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2024 का लोकसभा चुनाव 2019 से अलग होगा 

अगले लोकसभा चुनावों को लेकर अब जो तस्वीर बन रही है उसमें एक अकेले मोदी बनाम कई दलों की मिलजुली लड़ाई नहीं बल्कि दो महागठबंधनों के बीच चुनावी महासंग्राम होने जा रहा है।एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और उसके नए पुराने सहयोगी 38 दलों का गठबंधन नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस यानी एनडीए होगा तो दूसरी तरफ कांग्रेस और उसके साथ जुटे 26 दलों का महागठबंधन जिसे इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इन्कल्यूसिव एलायंस जिसे संक्षेप में इंडिया नाम दिया गया है, के बीच मुकाबला होगा। विपक्ष तो पहले से ही सबकी मिली जुली ताकत से ही ताकतवर भाजपा का मुकाबला करने की तैयारी कर रहा था, लेकिन अब भाजपा जो “मैं अकेला सब पर भारी” की माहौलबंदी (नेरेटिव) बनाकर मोदी बनाम सब के नारे के साथ लोकसभा चुनावों में जाना चाहती थी, अब विपक्ष की सामूहिक चुनौती का जवाब अपनी सामूहिक चुनौती से ही देगी।

हालांकि भाजपा नीत एनडीए बार बार विपक्षी गठबंधन इंडिया से यह सवाल जरूर पूछेंगे कि नरेंद्र मोदी के मुकाबले उनके पास नेता कौन है।अपनी इस कमजोरी पर पूछे जाने वाले सवाल का जवाब इंडिया के नेता अपने मुद्दों से देने की कोशिश करेंगे। यानी अगला लोकसभा चुनाव नेता के साथ साथ दोनों गठबंधनों के नाम और मुद्दों पर भी होगा।
पिछले महीने 23 जून को पटना में हुई विपक्षी नेताओं की कामयाब बैठक से दबाव में आई भाजपा ने भी अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को फिर संगठित करना शुरु कर दिया।एक तरफ पटना की बैठक में शामिल हुए सभी भाजपा विरोधी दल 18 जुलाई को बेंगलुरू में अपनी दूसरी बैठक में जुटे और उन्होंने पटना के 17 के मुकाबले अपनी संख्या 26 तक बढ़ाईतो दूसरी तरफ भाजपा ने भी अपने पुराने सहयोगियों अकाली दल, तेलुगू देशम को फिर साथ लाने की कवायद के साथ साथजीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान, एकनाथ शिंदे, अजित पवार ओमप्रकाश राजभर समेत 38 दलों के नेताओं को दिल्ली में जुटाकर पुराने एनडीए को नया रूप दे दिया है।
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भाजपा अगले लोकसभा चुनावों में विपक्ष के किसी भी संभावित महागठबंधन की चुनौती का मुकाबला अकेले करने की बजाय वैसा ही एक बड़ा गठबंधन करके करना चाहती है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा, भाजपा का देशव्यापी प्रभाव और क्षेत्रीय और आंचलिक नेताओं व दलों की ताकत का समन्वय होगा।

पहले हिमाचल प्रदेश फिर कर्नाटक की शानदार जीत के बाद कांग्रेस बेहद उत्साहित है और तेलंगाना में जिस तरह कांग्रेस का ग्राफ दिनोदिन बढ़ रहा है उससे दक्षिण के इस नवोदित राज्य में अब मुकाबला सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) और कांग्रेस के बीच होता जा रहा है।भाजपा जो तेलंगाना को लेकर बेहद उत्साहित थी,उसका आकर्षण कमजोर होता दिख रहा है,इसे ठीक करने के लिए ही पार्टी ने अपने प्रदेश अध्यक्ष को बदल कर सांसद किशन रेड्डी को तेलंगाना प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बना दिया है।
उत्साहित कांग्रेस भी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में भी जीत के दावे कर रही है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलौत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच सुलह कराकर कांग्रेस ने खुद को संगठित रूप से चुनाव में जाकर भाजपा से मुकाबले के लिए तैयार कर लिया है।
बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदल कर फिर राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस और सीपीआई (एमएल) के महागठबंधन में शामिल होने से भाजपा के लिए राज्य में रास्ता बेहद कठिन हो गया।क्योंकि 2019 में भाजपा जद(यू) और लोजपा गठबंधन वाले एनडीए ने 40 में से 39 लोकसभा सीटें जीती थीं, जो इस बार खटाई में पड़ती नजर आ रही हैं।
इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस एनसीपी के गठबंधन महाविकास अघाड़ी ने अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया।राज्य में हुए कई उप चुनावों के नतीजों ने भी इसका संकेत दिया।अघाड़ी को कमजोर करने के लिए ही एक साल पहले जून 2022 में महाराष्ट्र में भाजपा के ऑपरेशन लोटस ने न सिर्फ शिवसेना को दोफाड़ करके उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र विकास अघाड़ी को गिराई।भाजपा के समर्थन से एकनाथ शिंदे की सरकार बनी और चुनाव आयोग द्वारा एकनाथ शिंदे गुट को ही असली शिवसेना मानकर पार्टी का नाम निशान और झंडा भी दे दिया गया।शिवेना के चालीस से ज्यादा विधायक और बहुमत सांसद एकनाथ शिंदे के साथ चले गए।
महाराष्ट्र में भाजपा यहीं नहीं रुकी।एक साल बाद महाविकास अघाड़ी की प्रमुख घटक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में सेंध लगाते हुए शरद पवार के भतीजे और राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार के साथ नौ विधायकों को तोड़ कर उन्हें तत्काल एकनाथ शिंदे सरकार में में मंत्रिपद की शपथ भी दिला दी गई।एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार इससे बेहद आहत हैं और उन्होंने भाजपा को उसकी जगह भेजने के ऐलान के साथ जनता के बीच जाने का फैसला कर लिया है।

महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी को अव्यवस्थित करने के साथ ही अब बिहार में भाजपा ने अपने सियासी ऑपरेशन तेज कर दिए हैं।एक तरफ राज्य के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के खिलाफ अदालत में प्रवर्तन निदेशालय ने आरोपपत्र दायर करके तेजस्वी के इस्तीफे की मांग तेज कर दी है।इससे सत्ताधारी महागठबंधन पर दबाव बढ़ गया है।महाराष्ट्र में दो बार ऑपरेशन लोटस के बाद भाजपा ने मीडिया के जरिए बिहार में सियासी हांका लगाना भी शुरु कर दिया है कि जल्दी ही बिहार में महागठबंधन में टूट हो सकती है।हालांकि राजद जदयू और कांग्रेस समेत महागठबंधन में शामिल सभी दलों ने इसका पुरजोर खंडन किया।

महाराष्ट्र, प.बंगाल और बिहार तो उसके लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं कर्नाटक की हार के बाद दक्षिण के राज्यों में भी भाजपा को अपनी सीटें 2019 की तुलना में बढ़ती नहीं दिख रही हैं।कर्नाटक में 2019 में अपने एक सहयोगी के साथ भाजपा ने 28 में 26 लोकसभा सीटें जीती थीं।अब बदले हुए परिदृश्य में यह संख्या बरकरार रखने की कठिन चुनौती है।इसलिए कर्नाटक में भाजपा ने जनता दल (एस) को अपने साथ लाने के लिए देवेगौड़ा परिवार से बातचीत शुरु कर दी है।
तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक और कुछ अन्य आंचलिक दलों के साथ भाजपा गठबंधन में है।पर्वोत्तर में मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, अरुणाचल और असम में भी कई क्षेत्रीय और आंचलिक दलों के साथ भाजपा गठबंधन में है।आंध्रप्रदेश में पार्टी चंद्रबाबू नायडू और जगन मोहन रेड्डी के बीच किसी एक साथ गठबंधन की तैयारी में है।उम्मीद चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम के साथ फिर से दोस्ती करने की ज्यादा है।तेलंगाना में बीआरएस और भाजपा ने जिस तरह एक दूसरे के प्रति अपना रुख नरम किया है और बीआरएस अध्यक्ष तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की विपक्षी गठबंधन से दूरी बनी है,वह दक्षिण के इस राज्य में नए समीकरणों का संकेत है।

चुनौतियां कम नहींः दोनों खेमों की इन तैयारियों के बावजूद आंतरिक चुनौतियां भी कम नहीं हैं। विपक्षी गठबंधन इंडिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती प.बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब में सहयोगी दलों के बीच सीटों के बंटवारे की है। केरल में कांग्रेस और वाम मोर्चा आमने सामने की लड़ाई में हैं। प.बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस वाम मोर्चे के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच राजनीतिक विरोध दुश्मनी में बदल चुका है।ऐसे में कौन किसको किस हद तक बर्दाश्त करेगा। इसी तरह दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस नेताओं कार्यकर्ताओं के बीच चूहे बिल्ली का बैर है।शीर्ष स्तर पर नेताओं की दोस्ती क्या जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं नेताओं और जनाधार को भी एकजुट कर सकेगी।क्या ये दल अपना वोट सहयोगी दल के उम्मीदवार को स्थानांतरित करवा पाएंगे।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को किस हद तक स्वीकार करेगी और क्या इनके बीच आसानी से सीटों का बंटवारा हो पाएगा।हालांकि बिहार, तमिलनाडु, झारखंड और महाराष्ट्र में कांग्रेस और सहयोगी दलों का गठबंधन पहले से ही है।लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना(उद्धव) और एनसीपी(शरद पवार) के बीच सीटों के बंटवारे का पेंच भी सुलझाया जाना है।कुछ पेंच बिहार में भी फंस सकता है, लेकिन उम्मीद है कि इन राज्यों में सीट बंटवारे में ज्यादा दिक्कत शायद न आए।

इसी तरह एनडीए में भी कुछ पेंच हैं।बिहार में जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा तीन तीन सीटें चाहते हैं जबकि चिराग पासवान 2019 में लोजपा द्वारा जीती गई सभी छह सीटों पर दावा कर रहे हैं वहीं उनके चाचा पशुपति पारस भी वही सीटें अपने कोटे में चाहते हैं।दोनों के बीच हाजीपुर की सीट जो दिवंगत रामविलास पासवान की लोकसभा सीट रही है, को लेकर भी खींचतान है।
उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर भी कम से कम पांच लोकसभा सीटों पर दावा कर रहे हैं।महाराष्ट्र में शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी(अजित पवार) के बीच भी सीटों को लेकर खींचतान तय है।अजित पवार ने 2019 में कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ी गई लोकसभा की सभी सीटों पर दावा किया है जबकि शिवसेना (शिंदे) उन सभी सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है जो सीटें 2019 में शिवसेना के खाते में गई थीं।

इन आंतरिक चुनौतियों में एनडीए के हक में एक बात यह है कि सहयोगी दलों के मुकाबले भाजपा की ताकत और प्रभाव काफी ज्यादा है और नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय और मजबूत नेता का नाम सहयोगी दलों की सबसे बड़ी जरूरत है। 

एनडीए में सीट बंटवारे पर थोड़ी बहुत शुरुआती खींचतान के बाद समझौता होने में खासी दिक्कत नहीं आनी चाहिए। जबकि विपक्षी गठबंधन इंडिया एक राष्ट्रीय दल कांग्रेस और क्षेत्रीय छत्रपों का एक ऐसा ढीला गठबंधन है जिसमें हर दल और हर नेता की अपने अपने राज्य और प्रभाव क्षेत्र में बेहद मजबूत स्थिति है।


कई राज्यों में कांग्रेस छत्रप नेताओं और सहयोगी दलों की जूनियर पार्टनर है।इसलिए इस गठबंधन नेताओं की जिद और अहम का टकराव भी एक समस्या है, जिसे बेहद करीने और परिपक्वता से सुलझाने की जरूरत है।उम्मीद है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे इसमें कारगर साबित होंगे और छत्रप नेताओं को भी अपने अहम को किनारे रखना होगा।

जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो अगर विपक्षी गठबंधन इंडिया में भ्रष्टाचार के सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव और तमाम जांच के घेरे में आने वाले कई नेता हैं तो सत्ताधारी गठबंधन एनडीए में भी कई तरह की जांच का सामना करने वाले विभिन्न दलों के नेता और सजा पा चुके जजपा नेता अजय चौटाला भी हैं। इसलिए यह मुद्दा जनता के बीच कितना असर डालेगा यह भी एक सवाल है।इसी तरह परिवार आधारित दल और नेता भी दोनों ही तरफ हैं।

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कुल मिलाकर अभी तक जो परिस्थिति बन रही है उसके हिसाब से 2024 का लोकसभा चुनाव 2019 से अलग दिखाई दे रहा है।लेकिन उसके पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की चुनौती भी कांग्रेस और भाजपा के सामने है।इनके चुनाव नतीजे भी क्या संकेत देंगे इसका जवाब इसी साल नवंबर दिसंबर में मिलेगा।

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विनोद अग्निहोत्री
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