दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बीजेपी जब अपना 41वां स्थापना दिवस मना रही है, उस वक्त उसका सपना कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग में अपने मुख्यमंत्री को देखने का है। इसी कोलकाता में 70 साल पहले मार्च, 1951 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की पश्चिम बंगाल इकाई की शुरुआत की थी, जिससे बनी पार्टी के नेताओं को इन चुनावों में मुख्यमंत्री ममता दी ‘बाहरी’ कह कर ‘बाहर’ करने की बात कर रही हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कॉलेज के दौरान अपनी शुरुआत क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति के साथ कोलकाता में ही की थी, लेकिन बीजेपी को इतने अरसे के बाद भी पश्चिम बंगाल में अपनी जड़ें जमाने का मौका नहीं मिल पाया है, क्या इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह मुमकिन हो पाएगा?
सवाल तो और भी हैं। जैसे- 1999 में जिस एआईएडीएमके की नेता जयललिता की वजह से वाजपेयी की सरकार गिर गई थी, क्या उसी पार्टी की सरकार बीजेपी इस बार फिर से तमिलनाडु में बनवा पाने में मदद कर पाएगी।
केरल-असम में क्या होगा?
आरएसएस की सबसे ज़्यादा शाखाओं वाले राज्य केरल में बीजेपी कमल खिला पाएगी, जहां अपनी ही 75 साल की उम्रसीमा के नियम को तोड़कर 88 साल के मेट्रोमैन श्रीधरन को चुनावी मैदान में उतारा गया है? क्या छोटे से केन्द्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में पार्टी अपनी सरकार बना लेगी जहां कुछ महीनों पहले उसने कांग्रेस के नारायणसामी की सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाई थी और क्या जनसंघ के ज़माने से घुसपैठियों का मुद्दा उठाने के बाद भी असम में फिर से सरकार बन जाएगी?
चीन की राजनीतिक पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना के कुल 9 करोड़ 58 लाख सदस्य हैं वहीं बीजेपी का दावा 18 करोड़ सक्रिय सदस्य होने का है, जिसका बड़ा श्रेय पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह को जाता है।
हिंदुत्व का रास्ता पकड़ा
अपने गठन के वक्त गांधीवादी समाजवाद के रास्ते को छोड़कर अब पार्टी हिंदुत्व के रास्ते पर चल रही है उसने अपने कोर एजेंडा के दो बड़े मुद्दों राम मंदिर निर्माण और जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाने के वादे को पूरा कर दिया है, जाहिर है मोदी के नेतृत्व में यह सब हुआ है।
एक ज़माने में बीजेपी का नारा होता था- सबको मौका दिया, इस बार हमें मौका दें। एक नारा बहुत चला- अबकी बारी, अटल बिहारी, लेकिन इस बात को मानने में किसी को गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि अब पार्टी अपनी सरकार के कामकाज को चुनावी मुद्दा बना रही है यानी जिस राज्य में उसकी सरकार नहीं है वहां वो बीजेपी की केन्द्र और राज्य सरकारों की तरह काम करने का वादा करती है, यह चुनावी राजनीति में हिम्मत का काम है, खासतौर से उस दौर में जब सरकारों को चुनावों में एंटी इनकमबेंसी को झेलना पड़ता है और ज़्यादातर सरकारें धराशायी हो जाती है, उसमें बीजेपी की राजस्थान समेत कुछ दूसरे राज्यों की सरकारें भी शामिल हैं।
मोदी-शाह की जोड़ी
बीजेपी के इस मंजिल तक पहुंचने के पीछे मोदी का नेतृत्व तो है ही लेकिन संगठन में एकजुट होकर काम करने की उसकी ताकत का मुकाबला नहीं किया जा सकता। राजनीतिक विशेषज्ञों का यह दावा भी किसी हद तक सही है कि मोदी और अमित शाह जैसे 24 घंटे काम करने वाले नेता किसी दूसरी पार्टी में नहीं हैं। साथ ही यह भी सच है कि जहां कांग्रेस पिछले कई साल से अपने नए अध्यक्ष की तलाश में ना केवल उलझी हुई है बल्कि इस मांग को करने वालों को बाग़ी करार दिया गया है जबकि बीजेपी में पिछले 41 साल में 11 चेहरे अध्यक्ष पद पर रहे हैं बल्कि हर बार आसानी से यह बदलाव हुआ है और उनमें से कोई अध्यक्ष पारिवारिक या वंशवाद का हिस्सा नहीं रहा है।
यह बात भी अहम है कि ज़्यादातर नेता आम कार्यकर्ता से ऊपर उठकर यहां तक पहुंचे हैं, इसमें वाजपेयी से लेकर मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्डा तक का नाम शामिल किया जा सकता है।
सामूहिक नेतृत्व में विश्वास ख़त्म?
अभी राजनीतिक वनवास झेल रहे वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी सबसे ज़्यादा तीन बार और सबसे लंबे समय 11 साल तक पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। अब तो पार्टी ने उनके साथ मार्गदर्शक मंडल की औपचारिकता भी ख़त्म कर दी है। लेकिन राजनीतिक जानकार मानते हैं कि एक महत्वपूर्ण बदलाव पार्टी में यह आया है कि वाजपेयी- आडवाणी के वक्त सामूहिक नेतृत्व में विश्वास करने वाली बीजेपी अब संघ की तरह एकचालुकानुवर्ती हो गई है।
कुछ लोग मानते हैं कि यह अच्छी बात है कि सरकार में पार्टी का दख़ल सीधा नहीं है और प्रधानमंत्री पर कोई दबाव नहीं है, लेकिन कुछ लोग इसे कमज़ोर संगठन की निशानी मानते हैं। वैसे नेहरू और इंदिरा गांधी के ज़माने में भी कांग्रेस ऐसे ही चला करती थी, यह और बात है कि सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते वक्त प्रधानमंत्री को आदेश के लिए संगठन की तरफ देखना पड़ता था।
29 दिसम्बर, 1980 को बम्बई में नई पार्टी बीजेपी के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण में कहा था, “अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।” कार्यकर्ताओं में जोश भर गया। पूरा मैदान उत्साह से भरा था, लगा कि यह पार्टी देश को नई दिशा देगी और पार्टी को दिशा देने का मौका जल्दी ही इस नेता यानी वाजपेयी को मिलेगा।
जनता पार्टी के टूटने, उससे अलग होने, बिछुड़ने की कड़वाहट जैसे गायब हो गई थी। हर कार्यकर्ता जोश और उत्साह से लबालब, मानो बस अब बीजेपी की सरकार बनना दूर नहीं। अब कमल खिलने से कोई नहीं रोक सकता। 6 अप्रैल, 1980 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में बीजेपी की शुरुआत हुई थी।
साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में बीजेपी को सिर्फ दो सीटें मिली, जो 1952 में जनसंघ के गठन के बाद हुए पहले चुनाव में मिली तीन सीटों से भी कम थीं तो ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों ने उसकी कब्र बनाकर फूल चढ़ाना शुरू कर दिया था।
वाजपेयी ने उठाये सवाल
15 से 17 मार्च 1985 तक कोलकाता में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वाजपेयी ने इन नतीजों के लिए नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए कई बुनियादी सवाल भी उठाये। वाजपेयी का कहना था कि बम्बई में 1980 में हुए पार्टी के अधिवेशन में यह माना गया था कि बीजेपी को कांग्रेस (आई) के विकल्प के तौर पर विकसित किया जाना चाहिए। लेकिन पांच साल बाद हम खुद को उस लक्ष्य से कोसों दूर पाते हैं...वाजपेयी कभी खुद की जिम्मेदारी से नहीं बचते। उन्होंने कहा कि यह मान भी लिया जाए कि 84-85 के चुनाव अप्रत्याशित हालात में हुए थे, जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता तो भी हमारी पराजय का यह एकमात्र कारण यह नहीं था।
पार्टी में वापस कट्टरपंथी और हिंदुत्व के रास्ते पर जाने का जोर बढ़ने लगा। आडवाणी की हिस्सेदारी और भूमिका बढ़ रही थी। वाजपेयी हाशिये पर जाने लगे थे। कोलकाता बैठक में वाजपेयी ने अध्यक्ष के तौर पर पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी खुद पर ली और कहा कि मैं कोई भी सज़ा भुगतने को तैयार हूं। बैठक में वाजपेयी के इस्तीफे के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया।
वाजपेयी हमेशा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भरोसा करते रहे। चुनाव नतीजों के बाद वाजपेयी ने आडवाणी को पार्टी के अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए कहा। वाजपेयी का मानना था कि किसी भी पद के लिए कोई एक व्यक्ति स्थायी तौर पर नहीं होना चाहिए जबकि उस वक्त बीजेपी के संविधान में एक साथ दो से ज़्यादा बार अध्यक्ष बनने पर कोई रोक नहीं थी।
आडवाणी बने अध्यक्ष
मई, 1986 में दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में आडवाणी अध्यक्ष हो गए। नेतृत्व में बदलाव भले ही दिल्ली में हो रहा था, लेकिन उसका आदेश नागपुर में संघ मुख्यालय से आया था। गांधीवादी समाजवाद से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरफ, आदेश था कि चलना है। यानी वाजपेयी को किनारे लगाने की कोशिश। लेकिन ये इतना आसान काम भी नहीं था।
बीजेपी का काम बिना वाजपेयी के चलने वाला नहीं था, सो उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा में भेज दिया गया। 30 जून, 1986 को वाजपेयी ने एक बार फिर राज्यसभा में सांसद की शपथ ली, लेकिन सड़क पर बीजेपी ने दूसरा रास्ता अखितयार करने का फैसला कर लिया।
उस वक्त तक संघ परिवार में माना जाने लगा कि ज़रुरत हो तो हिन्दू हित के लिए अलग पार्टी को भी खड़ा किया जा सकता है। इसी पर विचार करने के लिए 1987 में नागपुर में आरएसएस का सात दिन का वर्ग लगा। इस वर्ग में वाजपेयी और आडवाणी भी शामिल थे और नयी पार्टी बनाने या फिर बीजेपी के रास्ते हिन्दुत्व का एजेंडा आगे बढ़ाने पर गहन विचार मंथन हुआ।
कहा गया कि यदि पार्टी खुद को हिन्दू हित रक्षक के रूप में प्रस्तुत नहीं करती है तो इसका कोई भविष्य नहीं है लेकिन वाजपेयी इससे सहमत नहीं थे। भाऊराव देवरस इस पूरी योजना की देखरेख कर रहे थे।
तमाम झटकों और पथरीले रास्तों के बावजूद बीजेपी अपनी विचारधारा को लेकर आगे बढ़ी और 1996 में केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। बीजेपी और वाजपेयी दोनों का राजनीतिक वनवास ख़त्म हो गया।
1996 में जब वाजपेयी को राष्ट्रपति ने सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया, तब भी कोई दूसरा राजनीतिक दल उनके साथ आने को तैयार नहीं था। लेकिन बाद में वाजपेयी ने 1998-1999 में सरकार बनाई भी और अच्छे से चलाई भी। तब तक कई राज्यों में भी बीजेपी की सरकारें बनने लगीं थी।
2019 में मिली बड़ी जीत
फिर आया 2014, जब बीजेपी ने 282 सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनाई और अगले चार साल में पूरे देश का राजनीतिक रंग भगवा कर दिया। मोदी के नेतृत्व में 2019 में जब दोबारा सरकार बनी तो सब हैरान थे। 303 सीटों के साथ बीजेपी जीती। तीन सीट से सफ़र शुरू करने वाली पार्टी और आज कोई ऐसा नहीं था जो उसके साथ मिलकर सरकार नहीं बनाना चाहता हो।
1990 में बीजेपी के गठन के साथ ही पंच निष्ठा – राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय अखंडता, लोकतंत्र, सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता-सर्वपंथ समभाव और गांधीवादी समाजवाद है। जनसंघ के इस उद्देश्य पर ही नई बनी बीजेपी ने चलना शुरु किया और बहुत सी बाधाओं के बावजूद विचारधारा का रास्ता नहीं छोड़ा।
भारतीय जन संघ के महासचिव दीनदयाल उपाध्याय ने 1961 में लिखा था कि ‘जनता के लिए काम करने वाले राजनीतिक दल जनता की ताकत से ही खड़े होते हैं... राजनीतिक दलों की रचना जनता करती है और उनका भाग्य भी वही तय करती है।...राजनीतिक दल जो लोगों के लिए खड़े हैं, वे लोगों की ताकत पर खड़े होते हैं...यह वे लोग हैं जो राजनीतिक दल के आर्किटेक्ट और उसके राजनीतिक भाग्य के माध्यम होते हैं।”
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