उसने उसी एंगल को पकड़ा और शुरू हो गया। चैनल-चैनल बाल बुद्धि-बालक बुद्धि का समूह गान शुरू हो गया। एजेंडा था राहुल गांधी के विस्फोटक भाषण को कैसे बचकाना साबित किया जाए। भाषण से अवतारीलाल की छवि को जो डैमेज हुआ है.... उसे कैसे कंट्रोल किया जाए।
दरअसल, गोदी मीडिया में नाना प्रकार की बुद्धि वाले ऐंकर-ऐंकरानियाँ हैं। कुछ वानर बुद्धि के हैं, कुछ श्वान बुद्धि के तो कुछ सियार बुद्धि के। कुछ वानरों की तरह स्टूडियो में कूदते-फांदते और नकलें करते देखे जा सकते हैं, तो कुछ को भौंकते तो कुछ को हुआँ-हुआँ करते हुए। कुछ सर्प बुद्धि के हैं जिनका काम ज़हर उगलना और मोदी विरोधियों को काटना है। कुछ मंदबुद्धि के भी हैं जो दो हज़ार के नोट में चिप ढूँढ़ते रहते हैं। कुछ इतने प्रतिभाशाली हैं कि अभी बताई गई समस्त प्रकार की बुद्धियों के मिश्रण से संपन्न हैं।
लेकिन जैसा कि स्वाभाविक था, इन तमाम बुद्धिमानों ने ये नहीं सोचा कि खेल पलट भी सकता है। ये उनके अनुमान से परे था कि पापा का परिवार भी इस बाल-बुद्धि वाले खेल में इस तरह से फँस जाएगा कि न उगलते बनेगा न निगलते।
तो हुआ यूँ कि बाल बुद्धि के जवाब में बैल बुद्धि आ गया। उधर से जब जब बाल बुद्धि का तीर छोड़ा जाता तो इधर से बैल-बुद्धि के प्रक्षेपास्त्र चलने लगते। यानी मुक़ाबला दिलचस्प हो गया।
बाल-बुद्धि का हमला कमज़ोर पड़ने लगा, क्योंकि जिसे वे बाल बुद्धि कह रहे थे वो साबित कर चुका था कि वह न पप्पू है, न बालक, बल्कि उनके पापा से भी ज़्यादा बुद्धिमान है। वह राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी बौद्धिकता का प्रमाण दे चुका था।
आगे बढ़ने से पहले बैल बुद्धि के बारे में ये बताना ज़रूरी है कि शास्त्रों में जितनी तरह की बुद्धियों का ज़िक्र है, उनमें बैल बुद्धि नहीं है। शायद उस समय के शास्त्रियों को बैल की इस विशेषता के बारे में पता नहीं चला होगा। लेकिन कालांतर में ये पाया गया कि बैलों में एक ख़ास तरह की बुद्धि पाई जाती है जिसमें शास्त्रोक्त जड़ बुद्धि के गुण तो होते ही हैं, हठबुद्धि का भी मिश्रण होता है। इस तरह ये एक नई कोटि या श्रेणी की बुद्धि प्रकट हुई।
बैल बुद्धि को समझने के लिए बैलों की सायकोलॉजी को समझने की ज़रूरत है। बैलों का ये है कि वे भौकाली में रहते हैं। खेतों के जोतने के बाद उनका काम लगभग ख़त्म हो जाता है। ट्रैक्टर से जुताई शुरू होने के बाद वह भी नहीं रहा। मगर उन्हें लगता है कि खेतों से अनाज उन्हीं की बदौलत उपजा है। थोड़ा-बहुत काम बैलगाड़ियों को खींचने का होता है, उसमें भी उन्हें खामखयाली रहती है कि पूरी किसानी को उन्होंने ही कंधों पर उठा रखा है।
सचाई ये है कि बैलों का अधिकांश समय सड़कों पर आवारागर्दी करते गुज़रता है। गायों को छेड़ना, आते-जाते लोगों से बेवजह पंगा लेना, उनका डेली रूटीन बन जाता है। हर कोई उनसे बचकर निकलना चाहता है मगर वह इस घमंड में रहता है कि उसकी ताक़त का विश्व भर में डंका पिट रहा है।
हालाँकि पापा के परिवार वालों को इसमें खुश होना चाहिए था क्योंकि उनका आर्थिक मॉडल पशुधन को मनुष्य धन से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण मानता है। मॉबलिंचिंग के प्रति उनकी श्रद्धा से इसे आँका जा सकता है। मगर पता नहीं क्यों दुम हिलाने वाले...... बैल बुद्धि सुनते ही दुलत्तियाँ चलाने लगे। सींग उठाकर इधर-उधर दौड़ने लगे, दीवारों और कूड़े के ढेरों पर सिर मारने लगे।
अब ये चिकित्सीय परीक्षण का विषय है कि कहीं बैल बुद्धि संक्रामक बीमारी तो नहीं है जो नॉन बायोलॉजिकल आत्मा से होती हुई बायोलॉजिकल प्राणियों में फैलती जा रही है। अगर ऐसा है तो बुद्धि पर शुरू हुई चर्चा एक त्रासद अंत की ओर बढ़ सकती है।
(मुकेश कुमार सत्यहिंदी पोर्टल एवं सत्यहिंदी यूट्यूब चैनल के संपादक हैं।)
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