बिहार विधानसभा चुनाव का तीसरा और आखिरी चरण अब पूरा होने को है। एनडीए और महागठबंधन दोनों की तरफ से अपनी-अपनी जीत के दावे हो रहे हैं। महागठबंधन ने नीतीश कुमार के ‘आखिरी चुनाव’ वाले बयान के साथ ही उन्हें रिटायर घोषित करने का अभियान चला दिया तो मुख्यमंत्री को बचाने के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सामने आना पड़ा।
प्रधानमंत्री ने बिहार के मतदाताओं को एक भावुक चिट्ठी लिखकर नीतीश कुमार की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। कोरोना काल में हुए इस चुनाव में वो सब कुछ हुआ जो आमतौर पर चुनावों में होता है लेकिन एक शख़्स की गैर मौजूदगी सबको खलती रही और हैरत में भी डालती रही।
मोदी सरकार में गृहमंत्री और बीजेपी में मोदी के बाद सबसे ताकतवर नेता माने जाने वाले अमित शाह बिहार के चुनाव में नज़र ही नहीं आए। बार-बार यह सवाल लोगों के दिमाग में कौंधता ही नहीं रहा, कई बार इसे पूछा भी गया।
स्वास्थ्य ख़राब होना बना कारण?
बीजेपी और जेडीयू के लिए इस सबसे अहम चुनाव में अमित शाह ना तो प्रचार के लिए मैदान में उतरे और ना ही राजनीतिक शतरंज की रणनीति में सक्रिय दिखाई दिए। बीजेपी के नेताओं का औपचारिक जवाब अमित शाह के स्वास्थ्य का ठीक नहीं होना बताया गया। शाह कोरोना पॉजिटिव हुए, फिर ठीक भी हो गए। ज्यादातर वक्त वे बाहर नहीं निकले। लगातार डॉक्टर उनकी निगरानी में लगे रहे, यह ज़रूरी भी था। लेकिन पार्टी के कुछ दूसरे नेताओं का मानना है कि बिहार चुनाव में शाह की गैर मौजूदगी की बड़ी वज़ह पार्टी के नए अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का जिम्मेदारी को संभालना है।
नड्डा के अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला अहम विधानसभा चुनाव हो रहा है। इसलिए तय किया गया कि यह चुनाव उनके नेतृत्व में ही लड़ा जाए। नड्डा का जन्म और पढ़ाई-लिखाई पटना में ही हुई है, इसलिए वो उस इलाके को जानते-समझते भी हैं।
आरोपों से बचने की कोशिश
यदि इस दौरान शाह बिहार चुनाव की कमान संभालते तो कुछ लोग नड्डा की काबिलियत पर तो सवाल उठाते ही, यह आरोप भी लगता कि शाह पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं और नड्डा की हैसियत घर में सिर्फ उस बहू जैसी है जिसे कहने को घर संभालने को दे दिया गया है लेकिन घर की चाबी अभी सास के पास ही है।
बीजेपी ने जब यह तय किया कि बिहार चुनाव को नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा तो फिर उनकी अगुवाई में ही सब कुछ आगे बढ़ना था। लेकिन यह साफ है कि मौजूदा वक्त में बीजेपी के पास मोदी के अलावा सिर्फ अमित शाह और राजनाथ सिंह सबसे प्रभावशाली वक्ता हैं जिनके भाषण के लिए लोग जुट सकते हैं। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी भी कोरोना पॉजिटिव होने के बाद स्वास्थ्य कारणों से ज़्यादातर वक्त बाहर नहीं निकल पाए।
तालमेल का रहा अभाव
अमित शाह की कमी पार्टी को तब खटकी जब रणनीति के तौर पर तालमेल का अभाव दोनों दलों के बीच दिखाई दिया। इस पूरे चुनाव में जेडीयू और बीजेपी साथ-साथ चुनाव लड़ते नहीं दिखाई दिए। फिर एलजेपी मुखिया चिराग पासवान को लेकर भी कन्फ्यूजन बना रहा। चिराग बिहार में नीतीश का विरोध करते रहे और दिल्ली में एनडीए में शामिल रहे।
अगर शाह कमान संभाल रहे होते तो वे चिराग को लेकर कन्फ्यूजन नहीं रहने देते। या तो चिराग बिहार में साथ होते या फिर उन्हें एनडीए छोड़ना पड़ता। दोनों पार्टियों के बीच अविश्वास बने रहने का एक बड़ा कारण चिराग पासवान रहे। इसका कितना नुकसान होगा, यह तो दस नवम्बर को ही पता चलेगा।
बंगाल चुनाव लड़ाएंगे शाह
कोरोना और स्वास्थ्य कारणों से शाह का बिहार चुनाव में हिस्सा नहीं लेना तो समझ आ सकता है लेकिन उसी दौरान वे पश्चिम बंगाल में चुनाव की हुंकार भरने पहुंच जाते हैं। ममता के गढ़ में ही उन्हें ललकारते हैं। यानी साफ है कि बीजेपी के लिए सबसे मुश्किल होने वाले पश्चिम बंगाल के चुनाव को लेकर वे अभी नड्डा पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं और वहां का चुनाव शाह के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा।
साल 2013 में उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी संभालने के बाद 2014 में वहां की 71 लोकसभा सीटों पर कब्जा करके शाह ने अपने राजनीतिक कौशल का लोहा मनवा दिया था और फिर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के अभियान पर जुट गए थे। इसके बाद बीजेपी एक के बाद एक कई राज्यों में सरकार बनाती चली गई।
पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली
2014, मई में देश में नई सरकार बनने का काम पूरा हो गया था। बहुत से लोग सोच रहे थे कि अमित शाह को मोदी सरकार में बड़ा भारी-भरकम मंत्रालय मिलेगा, लेकिन शपथ ग्रहण समारोह में अमित शाह शपथ लेने वाले मंत्रियों की अगली कतार में नहीं बैठे थे, बल्कि वे समारोह में पीछे बैठे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह को विनम्रता के साथ हाथ पकड़ कर आगे बिठाने के लिए ला रहे थे। इस समारोह में जब पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गृह मंत्री पद की शपथ ली तो राजनीति के जानकारों ने पकड़ लिया कि अमित शाह को पार्टी की ज़िम्मेदारी मिलने वाली है।
दो महीने के भीतर ही जुलाई, 2014 में शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए। शाह को बड़ी ज़िम्मेदारी मिल गई थी लेकिन उनके पास जश्न मनाने का वक्त नहीं था। अगले तीन महीनों में दो अहम राज्यों महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने वाले थे।
शिव सेना का साथ छोड़ा
महाराष्ट्र में चुनाव से पहले बीजेपी को बड़ा फ़ैसला करना पड़ा। जब सीटों पर समझौते को लेकर बात नहीं बनी तो मोदी और शाह ने तय किया कि पार्टी शिव सेना के साथ जाने के बजाय अकेले चुनाव लड़ेगी। राजनीतिक नजरिए से यह रिस्क भरा फ़ैसला था। पार्टी के पास राज्य विधानसभा की 288 सीटों पर खड़े करने के लिए उम्मीदवार भी नहीं थे। महाराष्ट्र में अब तक शिव सेना बड़ी पार्टी के तौर पर बीजेपी के साथ थी। पार्टी ने इस फ़ैसले से साफ कर दिया कि वह अपने सहयोगी दलों के साथ जूनियर पार्टनर के तौर पर काम करने को तैयार नहीं है।
इसके बाद उत्तर-पूर्व के राज्यों में जिस तरह बीजेपी ने सरकारें बनाईं, उसे लेकर पार्टी के लोग भी हैरान हो गए थे। फिर 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को जो 303 सीटें हासिल हुईं, उसमें शाह की राजनीतिक समझ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
नतीजों के बाद पड़ेगी ज़रूरत?
ऐसे में जातिगत राजनीति का काफी असर रखने वाले बिहार में शाह की गैर मौजूदगी का सवाल तो बना ही रहेगा। इसके साथ ही यदि राजनीतिक जानकारों की मानें तो इस बार नीतीश कुमार को सरकार बनाने में मुश्किल हो सकती है।
सरकार बनवाने में माहिर माने जाने वाले शाह की ज़रूरत तब पार्टी को पड़ सकती है क्योंकि बीजेपी में कहा जाता है कि जहां पार्टी चुनाव जीतती है, शाह वहां तो सरकार बनाते ही हैं लेकिन जहां चुनाव नहीं जीतती, वहां सरकार ज़रूर बनाते हैं। क्या चुनाव नतीजों के बाद संकटमोचक और चाणक्य कहे जाने वाले इस नेता की ज़रूरत पार्टी को पड़ सकती है?
अपनी राय बतायें