मंगलवार को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अध्यक्ष शरद पवार के घर हुई विपक्षी दलों की बैठक में किसी भी पार्टी का कोई बड़ा और महत्वपूर्ण नेता शिरकत करने नहीं पहुंचा। क़रीब ढाई घंटे चली इस बैठक के बाद एनसीपी की तरफ से यह सफाई भी देनी पड़ी कि इसमें किसी राजनीतिक मुद्दे पर चर्चा नहीं हुई। बल्कि पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दाम और तेज़ी से बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर चर्चा हुई है।
इसके बाद यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर यह बैठक बुलाई ही क्यों गई थी? अगर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की रणनीति के तहत कोई बैठक बुलाई जानी थी तो पूरी तैयारी के साथ बैठक क्यों नहीं बुलाई गई।
किशोर-पवार की मुलाक़ात
दरअसल, यह बैठक चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की शरद पवार से हुई दो बार की मुलाक़ात के बाद आनन-फ़ानन में बुलाई गई। बैठक से पहले इस बात को ख़ूब अच्छी तरह उछाला गया कि शरद पवार कांग्रेस को छोड़कर बाकी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ एक मज़बूत मोर्चा बनाने की रणनीति पर विचार करेंगे।
सोनिया से क्यों नहीं की बात?
हालांकि बैठक के बाद सफाई दी गई कि इसमें कांग्रेस के नेताओं को भी आने का न्यौता दिया गया था लेकिन दिल्ली में मौजूद ना होने की वजह से वो बैठक में शिरकत नहीं कर पाए। यह बेहद लचर दलील है। अगर कांग्रेस को इस बैठक में शामिल करना ही था तो कांग्रेस के नेताओं को न्यौता भेजने की बजाय सीधे सोनिया गांधी से बात करनी चाहिए थी।
सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष होने के साथ-साथ यूपीए की अध्यक्ष हैं। शरद पवार की एनसीपी यूपीए का हिस्सा है। ख़ुद शरद पवार महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना के महा विकास आघाडी के अगुवा हैं। ऐसे में यह शरद पवार की जिम्मेदारी बनती थी कि विपक्षी दलों की किसी भी बैठक को बुलाने से पहले वह कांग्रेस को व्यक्तिगत तौर पर न्योता देते। अगर वो कांग्रेस के साथ मिलकर विपक्षी दलों का कोई मोर्चा नहीं बनाना चाहते तो यूपीए से बाहर आकर इसका सीधे तौर पर एलान करें।
ऐसा माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी और बीजेपी को हराने की रणनीति के तहत ममता बनर्जी की अगुवाई में एक बड़ा मोर्चा खड़ा करना चाहते हैं। ममता बनर्जी के इशारे पर ही उन्होंने शरद पवार से दो बार मुलाक़ात की है।
ममता ने बढ़ाया करार
हालांकि प्रशांत किशोर ने 2 मई को पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बीच ही एलान कर दिया था कि अब वो चुनावी रणनीतिकार के रूप में काम नहीं करेंगे। लेकिन इसके बावजूद ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी के लिए उनके साथ 2026 तक का क़रार कर लिया है। इस बीच 2024 के लोकसभा चुनाव और 2026 के पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव होंगे।
2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति का सूत्रधार चाहे जो हो। उसे एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि केंद्र में मोदी सरकार को हराने के लिए कांग्रेस के बग़ैर विपक्षी दलों का कोई भी मोर्चा मजबूत नहीं बन सकता।
देश के मौजूदा राजनीतिक हालात में किसी तीसरे मोर्चे की कोई जगह फिलहाल नहीं रह गई है। क्योंकि अगर आज की तारीख़ में बीजेपी पहला मोर्चा है तो उसके मुकाबले कांग्रेस ही दूसरा मोर्चा है।
एकजुट करने की कोशिश
आजादी के बाद 70 सालों में देश की राजनीति कांग्रेस बनाम बाक़ी दलों से लेकर बीजेपी बनाम बाक़ी दलों तक 180 डिग्री के कोण पर घूम चुकी है। 1960 के दशक में जैसे कांग्रेस के खिलाफ सभी जनों को एक छतरी के नीचे लाने की कोशिशें शुरू हुई थी आज बीजेपी इतनी मज़बूत हो चुकी है कि उसे हराने के लिए भी सभी दलों को एक छतरी के नीचे एकजुट करने की क़वायद शुरू करने का वक्त आ गया है। इस छतरी को अगर कोई हाथ मजबूती से थाम सकता है तो वह कांग्रेस का ही हाथ हो सकता है।
देश के मौजूदा राजनीतिक हालात में अगर बीजेपी अपनी लोकप्रियता की ऊंचाई से नीचे गिरेगी तो उसकी जगह भरने के लिए कांग्रेस ही आगे आएगी। शरद पवार की एनसीपी या ममता बनर्जी की टीएमसी में फ़िलहाल वह दमख़म नहीं है कि वे कांग्रेस की जगह ले सकें।
उठेगी कांग्रेस
बीजेपी के बाद अगर देश का सबसे बड़ा कोई राष्ट्रीय राजनीतिक दल है तो वह सिर्फ कांग्रेस है। उसके कार्यकर्ता आज भी देश के सभी राज्यों में मौजूद हैं। यह अलग बात है कि कांग्रेस अपेक्षित कामयाबी हासिल नहीं कर पा रही। लेकिन जैसे ही बीजेपी का ग्राफ नीचे गिरेगा, कांग्रेस का ग्राफ निश्चित तौर पर ऊपर उठेगा। चुनावी रणनीतिकारों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए।
लोकसभा चुनाव 2019
2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर नज़र डालें तो बीजेपी ने 303 सीटें जीती थीं। उसे क़रीब 36% वोट मिले थे। बीजेपी को मिलने वाले कुल वोट 22 करोड़ 90 लाख थे। कांग्रेस को कुल 52 सीटें हासिल हुई थीं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 19.49 और कुल मिले वोट 11 करोड़ 95 लाख थे।
कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा 23 सीटें डीएमके को मिली थीं। डीएमके ने क़रीब ढाई करोड़ वोट हासिल किए थे जो कि कुल वोटों का 4% हैं। टीएमसी और वाईएसआर कांग्रेस 22-22 सीटें हासिल करके चौथे स्थान पर थीं। दोनों ही पार्टियों को 2.5 से 3.0% वोट मिले थे। टीएमसी को करीब 1.55 करोड़ मिले थे और वाईएसआर को 1.38 करोड़ वोट मिले थे।
आज विपक्षी एकता की धुरी बनने का सपना देखने वाले शरद पवार की एनसीपी को 2019 में महज़ 5 सीटें मिली थीं और 1.39% वोट मिले थे। उनकी पार्टी को कुल जमा 85 लाख वोट ही मिले थे।
2014 में 10 साल के शासन के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी। उस वक्त कांग्रेस को सीटें भले ही 44 मिली हों लेकिन उस वक्त भी उसे 10 करोड़ 70 लाख वोट मिले थे। ये कुल वोटों का 19.30% था।
यह अलग बात है कि बीजेपी ने 282 सीटें जीतकर पहली बार अपने दम पर सत्ता में वापसी की थी। तब बीजेपी को 31% वोट मिले थे। और उसने 17.16 करोड़ वोट हासिल किए थे। उस चुनाव में टीएमसी 34 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर रही थी। उसे 2.12 करोड़ वोट मिले थे जो कि कुल वोटों का 3.84% थे। उस चुनाव में एनसीपी को 6 सीटें मिली थीं और कुल 86 लाख वोट मिले थे जो कि कुल वोटों का 1.56% है।
2009 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को भविष्य में होने वाले चुनावों के हिसाब से विश्लेषण के लिए आधार मानना मुनासिब होगा। क्योंकि 2008 में हुए परिसीमन के बाद पहला चुनाव 2009 में ही हुआ था। तब कांग्रेस को 206 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने तब 11 करोड़ 91 लाख वौट हासिल किए थे जो कि कुल वोटों का 28.55% था।
2009 में बीजेपी चुनाव में 116 सीटें ही जीत पाई थी। उसे 7 करोड़ 84 वोट मिले थे जो कि कुल वोटों का 18.80% थे। उस चुनाव में एनसीपी ने 9 सीटें जीती थी और उसे 85 लाख वोट हासिल हुए थे जो कि कुल वोटों का 2.04% है।
शरद पवार की हिमाकत!
पिछले तीन लोकसभा चुनाव के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि शरद पवार की एनसीपी ना तो सीटों के मामले में दहाई का आंकड़ा पार कर पाई और न ही वोटों के मामले में एक करोड़ के आंकड़े को छू पाई। ऐसे में अगर शरद पवार ममता बनर्जी या प्रशांत किशोर के कहने में आकर कांग्रेस को अलग रखकर विपक्षी दलों का कोई मोर्चा बनाने की क़वायद शुरू करते हैं तो इसे सिर्फ़ हिमाकत ही कहा जाएगा।
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस और तमाम क्षेत्रीय दलों को 16 राज्यों में विधानसभा के चुनाव की अग्निपरीक्षा से गुज़रना है। उत्तर प्रदेश को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में बीजेपी का मुकाबला कांग्रेस से ही होना है।
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