ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) ने गुरुवार को दो तरह की घोषणाएं कीं। पहली घोषणा इसके प्रवक्ता फरहान ने की। उन्होंने कहा कि एआईएमआईएम इंडिया गठबंधन में आना चाहती है। अगर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने हमें 5 सीटें न दीं तो हम 25 सीटों पर लड़ेंगे। खुद ओवैसी साहब भी यूपी से लड़ेंगे। इसके बाद दोपहर को एआईएमआईएम के यूपी अध्यक्ष आसिम वकार का बयान आ गया कि पार्टी 7 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेगी। वकार ने वो सीटें फिरोजाबाद, बदायूं, संभल, मुरादाबाद, अमरोहा, मेरठ और आजमगढ़ बताईं। सपा के प्रत्याशी इन सीटों पर पहले से ही तय हैं। जाहिर है कि एआईएमआईएम का यह बयान जानबूझकर दिया गया और बता दिया गया समझौता दूर-दूर तक नहीं होने जा रहा है।
इससे पहले खबरें आ रही थीं कि एआईएमआईएम लोकसभा चुनावों से पहले यूपी में संभावित सीट-बंटवारे की व्यवस्था के संबंध में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ गोपनीय चर्चा में लगी हुई है। सूत्रों के मुताबिक, दोनों दल राज्य में लगभग 30 मुस्लिम बहुल लोकसभा क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करते हुए सहयोग पर विचार कर रहे हैं। लेकिन बसपा-एआईएमआईएम समझौत से पहले गुरुवार को 7 सीटों का ऐलान बता रहा है कि उसका बीएसपी से अभी तक कोई समझौता नहीं हुआ है। इसी तरह वो इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनने का भी गंभीरता से कोई प्रयास नहीं कर रही थी।
एआईएमआईएम का यूपी में किसी राजनीतिक दल से गठबंधन अभी दूर की कौड़ी है लेकिन गुरुवार के घटनाक्रम से साफ हो गया कि पार्टी की नजर यूपी की मुस्लिम बहुल सीटों पर है। ओवैसी के इस रुख से किस पार्टी को मदद मिलेगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। उसे पहले एक सवालः
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क्या वजह है कि ओवैसी की पार्टी सिर्फ मुस्लिम बहुल इलाकों से चुनाव लड़ना चाहती है। तमाम राज्यों में पिछले कई चुनावों में एआईएमआईएम प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती रही है लेकिन हर चुनाव में पार्टी नए चेहरे लेकर आ जाती है। यूपी, बिहार और कर्नाटक के पिछले चुनावों पर नजर डाली जाए तो ओवैसी की पार्टी की स्थिति पता चल जाएगी।
यूपी विधानसभा चुनाव में मजलिस की हैसियतयूपी में पिछले नतीजे 10 मार्च 2022 को आए थे। मजलिस के अधिकांश उम्मीदवार 5,000 का आंकड़ा पार नहीं कर पाए चुनाव आयोग की वेबसाइट के अनुसार, असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली पार्टी का वोट शेयर राज्य की 403 विधानसभा सीटों पर पड़े कुल वोटों का लगभग 0.43 प्रतिशत है। आज़मगढ़ में एआईएमआईएम उम्मीदवार कमर कमाल को 1,368 वोट, देवबंद में उमैर मदनी को 3,145 वोट, जौनपुर में अभयराज को 1,340 वोट, कानपुर कैंट में मोइनुद्दीन को 754 वोट, लखनऊ सेंट्रल में सलमान को 463 वोट, मुरादाबाद में राशिद को 1,266 वोट, मुरादाबाद ग्रामीण से मोहिद फरगानी को 1,771 वोट मिले। मेरठ में इमरान अहमद को 2,405 वोट मिले। पूरी लिस्ट जरा लंबी है। करीब 100 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की तादाद ठीकठाक है। उनमें से किसी भी सीट को एआईएमआईएम ने नहीं छोड़ा।
2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी ओवैसी की पार्टी ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 37 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। सभी सीटें मुस्लिम बहुल थीं। 2022 यूपी विधानसभा चुनाव के बाद एक्सिस मॉय इंडिया सर्वे में बताया गया कि मुस्लिम बहुल इलाकों में 82 फीसदी मुस्लिमों ने सपा को और यादव बहुल इलाकों में 83 फीसदी मुस्लिमों ने सपा को वोट दिए। इस आंकड़े से साफ है कि ओवैसी ने मुस्लिम भाईचारे की जो दुहाई दी थी, उस पर मुसलमानों ने जरा भी गौर नहीं किया।
कर्नाटक में क्या हुआ था
यूपी से भी दिलचस्प उदाहरण कर्नाटक का है। 2023 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट पाने के लिए मुस्लिम चेहरों वाली दो पार्टियों में प्रतियोगिता हो गई। सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) जो प्रतिबंधित पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का राजनीतिक चेहरा है उसने 16 सीटों पर प्रत्याशी उतारे तो ओवैसी की एआईएमआईएम ने 2 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। दोनों पार्टियों ने किसी भी सीट पर उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं किया। सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई।
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2011 की जनगणना के अनुसार, कर्नाटक में 13 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। 2023 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों का वोट न तो बाकी दो मुस्लिम चेहरों वाली पार्टियों में बिखरा और न ही उन दोनों दलों को मुस्लिम वोट मिला। पूरे 12 फीसदी वोट कांग्रेस की झोली में गए। कांग्रेस ने कर्नाटक में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश के बीच सरकार बनाई।
बिहार में क्या हुआ थाबिहार विधानसभा में 2020 के चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने पांच सीटों पर जीत दर्ज की और उसके बाद ऐसा प्रदर्शित किया गया कि यही मुसलमानों की असली पार्टी है और मुसलमान इसी में अपना भविष्य दे रहे हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम अमौर, कोचाधामन, जोकीहाट, बैसी और बहादुरगंज सीटें जीती थीं। AIMIM ने 243 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव में 20 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 14 मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में थे। पार्टी ने उपेन्द्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट बनाया था।
हालाँकि, बिहार के पिछले नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि एआईएमआईएम ने राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले विपक्षी ग्रैंड अलायंस या 'महागठबंधन' के वोट शेयर में सेंध लगाने में नाकाम रही। वास्तव में, एआईएमआईएम ने जिन 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से आठ पर महागठबंधन ने जीत हासिल की। ये हैं शेरघाटी, साहेबपुर कमाल, फुलवारी, किशनगंज, कस्बा, मनिहारी, अररिया, ठाकुरगंज - जबकि सिकटा में एक स्वतंत्र उम्मीदवार आगे रहा। इन सभी सीटों पर, AIMIM महागठबंधन के वोट शेयर में “सेंध” लगाने में नाकाम रहा।
इस तरह साफ संकेत है कि एआईएमआईएम सिर्फ मुस्लिम वोटों का बंटवारा करने ही तमाम जगहों से चुनाव लड़ती है। मुस्लिम वोटों का बंटवारा किस प्रमुख राजनीतिक दल को होता है, यह साफ है। यही वजह है कि कांग्रेस, सपा, आरजेडी ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को भाजपा की बी टीम बताते हैं। इन दलों का कहना है कि भाजपा ओवैसी की पार्टी को फंड भी देती है, ताकि पार्टी मुस्लिम बहुल सीटों पर वोटों का बंटवारा कर सके। इससे भाजपा को उस सीट पर हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण कराने में आसानी रहती है।
सीटों के नजरिए से यूपी देश का सबसे बड़ा ऐसा राज्य है जहां लोकसभा की 80 सीटें हैं। यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल यूपी में अपना-अपना हिस्सा हासिल कर महत्वपूर्ण बने रहना चाहते हैं। लेकिन मतदाता अपने तरीके से सोचता है।
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